तर्कसंगत होने की स्वतंत्रता और विचार लोकतंत्र के कायम और जारी रहने को सुनिश्चित करता है

जीवन में आस्था और विश्वास का अपना महत्व है। आस्था और विश्वास मन को शांत और समृद्ध कर सकते हैं, इन से मनःस्थिति तो बदल सकती है, वस्तु-स्थिति नहीं बदल सकती है। धार्मिक भावनाओं का संबंध मनःस्थिति से होता है, वस्तु-स्थिति से नहीं। दुष्ट लोग जानबूझकर मनःस्थिति और वस्तु-स्थिति के फर्क को ओझल करने की विभिन्न विधियां अपनाते रहते हैं। मनुष्य का मन भावुक सांद्रता से ओत-प्रोत रहता है, वहां बुद्धि उपस्थित रहकर भी सक्रिय नहीं रहती है। बुद्धि जानती है, महबूब का मुहं ‘चांद-सा’ हो नहीं सकता! लेकिन आदमी कहता, सुनता और मानता भी है, बुद्धि कोई बाधा नहीं खड़ी करती है।

बुद्धि तभी तक बाधा नहीं खड़ी करती है, जब तक मुंह के ऊपर कोई, ‘चंद्रयान’ चढ़ाने की तैयारी पर ही न उतर आये! आदमी को सक्रिय बुद्धिमत्ता के साथ की तभी जरूरत होती है, जब वस्तु-स्थिति का संदर्भ आता है। वस्तु-स्थिति के बदलाव की आकांक्षा के नेपथ्य में ‘नाट्य निर्देशक और फुस-फुसानेवाले’ की भूमिका में मनःस्थिति को ‘जलती हुई मोमबत्ती’ के साथ दुष्ट योजना ‎खड़ी कर देती है। मनःस्थिति यदि वस्तु-स्थिति को निर्देशित और संचालित करने लगे तो स्थिति भयावह हो जाती है।

बुद्धिमत्ता की सक्रियता वस्तु-स्थिति के बदलाव के लिए जरूरी होती है। वस्तु-स्थिति में बदलाव का सवाल उठते ही ‘वस्तुगत’ की खोज में बुद्धिमत्ता के सक्रिय होने की जरूरत होती है। यहीं वह बिंदु है जहां दुर्बुद्धि और सुबुद्धि में टकराव होता है। मनःस्थिति और वस्तु-स्थिति का टकराव असल में यहां आकर दुर्बुद्धि और सुबुद्धि के टकराव में बदल जाता है। दुर्बुद्धि मन के नैसर्गिक एवं नैतिक के स्वच्छ आकाश पर ग्रहण लगाती है। सत्ता समर्थित दुर्बुद्धि के छद्म-प्रसार को विवेक संपन्न सुबुद्धि रोकती है।

इसलिए, सत्ता सीधे विवेक बुद्धि पर हमला करती है। इस हमला में सब से बड़ा हथियार होता है, मनःस्थिति को संचालित करनेवाली भावुक सांद्रता में निहित भावनाओं के अंधविश्वास में बदल जानेवाला तत्त्व। सुबुद्धि के भी प्रस्ताव को अविश्वास के घेरे में दुर्बुद्धि ले लेती है। एक बहुत ही आजमाया तरीका है मिथ और मिथकथाओं को विश्वसनीय तथा इतिहास को अविश्वसनीय बनाना। भारत जैसे देश में जहां इसके महा आख्यानों के कथानक में मिथकथाओं की भरमार है, इतिहास को अविश्वसनीय बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। अवैज्ञानिक या विज्ञान विरोधी बातों को आज सबसे अधिक विश्वसनीयता प्राप्त है।

तर्कसंगत और न्याय संगत बात करने वालों को लगभग सत्ता का समर्थन प्राप्त झुंड के द्वारा खदेड़ ही दिया जाता है। यह खदेड़ा-खदेड़ी रोज होती है, कभी-कभी तो हत्या भी हो जाती है। डॉ नरेंद्र दाभोलकर (20 अगस्त 2013) और गौरी लंकेश (05 सितंबर 2017) की हत्या क्यों, कैसे किन परिस्थिति में किन लोगों ने कर दी! कई, नाम लिये जा सकते हैं, न लेने के कारण माफी चाहना होगा। तरंगी मीडिया के कई प्रतिष्ठित पत्रकारों को क्यों, कैसे, किन परिस्थितियों में किन लोगों ने ‘कलम और कैमरा’ की दुनिया से बाहर धकेल दिया इसका कोई-न-कोई हिसाब तो जरूर होगा। आजाद भारत के स्वाभिमानी नागरिक को मनःस्थिति और वस्तु-स्थिति के धरातल पर कितना सताया और सहाया गया है, कहने की जरूरत नहीं है, समझने की जरूरत है।

‎15 जनवरी ‎1934‎ को उत्तर बिहार और नेपाल में भीषण भूकंप आया था। 22 जनवरी 1934 को डॉ राजेंद्र प्रसाद ने महात्मा गांधी को भारी जन-धन और त्रासदी की सूचना तार से दी। महात्मा गांधी ने इसे अस्पृश्यता के पाप का दंड देने के लिए ईश्वरीय न्याय कहा। प्राकृतिक घटना को पाप और न्याय आदि से जोड़ने पर अंधविश्वासी माने जाने की हद तक चले जाने से भी महात्मा गांधी ने परहेज नहीं किया था। वे वही महात्मा गांधी थे जिनके जीवन का मूलमंत्र “सत्य” था! यह महात्मा गांधी का ऐसा बयान था जिसकी तीव्र आलोचना होना स्वाभाविक था। स्वभावतः, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी तीव्र आलोचना की। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अस्पृश्यता के मुद्दे पर तो महात्मा गांधी का समर्थन किया लेकिन ईश्वरीय न्याय को उनके अंधविश्वास से जोड़ा। हम यहां महात्मा गांधी के इस बयान पर कोई राय बनाने के बदले इसका उल्लेख सिर्फ इस लिहाज से करना चाहते हैं कि अंधविश्वास का उपयोग राजनीतिक प्रयोजन के लिए किया जाता रहा है।

हमारे संविधान निर्माता इन मूल बातों के प्रति बहुत सावधान थे। उन्होंने राज्य व्यवस्था के चरित्र को अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्ष बनाया। राज्य व्यवस्था के धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब सिर्फ यह था कि राज्य किसी भी धार्मिक व्यवस्था और विश्वास को राज्य के क्रिया-कलाप के मामलों में किसी प्रकार से तवज्जो नहीं देगा, दूसरे शब्दों में सिर्फ कानून और संविधान से संचालित होगा। आम नागरिकों को अपने धार्मिक विश्वास, अपनी आस्था के अनुसार जीने का अधिकार होगा। इतना ही नहीं, अपने-अपने धार्मिक विश्वास और आस्था के प्रचार-प्रसार का भी अधिकार होगा, यह अधिकार वहीं तक होगा जहां तक वह दूसरों के ऐसे ही अधिकार को खंडित न करता हो और संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन न करता हो।

संविधान की भावनाओं का आदर करना, उसके निर्देशों का अनुपालन करना, उसकी रक्षा करना नागरिकों का सामूहिक और व्यक्तिगत कर्तव्य है। आम नागरिकों से उम्मीद है कि वह वैज्ञानिक प्रवृत्ति को बढ़ावा दे, मानव मूल्यों का आदर करे। सही जिज्ञासा और जरूरी सुधार की भावना विकसित करना भी नागरिक दायित्व से बाहर नहीं पड़ता है। नागरिक से यह भी उम्मीद की जाती है कि वह भारत की बहुलात्मक एवं सामासिक संस्कृति की समृद्ध विरासतों का महत्व समझे और उनके अंतस्संबंधों का सम्मान करे।

संविधान सभा में नस्ल या धर्म आधारित राष्ट्रवाद के गुण-दोष पर लंबी और गंभीर चर्चा हुई थी। कभी-कभी तो हैरत होती है कि नस्ल या धर्म आधारित राष्ट्रवाद के नाम पर देश विभाजन की असह्य पीड़ा से सद्यः गुजरते हुए भी हमारे राष्ट्र नायकों ने कितनी अधिक नैतिक निष्ठा और वैचारिक दृढ़ता से नस्ल या धर्म विमुक्त राष्ट्र को खड़ा किया होगा। दुनिया के नामी-गिरामी बुद्धिजीवियों ने भारत जैसे देश के नस्ल या धर्म विमुक्त राष्ट्र ‎के रूप में टिके रहने पर आशंका व्यक्त की थी। भारत एक नस्ल या धर्म विमुक्त राष्ट्र के रूप में न सिर्फ टिका रहा, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक अचरज के रूप में दुनिया के नक्शे पर टिका रहा।

ऐसा नहीं है कि सब कुछ आदर्श रूप में चलता रहा है। व्यावहारिक राजनीति की झीका-झोरी चलती रही। सब कुछ के बावजूद इसकी आत्मा अक्षत रही। हर आघात, विघात विश्वासघात को झेलने के बाद भी भारत नस्ल या धर्म विमुक्त राष्ट्र के रूप में अपना तिरंगा सीमाहीन आसमान में शान से लहराता रहा। समस्या तब खड़ी हुई जब देश के आम नागरिकों के सामने लोकलुभावन राजनीति के दौर में ‘अच्छे दिन’ का ऐसा घनचक्कर चला कि लोकतांत्रिक ढांचे में तानाशाही ने अपना बसेरा ही बना लिया। अपने ही देश के संदर्भ में ‘तानाशाही’ शब्द का उल्लेख कितना पीड़ादायक होता है, समझना बहुत मुश्किल तो नहीं है, मुश्किल है इसके स्थान पर प्रयोग करने के लिए कोई अन्य शब्द खोज निकालना।

किसी लोकतांत्रिक देश में जनप्रतिनिधियों की इतनी अधिक खरीद फरोख्त होती है! किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायिक प्रक्रिया के बिना सरकार किसी के घर पर बुलडोजर चला सकती है! किसी लोकतांत्रिक देश में बिना न्यायिक सुनवाई के लोगों को इस तरह से जेल में रखा जा सकता है! बिना समुचित न्यायिक प्रक्रिया के सालों-साल जेल में रहने के बाद, बाहर निकल आये लोगों के मुहं से सुनी यातनाओं और अमानवीय दुरवस्था की कहानियां किसी लोकतांत्रिक देश के जेल की हो सकती है? लोकतांत्रिक देश जेल को ‘सुधार गृह’ कहता है, तानाशाही देश जेल को ‘यातना गृह’ बना देता है। क्या किसी लोकतांत्रिक देश में जेल में डाले गये लोगों के सारे नागरिक अधिकार, मानवाधिकार समाप्त हो जाते हैं? क्या लोकतांत्रिक देश के जेल में रखे गये नागरिक के लिए अन्यथा प्रयोज्य कानूनी प्रावधानों का कोई अस्तित्व नहीं बचा रहता है?

असल में वस्तु-स्थिति की वंचनाओं से उपजनेवाले वास्तविक सवालों को मनःस्थिति के कपोल-कल्पित जवाबों से टरकाने के लिए तर्क और तार्किकता के पूर्ण निषेध की प्रवृत्ति ने हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। असंवैधानिक घोषित चुनावी चंदा (Electoral Bonds) के मुद्दे पर भारतीय स्टेट बैंक एवं अन्य संबद्ध की ऐसी ढिठाई का नजारा क्या कहता है! उन लोगों के मन पर इस ढिठाई का क्या असर पड़ रहा होगा जिनका अटूट विश्वास सर्वोच्च न्यायालय पर टिका हुआ है! मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। इसमें और क्या-क्या कहानियां जुड़ती है, यह भविष्य के गर्भ में है।

एक बुनियादी बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि न्यायालय की ताकत वैधानिकता के साथ-साथ नीति और नैतिकता में होती है। जब राज्य सत्ता को न उपलब्ध वैधानिकता की कोई चिंता हो, न सार्वभौम नीति, नैतिकता की ही कोई परवाह हो तो, न्यायालय की कई सीमाएं भी प्रकट होने लगती है। फिर भी, ‘न्यायिक दुस्साहस’ लोकतंत्र के लिए कहीं से शुभ नहीं हो सकता है, इसका भी इल्म तो होना ही चाहिए, ऐसी है यह ट्रेजडी!

जैसे-जैसे सरकार और जनता के बीच से संस्थाएं गायब होने लगती है, सरकार और जनता सीधे आमने-सामने होने लग जाती है। सरकार में कारगर सामूहिक नेतृत्व का अभाव ‘एक व्यक्ति’ और जनता को आमने-सामने कर देता है, यह तानाशाही को महसूस करने का बहुत ही प्रामाणिक पैमाना है। ऐसे में, संस्कृति की समझ (Cultural Competence) और सामाजिक दक्षता (Social Efficacy) को आपस में भिड़ा दिया जाता है। दरिद्रता (destitution) की स्थिति में पड़े हुए लोगों के ‘दुख दर्द का मसीहा’ पचकेजिया मोटरी-गठरी पकड़ाकर निश्चिंत हो जाता है। सवाल है, कब तक?

एक बात की तरफ ध्यान गये बिना नहीं रहता है कि नस्ल या धर्म आधारित राष्ट्रवाद ‎के पैरोकार ‘अल्पसंख्यकों’ पर इतने आक्रामक क्यों बने रहते हैं? शायद इसलिए कि जिन महा आख्यानों के कथानक और मिथकथाओं की भावानुकूलता से वे अपने धर्म के लोगों को उलझाने में सानी से सफल हो जाते हैं, उतनी आसानी से अन्य ‘धर्मावलंबियों’ में वैसी भावानुकूलता नहीं बना पाते हैं, ‘अल्पसंख्यक’ उनकी चाल और जाल को जल्दी समझने और काटने में अधिक सक्षम होते है।

सच को हमेशा सवाल का समाना करना पड़ता है। झूठ को किसी सवाल का सामना नहीं करना पड़ता है। तानाशाही का पहला कदम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने का होता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाना विचार करने की स्थिति और संभावना को सीमित और समाप्त करने के लिए जरूरी होता है। लोकतंत्र के लिए विचार जरूरी होता है। विचार लोकतंत्र के कायम और जारी रहने को सुनिश्चित करता है। तानाशाह विचार से डरता है। तानाशाह के लिए स्वतंत्र, बुद्धिमान, और तार्किक नागरिक सब से खतरनाक होता है। तानाशाही के लिए सभी खतरों की जड़ है, तार्किकता।

भारत जैसे ‘बातूनी’ देश में न तो तार्किकता को समाप्त किया जा सकता है, न लोकतंत्र को समाप्त किया जा सकता है, सच! यही, वह ‎‘बातूनीपन’ है, जिसने भारत को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ बनाया। बार-बार ‎‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहनेवाले भी भारत के ‎ ‎‘बातूनीपन’ ‎ की ताकत को ठीक से पहचानते नहीं हैं। हां, भ्रम में जीने का अधिकार हर किसी को है, तब तक जब तक भ्रम टूट न जाये।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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