आज़ादी के जश्न से आज भी दूर हैं बापू

15 अगस्त, 1947 को जब देश की आजादी का ऐलान हुआ, वह गाँधी जी के लिए जश्न का दिन नहीं था। इधर देश उत्सव में मग्न था, और उधर महात्मा गांधी 14 अगस्त, 1947 की रात कलकत्ता में शांति लाने के प्रयासों में बझे हुए थे। गाँधी जी की साप्ताहिक पत्रिका थी हरिजन। उसके संपादक और गाँधी जी के सचिव प्यारेलाल का मन भी बुझा बुझा था।‘हरिजन’ गाँधी जी के विचारों, दर्शन और वक्तव्यों के प्रामाणिक स्रोत के रूप में मशहूर पत्रिका थी। उसके 17, 24, और 31 अगस्त के अंकों में आजादी के जश्न से जुड़ी कोई चर्चा नहीं थी जिसमें लोगों को बधाई वगैरह दी गई हो। हरिजन में दैनिक प्रार्थना के बाद लगातार गांधी जी के भाषणों की रिपोर्ट्स आती थीं जिनका आजादी से कोई संबंध नहीं होता।      

‘गाँधी:द रोड टू फ्रीडम’ में इतिहासकार रूद्रांशु मुख़र्जी आजादी के बाद अपने टूटे सपनों के बीच बैठे निपट अकेले महात्मा का बड़ा मार्मिक वर्णन करते हैं: “यदि आप पूछें कि आधुनिक भारत पर गाँधी का क्या प्रभाव है तो जवाब है: ‘कोई भी नहीं। जब भारत आजादी का जश्न दिल्ली में मना रहा था, तब गांधी कलकत्ता में खून खराबा रोकने की कोशिश में लगे हुए थे”। रूद्रांशु मुख़र्जी आगे लिखते हैं: “उनका पूरी तरह मोहभंग हो चुका है। वह एक टूटे हुए इंसान हैं। वह नहीं सोचते कि इसी आजादी के लिए उन्होंने संघर्ष किया था। इस स्वतंत्रता के लिए वह नहीं लड़े थे। उनके दो सपने, अहिंसा और भारत की एकता, हिन्दू मुस्लिम एकता…ये दोनों उनकी आँखों के सामने चूर चूर होकर पड़े हैं, ठीक उसी क्षण जो उनकी विजय का क्षण भी हो सकता था। और उस समय की कई विडंबनाओं में से सबसे विराट तो यह थी कि देश के जन्म के समय ‘राष्ट्र का पिता’ वहां उपस्थित ही नहीं था! गाँधी भारत की आज़ादी के समय दिल्ली से दूर रहने का फैसला करते हैं…”      

राष्ट्रपिता गाँधी को रवींद्रनाथ टैगोर ने महात्मा कहा और गांधी जी ने उन्हें गुरुदेव की उपाधि दी। टैगोर ने गाँधी जी को महात्मा सिर्फ इसलिए नहीं कहा क्योंकि वे सिर्फ देशव्यापी राजनीतिक आन्दोलन से जुड़े एक महान नेता थे, जिन्होंने अपने समय के सबसे सशक्त देश के खिलाफ एक अहिंसक संघर्ष छेड़ा, सफल हुए और जिनकी एक आवाज़ पर पूरा देश वैसे ही मंत्रमुग्ध होकर वैसे ही चल पड़ता था जैसे ब्राउनिंग की कविता ‘पाइड पाइपर ऑव हेमलिन’ में पाइप वादक के पीछे एक भरे-पूरे शहर के सभी जीव। क्षमा करें इस वक्तव्य का उद्देश्य गांधी जी के अनुयायियों को जीव-जंतु कहना नहीं, बल्कि गांधी की असीम, अप्रत्याशित शक्ति को रेखांकित करना है। जब गांधीजी बोलते थे, तो पूरा देश सुनता था, और उनके कहे पर चल पड़ता था। उनकी क्रूर हत्या के बाद से उपजे शून्य को यह देश आज भी भर नहीं पाया है।

आज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को देख कर कोई इस निराशाजनक निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रह सकता कि जिस समाज का स्वप्न गांधी जी ने देखा था, उससे हम कोसों दूर भटक चुके हैं। जहाँ खुले आम निजी और सामाजिक जीवन में पाखंड का महिमामंडन शुरू हो जाए, स्पष्ट है कि वहां गांधी के आदर्शों को अप्रासंगिक और व्यावहारिक समझा जाएगा। गौरतलब है कि कोई भी समाज भौतिक रूप से संपन्न और सफल व्यक्ति को न सिर्फ स्वीकार करता है, बल्कि उसे अपना आदर्श भी बना लेता है, उसकी तरह बनने की कोशिश भी करता है। उसी समाज के सामने जब कोई बौद्धिक और आंतरिक समृद्धि की बातें करता है तो उसकी उपस्थिति समाज में एक खलबली मचा देती है। फिर उसके साथ हम वही करते हैं जो गांधी जी जैसे लोगों के साथ किया जाता रहा है: उन्हें अनदेखा करते हैं, उनकी झूठी पूजा करते हैं या उन्हें ख़त्म कर देते हैं। गाँधी जी के साथ बारी-बारी से यह तीनों घटनाएं हुईं।

अपने समय में भी देश की आर्थिक नीतियों को लेकर गांधीजी और पंडित नेहरू के बीच मतभेद थे। गांधीजी औद्योगीकरण के विरुद्ध थे और नेहरू औद्योगिक प्रतिष्ठानों को आधुनिक भारत के मंदिर मानते थे। गांधीजी का मानना था कि उद्योग का अर्थ है और अधिक सामान, और उनके साथ में चलने वाली प्रतिस्पर्धा, लोभ, हिंसा और अंततः युद्ध। उनके विचार से औद्योगिक सभ्यता शैतान का आविष्कार थी। हर स्वप्नदर्शी की तरह गांधी ने आखिर में खुद को तनहा पाया। उन्हें गहराई से महसूस हुआ कि उनके दर्शन को साझा करने वाला कोई नहीं उनके इर्द गिर्द। प्रेम, उदात्तता, सौहार्द्र और करुणा का जो स्पर्श उनके जीवन में हुआ वह आम तौर पर लोगों की समझ से बाहर था। गांधी जी की पीड़ा यही थी। अपने कई कई विचित्र से प्रतीत होने वाले प्रयोगों के बावजूद गांधी जी अपने समय से काफी आगे थे। उन्होंने जिन तरीकों, जीने के जिस ढंग की बात की, उसके लिए संभवतः मानव चेतना अभी तैयार नहीं हो पायी है। ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता कि गांधी असफल रहे। हाँ, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि गांधी ने जिस मनोदशा की, जिस प्रेम, अहिंसा और करुणा की बातें की उसके लिए हम व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से तैयार नहीं हो पाए हैं। तो दोष गांधी के दर्शन का नहीं, हमारी समझ का है।    

इस देश की बदनसीबी है कि वर्तमान शासन सावरकर को गांधी के सामने खड़ा कर रहा है, उसकी महात्मा से तुलना भी कर रहा है। सावरकर पर आरोप था कि वह गांधी जी की हत्या में शामिल था। उसके उकसाने पर ही गोडसे ने महात्मा को मारा था। यह बात अलग है कि सबूतों के अभाव में सावरकर का इस जघन्य हत्या में शामिल होना सिद्ध नहीं हुआ। पर गाँधी जी, उनके तौर-तरीकों के विरोध और उस समय की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में शामिल होने के आरोप से उसे मुक्त नहीं किया जा सकता।

गांधी जी और सावरकर दोनों ने ही हिन्दू धर्म ग्रन्थों का अध्ययन किया। गाँधी जी तो गीता को अपनी मां भी मानते थे। जिन धर्म ग्रन्थों ने गांधी जी को उदार, करुणावान, सभी धर्मों का सम्मान करने वाला एक महान इंसान बनाया, उन्हीं धर्म ग्रन्थों की समझ ने सावरकर को गाँधी जी के हत्यारे गोडसे का मित्र बना डाला। जिस मजहब ने सूफी संतों को जन्म दिया, उसी ने अपनी बात कहने वाले रश्दी को दो दिन पहले स्टेज पर चढ़ कर चाकू से बुरी तरह जख्मी कर दिया। बड़े खौफनाक हैं धर्म, उनकी किताबें और उनको पढ़ने वालों की समझ!  

अचानक सावरकर को इस बातचीत में लाने का मकसद यह रेखांकित करना था, कि आजादी के पचहत्तर साल बाद भी गांधी उतने ही अकेले हैं, जितने वे 1947 में बंगाल में खून से लथपथ इलाकों में लोगों से शान्ति की अपील करते वक्त थे। आज भी उतने ही अकेले और उदास हैं। फर्क यही है, कि आज वह अधिक अपमानित हैं, और सावरकर एवं गोडसे जैसे लोगों के साथ उनकी तुलना की जा रही है। सत्ताशीन नेताओं द्वारा व्यक्तिगत बयानों में और कई सार्वजनिक मंचों से भी गांधी जी को लगातार अपमानित किया जाता रहा है।

बापू के उदात्त विचारों के बगैर,उनकी बातों का मखौल उड़ाते हुए निर्मित हो रहे तथाकथित नए देश और समाज में आजादी का जश्न कैसे मनाया जाए; हर छोटे बड़े मौके को बड़े हास्यास्पद तरीके से एक महान उत्सव में बदलने में लगे देश में यह सवाल मन में लगातार भनभनाता रहता है। यदि यह सवाल आपको भी परेशान नहीं करता, तो किसी प्रगतिशील, संघर्षशील आखिरी आदमी की फ़िक्र के लिए होने वाली किसी बातचीत में आप शायद ही शामिल हों पाएं।  

(चैतन्य नागर पत्रकार, लेखक और अनुवादक हैं।)    

चैतन्य नागर
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