गांधी स्मृति श्रृंखला (भाग-4):गांधी शुरू से बने हुए थे संघ समेत सभी हिंदुत्ववादियों की आंख का कांटा

क्या कहता है जीवन लाल कपूर आयोग: प्रमुख निष्कर्ष

इस आयोग के खंड पांच, अध्याय 21 और पेज 303 के अनुच्छेद 25.105 और 25.106 में दिए गए निष्कर्ष काबिलेगौर हैं:

‘‘25.105 निःस्सन्देह, आयोग इस मसले पर 21 साल बाद गौर कर रहा है, जबकि इस घटना को लेकर दोनों सिद्धांतों के पक्ष में तथा विपक्ष में मौजूद तमाम तथ्य उसके सामने हैं और जनाब नागरवाला इन्हीं तथ्यों की पड़ताल तथा संग्रहण में जुटे थे और उन्हें तमाम सुरागों के आधार पर काम करना था तथा सूचनाओं के छोटे-छोटे टुकड़ों के आधार पर इस पहेली को सुलझाना था, मगर निम्नलिखित तथ्यों को लेकर आयोग की राय में सही निष्कर्ष यही निकलता है कि वह हत्या का षड्यंत्र था न कि अपहरण की साजिश:

1. जिन सूचनाओं को जनाब मोरारजी देसाई ने श्री नागरवाला को दिया है;

2. प्रार्थनासभा के वक्त वहां गन कॉटन स्लैब का विस्फोट ;

3. इस घटनाक्रम को लेकर सावरकर का उल्लेख और दिल्ली की यात्रा पर निकलने के पहले मदनलाल और करकरे द्वारा सावरकर से की गयी मुलाकात

4. सिख जैसे दिखने वाले एक मराठा द्वारा हथियारों के एक जखीरे की रखवाली का उल्लेख

25.106: इन तमाम तथ्यों के मद्देनज़र इस बात से कहीं से इन्कार नहीं किया जा सकता कि गांधी हत्या की साजिश सावरकर और उनके समूह ने रची।  

सावरकर के साथ गोलवलकर।

गांधी हत्या: मिथकों का ध्वंस जरूरी !

प्रश्न उठता है कि गांधीजी के इन आतंकी हत्यारों ने अपने आपराधिक कारनामे को किस तरह वाजिब ठहराया ? उनका दावा था कि एक, गांधीजी ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य के विचार की हिमायत की और इस तरह वह पाकिस्तान निर्माण के लिए जिम्मेदार थे।

दो, कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण के बावजूद गांधीजी ने आमरण अनशन किया ताकि पाकिस्तान को दी जानेवाली 55 करोड़ रूपए की धनराशि दी जा सके।

तीन, मुसलमानों के कथित अड़ियलपन के पीछे गांधीजी के ‘तुष्टीकरण’ की नीति का हाथ है।

ऐसा कोई भी शख्स जो उस काल खण्ड से परिचित है बता सकता है कि ये तमाम आरोप बेबुनियाद हैं और तथ्यगत तौर पर गलत हैं। दरअसल साम्प्रदायिक सद्भाव के जिस विचार की हिमायत गांधी ने ताउम्र की वह संघ, हिन्दू महासभा के हिन्दू वर्चस्ववादी विश्व नज़रिये के बिल्कुल प्रतिकूल था। जहां हिन्दुत्व की ताकतों के कल्पनाजगत में राष्ट्र एक नस्लीय/धार्मिक संरचना/गढंत था, गांधी और बाकी राष्ट्रवादियों के लिए वह एक इलाकाई संरचना थी, एक ऐसा इलाका जहां अलग-अलग समुदाय और समष्टियां साथ रह रही हों।

इसमें अहम बात यह रही है कि भारत के बंटवारे के लिए गांधी का विरोध उसूलन था क्योंकि उनका मानना था कि धर्म के आधार पर किसी राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। एक भूभाग में रहने वाले लोग- फिर वह जिन भी आस्थाओं से सम्बद्ध हों, सम्प्रदायों से जुड़ें हों – वही एक राष्ट्र का निर्माण करते हैं। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य है कि ‘मुल्क का बंटवारा मेरी लाश पर होगा।’ बाद में उन्होंने भारी मन से ही कांग्रेस के फैसले के लिए अपनी सहमति प्रदान की। कांग्रेस नेतृत्व की भी मजबूरी थी कि जिस तरह इस उपमहाद्वीप में साम्प्रदायिक राजनीति ने अपनी शक्ल धारण की थी तथा जितनी तेजी के साथ उत्तर-पश्चिम के सूबों में- जहां मुसलमानों की बहुतायत थी- वहां हालात काबू से बाहर जाते दिख रहे थे, इसके लिए कांग्रेस नेतृत्व ने यह व्यवहारिक फैसला लिया कि भारत का बंटवारा हो ।

अगर बंटवारे की बात को सिद्धांत तौर पर रखने में किसी को चिन्हित किया जा सकता है तो वह गांधी नहीं बल्कि सावरकर थे, जिन्होंने 1937 में हिन्दू महासभा के सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए हिन्दुओं और मुसलमानों के अलग-अलग राष्ट्र होने की हिमायत की थी, जब अभी पाकिस्तान का प्रस्ताव सामने भी नहीं आया था।

रही जहां तक बात 55 करोड़ की तो उससे सम्बधित तथ्य यह है कि जब बंटवारे को लेकर शर्तें, देनदारियां तय हो रही थीं तभी यह तय हुआ था कि पाकिस्तान को 75 करोड़ की राशि दी जाएगी, जिसमें से 20 करोड़ रूपए तो दिए भी जा चुके थे। बाद में जब पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों ने कश्मीर वाले हिस्से पर आक्रमण किया तब बाकी भुगतान रोका गया था। भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन का मानना था कि चूंकि करार पहले हो चुका है, इसलिए भारत को इस राशि का भुगतान करना चाहिए।

नैतिक आधारों पर गांधी को भी यह बात ठीक लगी थी, लेकिन गांधी के इस स्टैण्ड का ताल्लुक उनके आखिरी अनशन से लगाना एक तरह से तथ्यों से खिलवाड़ करना है। 12 जनवरी की शाम गांधी ने जब अपने आमरण अनशन का ऐलान किया था तब उन्होंने उसके केन्द्र में दिल्ली तथा बाकी भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव कायम करने को ही केन्द्र में रखा था।

बैरिस्टर के तौर पर दक्षिण अफ्रीका में गांधी।

जाने माने सर्वोदयी नेता चुन्नीभाई वैद्य, जिन्होंने गांधी हत्या पर फैलाए गए झूठ का लगातार पर्दाफाश किया है, इस भूख हड़ताल तथा 55 करोड़ रूपए की बात को जानबूझ कर घालमेल किए जाने के बारे में लिखते हैं:

– गांधीजी ने 12 जनवरी को जब अपने अनशन का ऐलान किया तब इसका उन्होंने उल्लेख नहीं किया था। अगर उनकी वह शर्त रहती तो वह उसका उल्लेख अवश्य करते।

– 13 जनवरी को अनशन शुरू करने के पहले उन्होंने जो बातें रखीं, उसमें भी उन्होंने इसका उल्लेख नहीं किया।

– अनशन के मकसद को लेकर 15 जनवरी को पूछे गए सवाल के जवाब में भी वह इस बात का उल्लेख नहीं करते।

– भारत सरकार द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में भी इसका उल्लेख नहीं मिलता।

– डा राजेन्द्र प्रसाद की अगुआई वाली कमेटी जिसने गांधी को अपना अनशन तोड़ने के लिए मनाया उसने भी अपने बयान में इस बात का जिक्र नहीं किया कि इसके बारे में गांधी द्वारा कोई शर्त लादी गयी थी।

हम गांधीजी को मारने के चौदह साला इतिहास पर नज़र डालें – जो 1934 से शुरू होकर 1948 तक चला – यह साफ हो जाता है कि उन्हें मारने का षड्यंत्र बहुत पहले ही रचा जा चुका था, हिन्दुत्व ब्रिगेड के कर्णधारों और उसके प्यादों की नफरत भरी राजनीति के लिए वह बाधा बने थे, लिहाजा उनको मारने के लिए कई तरकीब उन्होंने रची थी। 1948 में उनकी हत्या के बाद उसे गोडसे तथा उसके आतंकी मोड्यूल की इस कार्रवाई को तात्कालिक प्रतिक्रिया के तौर पर पेश करना एक तरह का बहाना रहा है ताकि हिन्दुत्व के मास्टरमाइंड इस अपराध की जिम्मेदारी से बचाये जा सकें। जीवन लाल कपूर आयोग की विस्तृत रिपोर्ट में हम इन तमाम साजिशों का ब्यौरा पढ़ सकते हैं।

निश्चित ही इसमें झारखण्ड के देवघर में पंडों द्वारा गांधी पर किए गए ‘जानलेवा हमले’ का ब्यौरा शामिल नहीं है, जो उन्होंने उस वक्त़ किया था जब अस्पृश्यता निवारण के कांग्रेस के अभियान के दौरान गांधी वहां पहुंचे थे। अस्पृश्यता समाप्ति की गांधी की बातें या दलितों को मंदिर प्रवेश दिलाने के उनके प्रयास आदि से कथित ऊंची जाति के लोग वैसे ही क्षुब्ध रहते थे। ‘फ्री प्रेस जर्नल’ लिखता है कि उन्हें देख कर नारे लगते थे ‘धर्म खतरे में है’ / 27 जून 1935/

मालूम हो कि देवघर स्थित बैजनाथ मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने के गांधी के प्रस्ताव को लेकर सनातनी ताकतें इस कदर क्षुब्ध थीं कि उनके कार्यक्रम को आखिरी वक्त में बदलना पड़ा था। इसके बावजूद 26 अप्रैल 1934 की सुबह 2 बजे उन्हें काले झंडे दिखाए गए और उनकी कार पर हमला हुआ, गांधी जी किसी तरह उससे बच निकले। बाद में उन्होंने खुद कहा कि हमला ‘जान लेवा हो सकता था।’ इस ‘सनातनी गुंडागर्दी’ की चैतरफा आलोचना हुई लेकिन इस मसले पर अपने नियमित विरोध-प्रदर्शनों के जरिए सनातनियों ने इस बात को रेखांकित किया कि वह ‘‘हिन्दू धर्म’ की रक्षा कर रहे हैं। याद कर सकते हैं कि इस हमले से नेहरू खुद किस कदर नाराज हुए थे और उन्होंने ऐलान कर दिया था कि वह ‘ताउम्र देवघर नहीं जाएंगे।’

तीस का दशक और गांधी हत्या के साजिश के बीज

निश्चित ही इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि 26 अप्रैल 1934 को देवघर में जानलेवा हमले का शिकार हुए गांधी उसके कुछ ही माह बाद पुणे में हत्या की साजिश की चपेट में आए। हम खुद देख सकते हैं कि तीस का दशक इस मायने में काफी अहम हो जाता है जब हिन्दुत्व वर्चस्ववादियों के बीच गांधी की हत्या की योजना अब बनने लगी थी, जो सारतः सनातन मूल्यों की दुहाई देते घूमते थे।

बिहार में सनातनी संगठनों की सक्रियताओं पर टिप्पणी पूरे देश की स्थिति पर कमोबेश लागू जान पड़ती है।

‘‘वर्ष 1932 में हिन्दू सनातनी संगठन जनता को इसलिए लामबन्द कर रहे थे ताकि अस्पृश्यता को हिन्दू धर्म का एकीक्रत हिस्सा मान लिया जाए। वाराणसी की हिन्दू महासभा ने /16 नवम्बर 1932/ को सरकार को बाकायदा पत्र लिखा था कि वह हिन्दू धर्म के आंतरिक मामलों में दखल न दे। मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर संगठन को लग रहा था कि सरकार को चाहिए कि वह हिन्दुओं की भावनाओं की हिफाजत करे। भारत धर्म महामंडल के मुख्य कार्यालय की तरफ से मुल्क में मौजूदा असन्तोष को लेकर पत्र लिखा था, जिसमें उनकी अधिक चिन्ता ‘‘हमारी पवित्र व्यवस्था’ के विघटित होते जाने को लेकर थी।

गांधी गोलमेज सम्मेलन के समय लंदन में।

उसमें यह भी लिखा गया था:

हिन्दू, सनातनी, वर्णाश्रमी ऐसे शब्दों के मायने यही निकलते हैं कि जो व्यक्ति वेदों, स्मृतियों, पुराणों तथा अन्य हिन्दू ग्रंथों पर यकीन करता हो। शिक्षा की ईश्वरहीन और दोषपूर्ण शिक्षा के प्रभाव में आज हिन्दू शब्द का बिल्कुल अलग अर्थ हो गया है। उसे हम ब्रह्मो, आर्य समाजियों और कथित समाज सुधारकों, राजनेताओं के बीच नास्तिकों और यहां तक कि गैर मुस्लिम और गैरईसाइयों के सन्दर्भ में समानार्थी के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। वही खतरनाक गलती अक्सर सरकार के भी दिल में पैदा की जाती है कि हिन्दू आज भारत में कांग्रेस और ऐसे ही संगठनों के जरिए ब्रिटिश सरकार को जबरदस्त चुनौती दे रहे हैं…असली सनातनी हिन्दू जो वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन कर रहे हैं वह कर्म के नियमों के अनुसार ही शान्तिपूर्ण बदलाव, सरकार के प्रति वफादारी के पक्ष में रहते हैं और किसी भी किस्म की क्रांति के समर्थन में नहीं रहते हैं।

सनातनी संगठन और हिन्दू वर्चस्ववादी जमातों के बीच वैचारिक एकता के सूत्र यहां आसानी से पढ़े जा सकते हैं। जिस तरह हिन्दू वर्चस्ववादी अंग्रेजों की कृपादृष्टि के कायल थे, वही हाल इन सनातनियों का था- जो तीस के दशक में अंग्रेजों के प्रति वफादारी के दावे कर रहे थे – दोनों यही चाहते थे कि अंग्रेज सरकार हिन्दू धर्म की मौजूदा स्थिति में दखल न दे। आज़ादी मिलने पर जब संविधान निर्माण की चर्चा चली तो इन्हीं हिन्दू वर्चस्ववादियों ने मनुस्मृति को आज़ाद भारत का विधान बनाने की पेशकश की थी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अस्पृश्यता के बारे में गांधी की मान्यताएं बेहद समस्याग्रस्त थीं। वंचित/पीड़ित जातियों अर्थात डिप्रेस्ड क्लासेस के लिए उन्होंने जिस नयी शब्दावली ‘हरिजन’ का प्रयोग किया, वह अपने आप में सरपरस्ती/संरक्षणात्मक था, समानता के मूल्य पर टिका नहीं था।

गांधी अपने आप को सनातनी हिन्दू भी कहते थे, वर्णाश्रम को स्वीकार भी करते थे मगर साथ ही साथ अस्पृश्यता को पाप घोषित करते थे और इसलिए उसके उन्मूलन के लिए अपनी तरफ से सक्रिय भी थे और उन्होंने इसे कांग्रेस का एजेण्डा भी बनाया था। जाहिर है कि उनकी यह गतिविधियां सनातनी ताकतों के लिए चुनौती ही थीं। 1920 के एक भाषण में उन्होंने कहा था:

हम अछूतों की पीड़ा की तुलना भारत में अन्य किसी तबके से नहीं कर सकते हैं। यह मेरी समझ से बाहर है कि हम डिप्रेस्ड क्लासेस को अस्पृश्य घोषित करने को धर्म कैसे कह सकते हैं। मैं तो इस विचार से ही कांप जाता हूं। मेरा ज़मीर मुझे कहता है कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का हिस्सा कभी नहीं बन सकती। इन लोगों को अस्पृश्य मान कर हिन्दू समाज ने अपने आप को जिस पाप से घेर लिया है उससे मुक्ति के लिए मैं अपनी  पूरी उम्र भी लगा सकता हूं।

याद करें कि तीस का दशक वह कालखंड है जब बर्तानवी उपनिवेशवादियों के खिलाफ भारतीय अवाम का संघर्ष उरूज पर था। न केवल कांग्रेस पार्टी बल्कि कम्युनिस्ट तथा समाजवादी ताकतें ब्रिटिशरों के खिलाफ आक्रामक मुद्रा में थीं। अम्बेडकर-पेरियार-मंगूराम-अछूतानन्द जैसे सामाजिक इन्कलाबियों की अगुआई में भी सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष तेज हो रहे थे और अवाम की इन तमाम सरगर्मियों से हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतें – जो हिन्दू राष्ट्र के निर्माण का सपना संजोये थीं – कोसों दूर खड़ी थीं। बर्तानवी साम्राज्यी ताकतों के खिलाफ जनता की गोलबन्दी को मजहब के आधार पर या जाति-समुदाय के आधार पर बांटने के प्रयास में मुब्तिला थीं।

एक बात यह भी तय है कि वक्त़ के साथ, जैसे-जैसे साझे राष्ट्रवाद का विचार समाज में जड़मूल हो रहा था, जहां गांधी एक अग्रणी व्यक्ति थे, हिन्दुत्व के योद्धाओं को लगने लगा था कि जब तक वह जिन्दा हैं तब तक हिन्दू राष्ट्र बनाने की उनकी परियोजना कभी सफल नहीं हो सकती। उनके लिए गांधी ही निशाने पर थे क्योंकि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के वही सर्वोच्च नेता थे और दूसरे, वह जिस विमर्श का इस्तेमाल करते थे – धर्म की जो भाषा वह प्रयोग करते थे – उसके चलते हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों के लिए यह स्पष्ट था कि हिन्दू एकता कायम करने का उनका विचार बहुत दूर तक नहीं जा सकता।

चरखा कातते गांधी।

रेखांकित करने वाली बात है कि गांधी के साथ उनका संघर्ष दो स्तरों पर था:

पहले, राष्ट्रवाद/राष्ट्रत्व के विचार को लेकर- क्या उसे साझा होना चाहिए या उसे धर्म आधारित होना चाहिए;

दूसरे, हिन्दू धर्म का विचार – गांधी के लिए हिन्दू धर्म का अर्थ था ‘‘सर्व धर्म समभाव’’ जबकि हिन्दुत्व के विचारकों के लिए उसके मायने बिल्कुल विपरीत थे।

तीस का दशक भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव जैसों की शहादत के लिए /23 मार्च 1931/ और उससे उपजे प्रचंड जनाक्रोश के लिए भी जाना जाता है, जिसका प्रतिबिम्बन कांग्रेस के कराची अधिवेशन में भी दिखाई दिया था जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की बात बुलन्द की। कराची कांग्रेस- जिसकी अध्यक्षता वल्लभभाई पटेल ने की थी और जिसमें कांग्रेस के तमाम अग्रणी नेताओं ने हिस्सा लिया था – ने राज्य की धार्मिक तटस्थता की बात की।

कराची कांग्रेस के सत्र का विवरण प्रस्तुत करते हुए तीस्ता बताती हैं कि उसका नतीजा यह हुआ कि

‘‘कांग्रेस ने बुनियादी अधिकारों और आर्थिक नीति को लेकर प्रस्ताव पारित किया जो पार्टी के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रोग्राम को प्रतिबिम्बित करता था। … पहली दफा, उसने यह परिभाषित करने की कोशिश की कि आम भारतीय के लिए स्वराज का क्या मतलब है। इन प्रस्तावों के कुछ महत्वपूर्ण पहलू इस प्रकार थे: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता, संगठन की स्वतंत्रता, कानून के सामने समानता, सार्वजनीन वयस्क मतदान आदि पहलुओं को लेकर बुनियादी नागरिक अधिकारों की गारंटी ; मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा, लगान और कर में भारी कमी; कामगारों के लिए बेहतर हालात .. अस्पृश्यता की संस्था पर कानूनी तरीके से हमले के लिए कानून का निर्माण … इन सिद्धांताधारित बयानों को बाद में भारत के संविधान में भी शामिल किया गया।

इस बात को आगे बढ़ाते हुए वह यह भी लिखती हैं कि ‘‘किस तरह कांग्रेस पार्टी के रचनात्मक कार्यक्रमों में साम्प्रदायिक एका का मसला प्रमुख था’ और किस तरह कांग्रेस के दायरे में अग्रणी मुस्लिम बुद्धिजीवियों को शामिल करने की कोशिश की जाती रही और किस तरह यह वही कालखण्ड था जब ‘‘बहुसंख्यकवादी तथा अल्पसंख्यकवादी साम्प्रदायिक ताकतें अपने संकीर्ण, नफरत पर टिके, साम्प्रदायिक एजेण्डे को आगे बढ़ाने में मुब्तिला थीं। उनके मुताबिक

‘‘धर्मनिरपेक्ष और साझा भारतीय राष्ट्रवाद हिन्दू राष्ट्र के हिमायतियों के लिए गहरी चिन्ता का विषय था। कराची कांग्रेस के प्रस्तावों के माध्यम से जिस जनतांत्रिक और समानतावादी एजेण्डा को राष्ट्रीय नेतृत्व ने आगे बढ़ाया था उसके प्रति भी उनकी चिढ़ थी। 1934 में गांधी को मारने की जिन कोशिशों का आगाज़ हुआ वह एक तरह से राष्ट्रीयत्व की प्रस्तुति, जाति, आर्थिक तथा अन्य जनतांत्रिक अधिकारों को लेकर प्रस्तुत की जा रही समझ – जिसने हिन्दू राष्ट्र के वर्चस्वशाली और अधिनायकवादी विचार को चुनौती दी – को लेकर की गयी प्रतिक्रिया थी।

सावरकर और गोलवलकर ने ‘‘राष्ट्रीयत्व’’ के बारे में जो लिखा है उसमें से अंश पेश करते हुए बद्री रैना, अपने आलेख ‘गांधीज मर्डर एण्ड आरएसएस’ में उसी किस्म की बात करते हैं।

‘‘गांधी की समाप्ति को एक तरह से हिन्दूवादी/फासीवादी शिविरों की ‘‘राष्ट्रवादी’ जरूरत के तौर पर देखा गया। इस खेमे में तथा गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस आन्दोलन के खेमे में विवाद का मुद्दा बना था आज़ाद भारत को चिन्हित करने वाली विशिष्टताओं को चिन्हित किया जाए। महासभा और संघ के नज़रिये में काफी अधिक समानता थी। किसी को महज सावरकर /1938, नागपुर सत्र/ और गोलवलकर / वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड, 1938/ के अंश पढ़ने चाहिए।

गांधी और पटेल।

सावरकर: ‘‘जो बुनियादी राजनीतिक पाप, जो हमारे हिन्दू कांग्रेसियों ने किया .. जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के वक्त अंजाम दिया गया और जिस मिथक का वह पीछा उसके बाद लगातार किए जा रहे हैं वह है इलाकाई आधार पर भारतीय राष्ट्र के निर्माण का और वह इस कोशिश में ही कि …आवयविक हिन्दू राष्ट्र के विकास को खत्म किया जाए ..हम हिन्दू अपने आप में राष्ट्र हैं क्योंकि धार्मिक, नस्लीय, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक नज़दीकियां हमें एक समरूप राष्ट्र में बांधती हैं। ’’

गोलवलकर: ‘‘इस विचार को पहली दफा फैलाया गया कि लोग राष्ट्रीय जीवन में प्रवेश करने वाले हैं, तय बात है कि राष्ट्र उन सभी से बनता था जो यहां रहते आए हैं और वह सभी लोग एक ‘‘राष्ट्रीय’ मंच पर एकजुट होने वाले हैं और ‘संवैधानिक तरीकों’ से अपनी ‘आज़ादी’ लेने वाले हैं। जनतंत्र की गलत धारणाओं ने इस नज़रिये को मजबूती दी है और हम अपने आप को अपने पुराने आक्रांताओं और दुश्मनों के साथ जोड़ने लगे तथा जिसके लिए हमने एक बाहरी नाम भी धारण किया – इंडियन – और हमारे संघर्ष में उन्हें जोड़ने के लिए प्रयासरत रहे। इस जहर के नतीजे से सभी वाकिफ़ हैं.. हम अपने ही हाथों से सच्ची राष्ट्रीयता को कमजोर कर रहे हैं। ‘‘वे सभी जो राष्ट्रीय अर्थात हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा से ताल्लुक नहीं रखता है, वह स्वाभाविक तौर पर ‘राष्ट्रीय’ जीवन के दायरे से बाहर हो जाता है। हम दोहराना चाहते हैं: हिन्दूस्थान में, हिन्दुओं की भूमि में, जहां हिन्दू राष्ट्र स्पंदित हो रहा है ’ जो आधुनिक दुनिया में वैज्ञानिक राष्ट्र के पांच सारभूत आवश्यकताओं को पूरा करता है।’’

इस तरह सावरकर से लेकर गोलवलकर, देवरस तक और मौजूदा समय के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों तक’ राष्ट्र का तसव्वुर एक निश्चित भूभाग के तौर पर नहीं किया जाता बल्कि एक नस्लीय/धार्मिक गढंत ; तौर पर किया जाता है। गांधी का दोष यही था कि उन्होंने कहा कि ‘‘हिन्दू मुस्लिम एकता के बिना कोई स्वराज अधूरा होगा।’ और उन्होंने इसी बात की कीमत चुकायी। ’’

गांधीजी का विलोपन: कुछ आसान किश्तों में!

‘‘हम अपनी आवाज़ को अधिक से अधिक ऊंचा करके भारत के लोगों को बताना चाहते हैं कि गांधीजी का गुजरना पाकिस्तान के लिए भी उसी किस्म का दुख भरा सदमा रहा है जितना भारत के लिए रहा है। हम ने लाहौर जैसे विशाल शहर में व्यथित निगाहें, नम आंखें और दुर्बल आवाज़ें सुनी हैं, जिस पर यकीन करना मुश्किल है। हमने नागरिकों की तरफ से स्वतःस्फूर्त हड़तालों और बन्द का आयोजन होते देखा है.. / पाकिस्तान टाईम्स, 2 फरवरी 1948/

गांधी की हत्या हुए 71 साल बीत चुके हैं।

अगर धार्मिक लोगों की जुबां में भी बोले तो वह कहते हैं कि मृत्यु के बाद सारे वैर खत्म हो जाते हैं। हिन्दुओं में तो बाकायदा संस्कृति सुभाषित है ‘मरणान्ति वैराणि’

यह अलग बात है कि हिन्दुत्ववादियों के लिए यह बेमतलब सा है। उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा कायम इस नज़ीर से भी कोई सरोकार नहीं है कि बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत के सेनापति अफजल खान- जिन्होंने 10 हजार सेना के साथ उन पर आक्रमण किया था और वार्ता चलाने के बहाने शिवाजी को खत्म करने की उसकी योजना थी – उसके उस संघर्ष में मारे जाने पर शिवाजी महाराज ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार किया था और उसकी कब्र का भी निर्माण किया था। इतना ही नहीं कब्र की देखभाल के लिए भी उन्होंने नियमित फंड मिलता रहे इसकी भी व्यवस्था की थी।

जिस महात्मा गांधी के जिन्दा रहते हिन्दुत्ववादियों की सियासत जोर नहीं पकड़ पायी थी और अंग्रेजों से लड़ने के बजाय वह जनता को आपस में बांटने में मुब्तिला थे और साथ ही साथ लगभग 15 साल से गांधी हत्या की साजिश में संलग्न थे और तरह-तरह की हरकतें कर रहे थे, उस गांधी की मौत से भी उन्हें सुकून नहीं मिला है।

जारी….

(“गांधी स्मृति श्रृंखला” के तहत दी जा रही यह दूसरी कड़ी लेखक सुभाष गाताडे की किताब “गांधी स्मृति-कितनी दूर, कितनी पास” से ली गयी है।)

सुभाष गाताडे
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सुभाष गाताडे