मोदी-शाह बेअसर, जनादेश भाजपा के ख़िलाफ़

हरियाणा विधानसभा चुनाव में जनादेश भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ गया है। मोदी-शाह की जोड़ी इस बार बेअसर साबित हुई है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल का 75 पार का दावा बहुमत से पहले ही दम तोड़ गया। अकेली सबसे बड़ी पार्टी होना भी भाजपा की नैतिक हार की ओट नहीं बन सकता है, जबकि उसका पूरा मंत्रिमंडल ही धराशायी हो गया हो।

भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव मुख्य रूप से पुलवामा पर केंद्रित किया था। विधान सभा चुनाव में वह 370 और कश्मीर के सहारे उतरी थी। हरियाणा जैसे छोटे से राज्य में कोई पार्टी पांच साल पूर्ण बहुमत और पूरी ठसक के साथ सरकार चलाने के बाद राज्य की जनता से जुड़े मसलों पर बात ही करना पसंद न करे तो जनता की नाराजगी स्वाभाविक कही जाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके बाद भाजपा के अध्यक्ष और ‘सर्वेसर्वा’ गृह मंत्री अमित शाह के हरियाणा की रैलियों के भाषण चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में ‘राष्ट्रवाद’ पर ही केंद्रित रहे।

इस छोटे से राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सात और गृहमंत्री अमित शाह ने पांच रैलियों को संबोधित किया था। पार्टी के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तीन, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने नौ, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और स्मृति ईरानी ने एक-एक सभाओं को संबोधित किया। हेमा मालिनी और सन्नी द्योल जैसे पार्टी से जुड़े सितारों को भी घुमाया गया। इसके बावजूद भाजपा बहुमत पाने के लिए तरस गई। जाहिर है कि प्रदेश की जनता ने इस बार उनकी समस्याओं से मुंह मोड़ने वाले मोदी-शाह के चुनावी फॉर्मूले को खारिज़ कर दिया।

भाजपा सरकार के खिलाफ जनादेश को इस एक तथ्य से ही समझा जा सकता है कि उसकी राज्य सरकार के दिग्गज मंत्री कैप्टन अभिमन्यु, ओमप्रकाश धनखड़, रामविलास शर्मा, कविता जैन, मनीष ग्रोवर, कृष्ण पंवार, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला, पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता सभी हारते चले गए। जाट-गैर जाट के पुराने पासे को अपने ढंग से चलाकर कामयाबी हासिल करने में सिद्धहस्त मानी जा रही इस पार्टी के जाट और गैर जाट दोनों ही तरह के मंत्री तो खेत रहे।

मोदी-शाह इस हार की जवाबदेही से बच नहीं सकते हैं, तो मुख्यमंत्री मनोहर लाल भी नहीं। 75 पार के बड़े दावे के साथ उन्होंने लगभग 77 जनसभाएं कीं। अश्वमेध का घोड़ा लिए घूमने के अंदाज़ में। उनकी बोली और बर्ताव के निशाने पर विपक्षी ही नहीं, अपनी ही पार्टी के लोग भी आए। फ़रसा कांड के बाद दबी जुबान में उनकी पार्टी के लोगों ने भी कहा कि स्वयंसेवक को मुख्यमंत्री पद का मान हो गया। अब उन पर योग्य उम्मीदवारों की अनदेखी कर मनमाने ढंग से टिकट बांटने के सवाल भी उठ रहे हैं। दादरी से बबीता फौगाट और महम से शमशेर खरकड़ा के मुक़ाबले बगावत कर आज़ाद लड़े उम्मीदवारों की जीत को उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है।

चुनाव में तमाम तरह की चर्चाएं चलती हैं तो यह भी चलती रही कि भाजपा के कई दिग्गज ‘कांटा साफ करने’ की नीति के तहत शिकार होने जा रहे हैं। इसमें भले ही सच्चाई न हो पर यह दिलचस्प है कि लगभग सभी दिग्गज प्रतिद्वंद्वी साफ़ हो जाने की स्थिति में अभी भी भाजपा की सरकार बनती है तो खट्टर ही मुख्यमंत्री पद के अकेले दावेदार बचे हैं।

कांग्रेस हाईकमान की उपेक्षा और सरकार की जेल भेजने की धमकी के बीच लोकसभा चुनाव में बुरी तरह मान-मर्दन के बावजूद भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपना गढ़ बचाने में कामयाब रहे। महम में आनंद सिंह दांगी की हार के बावजूद वे पुराने रोहतक, झज्जर, सोनीपत जिलों में अपना असर साबित करने में सफल रहे। पिछले चुनाव में रोहतक शहर से अपने उम्मीदवार बीबी बत्रा की हार से उन्हें मर्मस्थल पर जो चोट मिली थी, उसका भी दर्द इस बार जाता रहा।

कुछ दिनों पहले अस्तित्व के लिए जूझ रहे हुड्डा आज टीवी चैनलों पर सरकार बनाने का दावा करते दिखाई दे रहे हैं। भले ही यह दूर की कौड़ी हो पर इसमें कोई शक नहीं कि तमाम दांव-पेंच के जरिये 10 साल तक मुख्यमंत्री रहे हुड्डा के पास संसाधनों की कमी नहीं है। आज वे यह कहने की स्थिति में भी हैं कि हाईकमान उन्हें वक़्त रहते फ्रीहैंड देता तो नतीजे कुछ और होते। अब यह कहने की वजहें भी हैं कि राहुल गांधी के कृपा पात्र रहे और ऐन चुनाव के मौके पर पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पद गंवाने के बाद अशोक तंवर का पार्टी छोड़कर चले जाना कांग्रेस के लिए ब्लेसिंग डिस्गाइस साबित हुआ। वे कांग्रेस में रहते तो शायद खट्टर का 75 पार का वचन ज़रूर पूरा होता।

इस बात में भी कोई शक नहीं कि इस चुनाव में युवा नेता दुष्यंत चौटाला ज़ोरदार ढंग से उभर कर आए। लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी जन नायक पार्टी को ख़त्म करार दे दिया गया था। आज वे किंगमेकर और गोटी चल जाए तो बार्गेनिंग के बूते संभावित किंग तक कहे जा रहे हैं। हालांकि उनकी यही उपलब्धि अब उनके लिए चुनौती भी है कि क्या वे पंजाब के अपने बुजुर्गों के मित्र बादल की तरह भाजपा के सहयोगी की भूमिका में आकर अपने भाजपा विरोधी वोटर को नाराज़ करेंगे या कोई और कदम उठाएंगे। उनकी पार्टी की कामयाबी की वजह इस चुनाव में जाट मतदाताओं की रणनीतिक वोटिंग को भो माना जा रहा है। जाटों के मुक़ाबले गैर जाटों के ध्रुवीकरण को सफलता का मंत्र मान रही भाजपा से अपमानित महसूस कर रहे जाट मतदाताओं ने हुड्डा की तरह दुष्यंत को भी भरपूर समर्थन दिया और भाजपा के जाट नेताओं को सज़ा भी दी।

हरियाणा में भाजपा की नैतिक हार हो चुकी है पर शाह युग में इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वह सबसे ज़्यादा सीटें होने के बावजूद सरकार बनाने में संकोच करेगी। सत्ता और धनबल उसके पक्ष में है। यह अफवाहें भी शुरू हो गई हैं कि प्रशासन के जरिये उसकी निर्दलीयों तक पहुंच हो चुकी है।

(जनचौक से सतीश त्यागी की बातचीत पर आधारित। सतीश त्यागी हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार हैं। ‘पॉलिटिक्स ऑफ चौधर’ उनकी चर्चित किताब है।)

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