हिन्दुत्व की काशी करवट

बनारस में पूरी धजा में था हिंदुत्व। डूबता, उड़ता, तैरता, तिरता, घंटे-घड़ियाल बजाता, शंखध्वनियों में मुण्डी हिलाता, दीपज्योतियों में कैमरों को निहारता, झमाझम रोशनी में भोग लगाता खुद पर खुद ही परसादी चढ़ाता, रातबिरात घूमता; पूरी आत्ममुग्ध धजा में था हिंदुत्व। सजा आवारा। एक दिन में आधा दर्जन बार कपड़े बदल-बदलकर अपनी नंगई को ढांकने की कोशिश करता काशी में पूरी तरह निर्वसन था हिन्दुत्व। उत्तर प्रदेश सहित कुछ महीनों में होने वाले पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों से पहले जनरोष की गूंजती धमाधम से हड़बड़ाया, 2024 के आम चुनाव के लिए विध्वंसक एजेंडा तय करने के लिए व्याकुल और अकुलाया,  पूरी काशी को गुलाबी पोत लोकतंत्र का पिण्डदान और संविधान की कपालक्रिया करने को उद्यत और आमादा था हिन्दुत्व!! तैयारी पूरी थी; उसके इस त्रासद प्रहसन के पल-पल को अपलक दिखाने और मजमा जमाने सारे कारपोरेटी चैनल्स घाट-घाट पर अपना दण्ड-कमण्डल लिए पुरोहिताई  में जुटे थे।

अनायास नहीं था यह सब। यह एक ओर जहाँ किसानों से मिली पटखनी की धूल झाड़ने, रोजगार, महँगाई, जीडीपी सहित आर्थिक और वित्तीय मोर्चों पर सर चढ़कर बोल रही विफलताओं को भगवा आडम्बरों से ढांकने और देश की अर्जित सम्पदा की चौतरफा लूट करवाने की हरकतों को धर्म की आड़ में छुपाने की असफल कोशिश थी। वहीं दूसरी तरफ धर्माधारित राष्ट्र की अवधारणा को पूरी ताकत के साथ प्राण प्रतिष्ठित कर मुख्य आख्यान बनाने की साजिश थी।  इसीलिये काशी स्वांग को बाद में अयोध्या काण्ड तक ले जाया गया गया ।  भाजपा के सारे मुख्यमंत्रियों उप-मुख्यमंत्रियों की बनारस में बैठक के बाद उन्हें रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या में लाया गया था।

यह वह विषाक्त समझदारी है जिसको आजादी की लड़ाई के दौरान भारत की जनता पराजित कर चुकी थी। साफ़ शब्दों में धर्माधारित राष्ट्र की बेतुकी और विभाजनकारी समझदारी को ठुकरा चुकी थी और राज्यों के एक धर्मनिरपेक्ष संघ गणराज्य की स्थापना कर चुकी थी। जिन भेड़ियों को गांव से बाहर खदेड़ दिया  गया था, कॉरपोरेट पूंजी से गलबहियां करके कालान्तर में वे ही सरपंच बन बैठे हैं। इस गंठजोड़ को और मजबूत करने के इरादे से बनारस में मोदी इसे “विकास और परम्परा” का नया नाम दे रहे थे।

काशी और फिर अयोध्या में जो किया और दिखाया गया वह हिन्दू आचरण नहीं, हिंदुत्व लीला का मंचन है। एकदम शुद्ध रेडियोएक्टिव और खांटी हिन्दुत्व का मंचन। दोहराने की जरूरत नहीं कि हिन्दू और हिन्दुत्व समानार्थी नहीं है।  ये परस्पर विरोधी भर नहीं है एक दूसरे के विलोम भी हैं।

हिन्दुत्व एक पूरी तरह अलग- एकदम अलग -एक बहुत ही ताज़ी अवधारणा है।  इसके मौजूदा अर्थ में यह शब्द 1920 में वीडी सावरकर ने गढ़ा था और कोई भ्रम न रह जाए इसलिए एकाधिक बार उन्होंने अपने भाषणों और लेखों में कहा भी था कि यह एक राजनीतिक शब्द है, कि यह एक तरह की शासन प्रणाली है,  कि इसका हिन्दू धर्म से कोई सीधा संबंध नहीं है।” हालांकि अभी तक यह कोई नहीं समझ पाया है कि, अत्यन्त विविधताओं और अन्तर्निहित विभेदों से भरी यह हिन्दू धर्म नाम की प्रणाली क्या है? यहां यह प्रसंग है भी नहीं, सावरकर भी इस पचड़े में नहीं पड़े, वे खुद भी धर्म में विश्वास नहीं करते थे। स्वयं को हिन्दू नास्तिक कहते थे।

अलबत्ता शासन प्रणाली के मामले में वे हिटलर और मुसोलिनी तथा उनके नाजीवाद और फासीवाद के घोर प्रशंसक थे इसलिए उनके हिन्दुत्व की राजनीति और शासन प्रणाली क्या है इसे समझा जा सकता है।  सावरकर की इसी अवधारणा को 1939 में तत्कालीन आरएसएस सरसंघचालक गोलवलकर ने “वी एंड अवर नेशनहुड” में हिंदू राष्ट्र-स्वराज के नाम पर परिभाषित किया और इसके लिए पांच शर्तें भौगोलिक आधार, एक नस्ल आर्य, एक धर्म सनातन धर्म ,  एक संस्कृति ब्राम्हणी संस्कृति तथा एक भाषा संस्कृत निर्धारित कर दी। तब से अब तक आरएसएस और उसकी राजनीतिक भुजाएं ; पहले जनसंघ अब भाजपा इसी राह पर चल रही हैं और भारत को पाकिस्तान की तर्ज पर धर्माधारित- हिन्दुत्व आधारित हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती हैं।  बनारस में उसी का ड्रेस रिहर्सल हो रहा था। 

कहने की जरूरत नहीं भारतीय प्रायद्वीप के समूचे इतिहास का निर्विवाद सच यह है कि यह प्रायद्वीप कभी हिन्दू राज या किसी भी धर्म के आधार पर चलने वाला राज नहीं रहा। गुजरी कई हजार साल में हूण, शक, कुषाण, आर्य, तुर्क, गुर्जर, यवन, मंगोल न जाने कितनी नस्लों के लोग आये, उनके साथ दुनिया के सारे धर्म-पंथ, रीति-रिवाज, खान-पान, पहनावे आये और एकदूजे में रच बस कर साझी संस्कृति का निर्माण करते गए। रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी के शब्दों में कहें तो ;

“सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के ‘फ़िराक़’

क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया।”

इस तरह भारत का इतिहास हिन्दू या मुसलमान या क्रिस्तान का नहीं है।  धार्मिक टकरावों की बहुत सारी घटनाओं के बावजूद निरंतरता, बहुलता, मिश्रणशीलता और पुर्नरचनात्मकता से भरे हिन्दुस्तान का इतिहास है। पांच हजार वर्षों के ज्ञात सामाजिक राजनीतिक जीवन में हिन्दू राज/राष्ट्र की वर्तनी कभी नहीं रही। आरएसएस संचालित भाजपा के 2014 में सत्तासीन होने के बाद खासतौर से देश के सामाजिक राजनीतिक नैरेटिव को इस दिशा में धकेलने की हर मुमकिन नामुमकिन कोशिशें की जा रही हैं।

काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का सर्कस, मथुरा पर फड़कती भुजाएं, लिखाई पढ़ाई पर झपटते शृगालों के झुण्ड, रसोई के नियम और डाइनिंग टेबल के विधान तय करते गिरोह इसी की निरंतरता हैं। यही काम हिन्दुत्ववादी राजनीति के सत्ता-प्रमुख मोदी कभी गंगा में डुबकी लगाकर, कभी अधबने काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर के रैंप पर कैटवाक करते हुए कर रहे थे। यह समाज के सोच-विचार, समझ और व्यवहार के ताने-बाने को तीखे अम्ल में डुबोकर उसे जीर्णशीर्ण और जर्जर बनाने और मनुष्यता को निर्वासित कर देने की प्रक्रिया को तेज करना है। 

धर्मनिरपेक्षता किसी भी लोकतांत्रिक समाज की रचना व एकता की अनिवार्य शर्त है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है, यह स्वीकार करना व व्यवहार में लाना कि धर्म एक निजी मामला है। अपने व्यक्तिगत जीवन में हर व्यक्ति को इसकी आजादी व अधिकार है कि वह किसी भी धर्म को माने या न माने। किंतु धर्म को सार्वजनिक जीवन में घुसपैठ करने का कोई अधिकार नहीं है। राज्य और राजनीति को धार्मिक क्रियाकलापों से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए। यह आमतौर से समूचे मानव समाज और खासतौर से भारतीय समाज की शक्ति है जिसे अभी तक भी साम्प्रदायिक दुष्प्रचार खत्म नहीं कर पाया है। जिसे अब अगले हमले में संघ-भाजपा नया उभार देना चाहती है। 

हिन्दुत्व एक सर्वग्रासी और बहुआयामी चुनौती है। इससे मुकाबला सिर्फ आर्थिक मुद्दों पर संघर्षों को तीव्र करके भी नहीं किया जा सकता। इसके लिए सारे घोड़े खोलने और दौड़ाने होंगे। जनता का एक व्यापकतम संभव मोर्चा कायम करना होगा। बिना झिझके या तुतलाये हुए रुख लेना होगा। हिन्दुत्व के आक्रमण के निशाने पर जितने भी हिस्से और मूल्य हैं,  उन सभी पर बेहिचक स्टैंड लेते हुए सभी प्रभावितों को एकजुट करने का काम हाथ में लेना होगा। झुककर, मुड़कर, लोच दिखाते हुए नहीं सीधे तनकर आँखों में आँख डालकर मोर्चा लेना होगा। धर्मनिरपेक्षता पर अड़ने की जरूरत है- घिसटने की नहीं। 

ऐसा करना संभव है, किसान आंदोलन ने इसे करके दिखाया है। एक वर्ष पंद्रह दिन तक ठेठ दिल्ली के दरवाजे से लेकर गाँवों की चौपाल खेत-खलिहानों तक लड़े किसानों ने हिन्दुत्वी साम्प्रदायिकता के मरखने सांड़ को उसके सींगों से पकड़ कर जमीन से सटा दिया था। उनकी सारी चालें नाकाम कर दी थीं। ऐसे रूपक और प्रतीक चुने कि सब साजिशें धरी रह गयीं और वे अहंकार का मानमर्दन कर, तानाशाह की फूंक निकालकर घर वापस लौटे हैं।

रास्ता यही है।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के सचिव हैं।)

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