कैसे बदली पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तस्वीर?

(पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तस्वीर 2013 वाली नहीं रही अब वह बिल्कुल बदल गयी है। कभी मुजफ्फरनगर दंगों के लिए जाना जाने वाला यह क्षेत्र इस समय राष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन की अगुआई कर रहा है। पिछले सात सालों में ऐसा क्या हुआ जिससे न केवल किसानों के बुनियादी सवाल केंद्र में आ गए। बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पैदा हुई नफरत खाईं भी तकरीबन पट गयी है। इन्हीं सारे सवालों का जवाब नकुल सिंह साहनी के इस लेख में है। नकुल साहनी ‘चलचित्र अभियान’ के कर्ता-धर्ता हैं और उनका पूरा काम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही केंद्रित है। ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ डाक्यूमेंट्री के बाद चर्चे में आए नकुल साहनी के हवाले से पेश है पश्चिमी यूपी की राजनीतिक-सामाजिक हकीकत-संपादक)

दोस्तों,

मैंने सोशल मीडिया पर पिछले दिनों कई पोस्ट पढ़ी हैं जहां लोगों ने राकेश टिकैत को लेकर चर्चाओं के संदर्भ में आशंकाएं  और रोष व्यक्त किया है। अधिकांशत: गुस्सा बीकेयू के 2013 की मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में सांप्रदायिक हिंसा में गैरजिम्मेदाराना भूमिका को लेकर है।

साढ़े सात साल हो गये हैं जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश को उस पागलपन ने अपने आगोश में लिया था। हमने देखा कि बीकेयू का विभाजन हुआ और कई नये गुट उभरे। सबसे ज्यादा ध्यान योग्य बात बीकेयू के सबसे बड़े मुस्लिम नेता और बाबा टिकैत के बेहद करीबी माने जाने वाले गुलाम मोहम्मद जौला का अलग होना था।

दिलचस्प यह है कि अजित सिंह और जयंत चौधरी के 2014 में चुनाव हारने पर क्षेत्र के कई पुराने जाट नेताओं पर जैसे बिजली गिरी। उनमें से कई रोये कि, ‘हमने चौधरी साहब को कैसे हरा दिया?‘ कई जाट (खासकर पुरानी पीढ़ी के) शुरू से ही अपनी युवा पीढ़ी से 2013 की हिंसा में संलिप्तता को लेकर नाराज थे। दबी जुबान से वह यह कहते थे, “उम्मीद है कि ज्यादा देर न हो जाए इससे पहले कि युवा महसूस करें कि वह कहां गलत हुए?‘

यहां कहने का मतलब यह नहीं है कि समुदाय के बुजुर्ग हिंसा में संलिप्त नहीं थे। लेकिन जिन्होंने बीकेयू और आरएलडी का जलवा देखा था, पागलपन की निरर्थकता समझते थे। वह समझते थे कि क्षेत्र के मुसलमान उनके अस्तित्व का अविभाज्य हिस्सा थे। (उसमें भी क्षेत्र के मुस्लिमों में भी जातिगत विरोधाभास थे। पर वह अलग चर्चा का विषय है।)

कुछ स्थानीय स्तर के जाट नेता जैसे विपिन सिंह बालियान, ने दूसरों के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिम दूरी को कम करने का प्रयास किया। यह प्रयास, प्रशंसनीय थे, पर छोटे थे और उस समय नफरत व कड़वाहट का समुद्र बन चुके पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक छोटी बूंद की तरह ही थे।

दंगों के पांच साल बाद आखिरकार वहां हिंदू-मुस्लिम किसान पंचायत ठाकुर पूरण सिंह, गुलाम मोहम्मद जौला आदि जैसे लोगों के नेतृत्व में होने लगे। और फिर, 2019 के चुनावों से पहले राकेश टिकैत के नेतृत्व में एक विशाल रैली 10 मांगों के साथ दिल्ली पहुंची। रैली में हिंदू और मुस्लिम किसानों ने हिस्सा लिया। कई अन्य यूनियनों ने इस आंदोलन का समर्थन किया। दिल्ली थरथराने लगी। हालांकि उनकी सभी मांगें पूरी नहीं की गईं पर रैली को समाप्त किया गया। कई निराश हुए। कइयों ने महसूस किया कि उन्हें भाजपा ने खरीद लिया है।

2019 के बाद मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में बीकेयू के नेतृत्व में कई विरोध प्रदर्शन हुए। विरोध प्रदर्शनों में मुस्लिम किसानों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही। कई बीकेयू में पदों पर थे। जाहिर था कि राकेश टिकैत बीकेयू को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे। नरेश टिकैत को किनारे कर दिया गया था।

2013 महापंचायत में भी, जहां भाजपा ने पूरी तरह से बीकेयू मंच को हाईजैक कर लिया था, नरेश ही थे जो भाजपा नेताओं के साथ मंच पर दिखे थे। वह 2013 की हिंसा के बाद भी भड़काऊ बयान देते रहे। पिछले 2-3 सालों में, ऐसा लग रहा है कि राकेश ने यूनियन की बागडोर अपने हाथ में ली है और नरेश को किनारे किया है उसकी सांप्रदायिक राजनीति के कारण।

अब यह दोनों भाइयों के बीच वैचारिक संघर्ष है या सोची-समझी रणनीति, उन्हें ही पता।

अंतत: जब कृषि विरोधी विधेयकों के विरोधी दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे, गाजीपुर सीमा पर भी सबकी नजरें गड़ गईं? सच बताना ही पड़ेगा, जहां कई किसान आंदोलन से जुड़ना चाह रहे थे, राकेश टिकैत को लेकर संदेह थे। कइयों को शक था कि वह भाजपा एजेंट हैं और किसी भी पल पलटी मार सकते हैं।

हालांकि, 27 जनवरी को गाजीपुर सीमा पर घटी घटनाओं ने अवधारणा को पूरी तरह बदल दिया। पुलिस बल बड़ी संख्या में गाजीपुर सीमा से प्रदर्शनकारी किसानों को हटाने के लिए गया था। राकेश टिकैत की भावुक अपील, जिसमें वह रो पड़े, ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में हरकत पैदा कर दी। जो मुख्य बातें उन्होंने कहीं उनमें भाजपा को समर्थन के अपराध की स्वीकृति भी थी। उन्होंने कहा कि अपने इस निर्णय पर वह हमेशा पछताएंगे। उसी रात हजारों लोग मुजफ्फरनगर सिसौली गांव में टिकैत के घर पर जमा हुए। दो दिन बाद 29 जनवरी, 2021 को सिसौली गांव में ऐतिहासिक महापंचायत हुई। हजारों लोग पंचायत में शामिल हुए।

पंचायत में प्रमुख वक्ताओं में गुलाम मोहम्मद जौला भी थे। वह खुल कर बोले। उन्होंने कहा, “दो बड़ी गलतियां आपने की हैं। एक अजित सिंह को हराना और दूसरी मुस्लिमों को मारना। दिलचस्प यह है कि न तो उन्हें हूट किया गया न चुप कराने की कोशिश। एक गहन चुप्पी छाई हुई थी। आत्ममंथन। अन्य वक्ताओं ने कहा, “हम फिर कभी भाजपा के बहकावे में नहीं आएंगे।‘ एक अनूठा निर्णय लिया गया पंचायत में – भाजपा के बहिष्कार का। महापंचायतों के मामले में यह दुर्लभ है किसी राजनीतिक दल को सार्वजनिक रूप से नकारना।

आज भी जब किसानों का समर्थन गाजीपुर सीमा पर बढ़ता जा रहा है बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ आदि से, आपको ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं, ‘2013 एक बड़ी भूल थी। ‘भाजपा ने हमारे गुस्से का फायदा उठाया और हम बहक गये।‘ ‘भाजपा और सपा 2013 के हालात के लिए जिम्मेवार हैं।‘ और सबसे महत्वपूर्ण, ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2013 में भाजपा बढ़ी मुजफ्फरनगर दंगों के कारण, इसका पतन भी उसी मुजफ्फरनगर से होगा।‘ बीकेयू के प्रमुख नारों में ‘हर हर महादेव, अल्लाहू अकबर‘, जो 1988 में बोट क्लब पर गूंजा था, की जल्द वापसी हो सकती है।

क्या इससे अतीत को आसानी से मिटाया जा सकता है? क्या इससे 2013 के जख्म भरेंगे? 2013 मुजफ्फरनगर दंगों पर फिल्म बनाने और दंगों ने जिस पीड़ा, विनाश और ध्रुवीकरण को जन्म दिया उसके गवाह के रूप में मैं कहूंगा, “मेरे पास इसका जवाब नहीं है।“

शायद, शायद नहीं। जैसा कि 60,000 लोग, लगभग मुस्लिम ही, विस्थापित हुए थे और कभी अपने गांवों में नहीं लौट पाएंगे। 2013 की हिंसा के लिए जिम्मेदारों में से कई जो आज अतीत पर अफसोस कर रहे हैं, क्या उन्हें क्लीन चिट दी जा सकती है? क्या यह वास्तविक पछतावा है? मुझे नहीं पता। मैं इतना जानता हूं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने 2013 की हिंसा के कारण काफी भुगता है। उसके प्रभाव गंभीर हैं। कई आज तक भुगत रहे हैं। योगी मुख्यमंत्री नहीं बन सकते थे, यदि 2013 नहीं हुआ होता तो और शायद मोदी भी प्रधानमंत्री न बने होते। मैं यह भी जानता हूं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हाल की घटनाएं जख्मों को भरने और क्षेत्र में शांति वापस लाने में सहायक होंगी। हिंदुओं और मुस्लिमों के निजी रिश्तों में नया संवाद होगा। यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि सब कुछ बदल जाएगा। लेकिन ऐसे छोटे-बड़े कदम काफी महत्व रखते हैं।

जहां कई राकेश टिकैत को लेकर अब भी आशंकाएं जता रहे हैं और वह शायद सही भी हैं, मैं उन्हें अपील करना चाहूंगा कि वह हालात से सब्र से निबटें। यह मुश्किल समय है और ऐसे मंथन महत्वपूर्ण हैं। भाजपा ने भारत का जो नुकसान किया है, ठीक होने में काफी समय लगेगा। कभी-कभी विरोधाभास भी सामने आएंगे। जज्बाती प्रतिक्रयाओं से किसी को फायदा नहीं होगा।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब भी कई समस्याएं हैं। पंजाब में जहां आक्रामक किसान यूनियनें कई दशकों से सक्रिय हैं, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश (बीकेयू समेत) किसानों को जुटाने के लिए खापों पर निर्भर हैं। सामंतवादी रवैयों को समाप्त करने में समय लगेगा। लेकिन 29 की महापंचायत समाज के लोकतांत्रिकीकरण की दिशा में निश्चित रूप से एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम थी।

जैसा कि मेरे दोस्त अमनदीप सिंह संधू ने कहा, ‘मुजफ्फरनगर बागी है…‘ सच में भविष्यसूचक है।

नकुल सिंह साहनी
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नकुल सिंह साहनी