राजा ने एक देश को कैसे किया तबाह

एक राजा था। प्रजा उसे आराध्य सा पूजती थी। प्रजा खुशहाल तथा धन-धान्य से संपन्न थी। राज्य के अधिकारी ईमानदार थे तथा कर्तव्य परायण। भ्रष्टाचार या कामचोरी की कम-से-कम सजा मौत थी। 1-2 बार भेस बदल कर घूमते हुए कुछ गलत देखा तथा संबंधित लोगों को दंडित किया। लोगों में ख़ौफ था कि राजा किस भेस में आ जाए। राजा कई बार अपने विश्वस्त मंत्रियों के साथ घुड़सवारी पर निकलता तो किसी भी गांव में चलता-फिरता दरबार लगा देता।

मां के किस्से में राजा के न्याय की कई कहानियां हैं। उनके चक्कर में अगले राजा की कहानी जो कि इस लेख का मुख्य सरोकार है विलंबित हो जाएगा। राजा युद्ध विद्या में निपुणता के साथ विद्वान तथा दार्शनिक भी था, लेकिन राजा निःसंतान था। रानी तथा मंत्रियों की याचनाओं को दरकिनार करते हुए न दूसरा विवाह किया न ही उत्तराधिकारी के लिए किसी बालक को गोद लिया। राजा ने मृत्यु से पूर्व मंत्रि-परिषद की बैठक बुलाई।

मंत्रियों की उत्तराधिकारी की चिंता पर राजा ने कहा कि जन्म के संयोग से उसे यह राज्य मिला था, जिसे मैंने संयोग की धरोहर समझ कर संभाला। कोई भी व्यक्ति सर्वगुण संपन्न नहीं होता इसीलिए राज्य की खुशहाली के लिए मैं तो निमित्त मात्र हूं। राज्य का शासन तंत्र अपने नियम से चलता रहता है, राजा तो प्रतीक मात्र होता है।

सभी आतुर थे कि राजा किस मंत्री या अधिकारी के नाम की घोषणा करता है। राजा की घोषणा ने सबको चौंका दिया। राजा ने कहा कि उसकी मृत्यु के बाद, नगर से बाहर निकलते ही उसकी शवयात्रा के सामने जो पहला व्यक्ति मिले वही उसका उत्तराधिकारी है।

शवयात्रा के नगर से निकलते ही सामने त्रिपुंड लगाए, गेरुवे वस्त्र में एक जटाधारी, त्रिशूलधारी साधु पड़ गया। सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। साधु ने हड़बड़ाकर सैनिकों को दूर हटने की धमकी दी, वरना वह उन्हें शाप से भस्म कर देगा। सैनिक डर कर पीछे हट गए। राज्य के प्रधानमंत्री ने सर नवाकर विनम्रता से राजा की अंतिम इच्छा के बारे में बताया। साधु कुटिल मुस्कान के साथ अंतर्ध्यान होने का नाटक करने के बाद रहस्योद्घाटन के आध्यात्मिक अंदाज में बोला कि मां विंध्यवासिनी ने उसे सपने में किसी राज्य का भाग्य संवारने का आदेश दिया था, लेकिन भूगोल तथा समय के बारे में नहीं बताया था।

उसने कहा कि राजा की अंत्येष्टि तक वह कार्यकारी राजा रहेगा तथा तेरहवीं तक सिंहासन पर उसका त्रिशूल रहेगा। इस बीच भाग्य सुधारने में विंध्यवासिनी मां ने जिन सहयोगियों का नाम सुझाया था उन्हें भी बुला सकेगा। लोग भौंचक। उन्हें लगा कि राजा को पहले से ही मां विंध्यवासिनी की इच्छा मालूम थी।

साधू की अंतिम बात से मंत्री, अधिकारी चिंतित हो गए, लेकिन मां की इच्छा में कोई क्या कर सकता था। उसने कहा कि 13 दिन वह नगर के बाहर शिविर से भाग्य सुधारने की योजना बनाएगा तब तक पुराने राजा का शासन उसका त्रिशूल चलाता रहेगा। जय मां विंध्यवासिनी। तथा हर हर महादेव का उद्घोष करता साधू शवयात्रा का नेतृत्व करने लगा (शवयात्रा मूल में क्षेपक है)।

14वें दिन साधु महाराज ने इर्द-गिर्द के सभी साधु-फकीरों, जोगी-भिखारियों के साथ गाजे-बाजे के साथ महल में प्रवेश किया। पुराने मंत्रियों की जगह मां विंध्यवासिनी के भेजे साधु-फकीरों ने ले ली। शासन तंत्र में हडबड़ी तथा हड़कंप मच गया, लेकिन मां की इच्छा का कोई क्या कर सकता था। सारे सेठों व्यापारियों को व्यापार की छूट दे दी बस वे राजा के तमगे वाले किसी को जो भी चाहे देते रहें।

अधिकारियों को सुख शांति से रहते हुए राज-काज चलाते रहने का आदेश जारी हो गया। दान-दक्षिणा-भिक्षा पर जीने वाले साधु-फकीर शाही ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी बिताने लगे। जासूसों ने राजा को प्रजा में अधिकारियों तथा व्यापारियों, सेठ-साहूकारों की ज्यादतियों के चलते बहुत असंतोष की जानकारी दी तो राजा बोला सब ठीक हो जाएगा।

लोगों ने सोचा कि मां विंध्यवासिनी का आशीर्वाद प्राप्त पहुंचा हुआ महात्मा है, कोई चमत्कार करेगा। जासूसों ने बताया कि राज्य में असंतोष का फायदा उठाकर पड़ोसी राजा आक्रमण की योजना बना रहा है। राजा का वही जवाब, सब ठीक हो जाएगा। लोगों ने फिर सोचा इतना पहुंचा साधु-महात्मा है कोई चमत्कार करेगा।

अंततः जब जासूसों ने बताया कि पड़ोसी देश की सेना सीमा में घुस आई है। फिर वही जवाब। सबने सोचा बाबा अंत में कोई चमत्कार करेगा। जब जासूसों ने बताया कि दुश्मन की सेना नगर के द्वार तक पहुंच गई है तो उसने कहा द्वार खोल दो। अपने मंत्रियों-दरबारियों से कहा कि अपना झोला कमंडल उठाओ और चलो। इतने दिन बहुत मौज-मस्ती कर ली, तथा राज्य पड़ोसी राज्य में मिल गया।

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)

ईश मिश्रा
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