बंगाल में हिन्दुत्वा-कारपोरेट वैचारिकी का सबाल्टर्न-मुखौटा कितना कारगर होगा?

बंगाल के चुनावी नतीजे चाहे जो हों लेकिन चुनाव प्रचार की रणनीति के स्तर पर भारतीय जनता पार्टी ने अपने राजनीतिक जीवन का सबसे अनोखा प्रयोग किया है। उसका यह प्रयोग ‘राजनीतिक-पंडितों’ को ही नहीं, आरएसएस-भाजपा की राजनीतिक-धुरी समझे वाले ‘ब्राह्मण-वैश्य समुदाय’ को भी विस्मित करने वाला है। अब तक ये समुदाय भाजपा के पक्ष में ज्यादा मुखर रहे हैं। लेकिन बंगाल के मौजूदा चुनाव में नमासूद्र (दलित), आदिवासी और ओबीसी का उल्लेखनीय हिस्सा उस पार्टी के साथ मजबूती से खड़ा दिख रहा है, जिसे उनके बीच लंबे समय से ‘मनुवादियों की सबसे कट्टर पार्टी ’ कहा जाता रहा है। दूसरी तरफ, बंगाल के भद्रलोक का बड़ा हिस्सा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ और एक छोटा हिस्सा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई वाले वाम मोर्चा और कांग्रेस-आएसएफ गठबंधन के साथ दिखाई दे रहा है। निस्संदेह, बंगाल के दलित-ओबीसी-आदिवासी समुदायों में भाजपा ने अपना आधार बढ़ाया है।

ऐसा क्यों और कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हम दो पहलुओं पर गौर करें-1.सन् 2014 के बाद तेजी से बदलती बंगाल की राजनीति और 2. ब्राह्मण-वैश्य आधार वाली भाजपा की हिन्दुत्वा-राजनीति का सबाल्टर्न मुखौटा। सबसे पहले अगर हम सन् 2014 से बदलते बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो दिलचस्प पहलू सामने आते हैं। दो-ढाई दशकों से सूबाई राजनीति लगातार बदलती रही है। तीन दशक से ज्यादा सत्ता पर काबिज रहने वाले वाम-मोर्चा के राजनीतिक-पतन के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सूबे का नेतृत्व करना शुरू किया। संगठित कार्यकर्ता-आधारित वाम पार्टी-तंत्र को ममता बनर्जी के व्यक्ति-केंद्रित राजनीतिक-तंत्र ने पलट दिया। लेकिन जमीनी स्तर पर बंगाल के समाज और उसके सोच में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ। राजनीतिक बदलाव सत्ता का हुआ, समाज और उसके सोच का नहीं। चुनाव के नतीजों से भी इसकी पुष्टि होती रही। जो भद्रलोक पहले वाम मोर्चा के साथ होता था, उसका एक उल्लेखनीय हिस्सा ममता बनर्जी के साथ आ गया। सिंगूर-नंदीग्राम के विवाद को वाम मोर्चा ने जिस तरह निपटाने की कोशिश की, उसमें फंसकर वह अपना वजूद गंवा बैठा। उस दौर में भी भद्रलोक के एक हिस्से ने वहां के आंदोलनकारी किसानों का साथ दिया था।

ममता बनर्जी इस कदर छाईं कि लगातार दस साल सत्ता में रहीं और वाम मोर्चा को फिर से उभरने की मोहलत नहीं मिली। इसमें मोर्चा के नेतृत्व की अदूरदर्शिता और वाम-दलों की अंदरुनी समस्याएं ज्यादा जिम्मेदार रहीं। इस स्थिति को भांपकर भाजपा ने विपक्ष के स्पेस के लिए सन् 2011-12 से ही प्रयास तेज कर दिया। बंगाल में  भाजपा से ज्यादा आरएसएस लंबे समय से काम करता रहा। वाम मोर्चा सरकार के दौरान उसे प्रभाव-विस्तार का ज्यादा मौका नहीं मिला। लेकिन ममता के आने के बाद उसे खूब मिलने लगा। स्वयं ममता बनर्जी की पार्टी काफी समय तक केंद्र में भाजपा की सहयोगी पार्टी रही और उन दिनों की वाजपेयी सरकार में ममता केंद्रीय मंत्री थीं। इसलिए उनकी पार्टी सन् 2011 में जब सत्तारूढ़ हुई तो आरएसएस-भाजपा को बंगाल में अपेक्षाकृत अनुकूल माहौल मिला। पूरे राज्य में आरएसएस ने धड़ाधड़ शाखाएं शुरू कीं और अपने दफ्तर बनाये। उस समय तक बंगाल में 5 फीसदी वोट भी नहीं मिलते थे। सन् 2011 में भाजपा ने कुल 289 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे एक भी सीट नहीं मिली थी। इतनी सीटों पर लड़ने के बावजूद उसे महज 4 फीसदी वोट मिले थे। लेकिन ममता-राज में संघ-भाजपा ने दलित-आदिवासी क्षेत्रों को खासतौर पर चुना। हिंदुत्व-वैचारिकी-आधारित स्कूलों और आश्रमों का जाल फैलाया। हार के बाद वाममोर्चा में जमीनी स्तर पर भारी बिखराव दिखा। वाम मोर्चा के अनेक समर्थकों ने जान, जायदाद और हैसियत बचाने के लिए टीएमएसी का दामन थामा। राज्य-दमन से बचाव के लिए भी उन्हें यह जरूरी लगा।

संघ-भाजपा लगातार लगे रहे। सन् 2014 में उनकी ताकत का भारी उभार दिखा, जो सन् 2019 में और बढ़ गया। यह मोदी-शाह की कारपोरेट-हिन्दुत्वा समीकरण का नतीजा था। 2019 में भाजपा ने राज्य की कुल 42 संसदीय सीटों में 18 सीटें जीतकर लोगों को हैरान कर दिया था। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिलीं, जबकि सन् 2014 के संसदीय चुनाव में उसे 34 सीटें मिली थीं। भाजपा तब मात्र 2 संसदीय टीम हासिल कर सकी थी। उसे 17 फीसदी से बढ़कर सन् 2019 में 40 फीसदी वोट मिले। बंगाल के उत्तरी हिस्से और दलित-आदिवासी असर वाले इलाकों में उसे भारी बढ़त मिली। इसमें जंगलमहल का इलाका शामिल था। यह आरएसएस के काम और मोदी-शाह के कुशल चुनाव प्रबंधन, मीडिया-मैनेजमेंट और धन-शक्ति का नतीजा था। तृणमूल को दक्षिणी बंगाल और कोलकाता के आसपास के इलाके में बढ़त मिली, जिससे वह 18 सीटें हासिल कर पाई। तृणमूल को इस बार 43.4 फीसदी वोट मिले थे, जो सन् 2019 के मुकाबले 4 फीसदी ज्यादा थे। पर सीटें कम हो गईं। कांग्रेस का हाल बहुत बुरा हुआ। सन् 2014 के संसदीय चुनाव में उसके पास 4 सीटें आई थीं। 2019 में सिर्फ 2 सीटें मिलीं। इसमें एक तो अधीर रंजन चौधरी की बरहमपुर सीट थी, जहां वह लगातार पांचवीं बार जीते। सन् 2014 के संसदीय चुनाव में दो सीटें पाने वाला वाम मोर्चा 2019 में एक भी सीट नहीं हासिल कर सका।

अगर 2016 के विधानसभा चुनाव के नतीजे देखें तो वो बिल्कुल अलग रूझान पेश करते हैं। इसमें सबसे दिलचस्प था-भाजपा का प्रदर्शन। सन् 2014 के संसदीय चुनाव के मुकाबले बंगाल के मतदाताओं ने उसे कम वोट दिये। मतलब साफ था कि राज्य के चुनाव में उन मतदाताओं के एक उल्लेखनीय हिस्से ने भाजपा को वोट नहीं दिये, जिन्होंने सन् 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की भाजपा के पक्ष में वोट डाले थे। पार्टी ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतारा था। इसका मतलब साफ था कि सन् 2014 में भाजपा को वोट देने वाले मतदाताओं का उल्लेखनीय हिस्सा भाजपा-संघ का उतना प्रतिबद्ध मतदाता नहीं था। वह मोदी के बेमिसाल और खर्चीले प्रचारतंत्र से प्रभावित होकर तब भाजपा की तरफ गया था। असेंबली चुनाव में पार्टी की कमजोर स्थिति होने के चलते उसने उसे छोड़ दिया। सन् 2019 में वह फिर मोदी की भाजपा की तरफ गया और पहले से ज्यादा बड़ी ताकत के साथ। क्या मतदाताओं का यह वर्ग अब भाजपा का स्थायी जनाधार बन जायेगा?

सन् 2021 के रूझान फिलहाल कुछ ऐसी ही तस्वीर पेश कर रहे हैं। असल कहानी तो नतीजे बतायेंगे लेकिन इतना तो आइने की तरह साफ है कि सन् 2019 के संसदीय चुनाव में भाजपा को मतदान करने वाले मतदाताओं का बड़ा हिस्सा इस विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के साथ नजर आ रहा है। वह सन् 2016 की तरह भाजपा को निराश नहीं करेगा। इसके कई ठोस कारण हैं। सन् 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को महज 3 सीटों से संतोष करना पड़ा था और ममता बनर्जी को बड़ा बहुमत मिला। उन्हें राज्य विधानसभा की कुल 294 में 211 सीटें हासिल हुईं। कांग्रेस और वाम मोर्चा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। कांग्रेस को 44 और वाम मोर्चे को 32 सीटें हासिल हुई थीं। सन् 2016 तक भाजपा की ताकत वाम मोर्चा और कांग्रेस के गठबंधन के मुकाबले काफी कम थी। इस बार भाजपा की मोदी-शाह जोड़ी ने मनोवैज्ञानिक-युद्ध में वाम मोर्चा-कांग्रेस को पहले ही पीछे छोड़ दिया और टीएमसी से सीधी टक्कर में अपने को पेश करने लगी। राष्ट्रीय मीडिया कहे जाने वाले टीवीपुरम् ने इसमें भाजपा के प्रचारक की तरह काम किया। कम से कम क्षेत्रीय बांग्ला मीडिया की ऐसी भूमिका नहीं थी।

बंगाल में भाजपा-संघ के आधार-विस्तार में उनकी रणनीतिक-चतुराई का पहलू सबसे अहम् है। ब्राह्मण-वैश्य मिजाज और आधार वाली कट्टरपंथी हिन्दुत्व-पार्टी बंगाल में सबाल्टर्न-मुखौटा लेकर उतरी। मोदी-शाह के दौर में भाजपा ने इस मुखौटे को ज्यादा प्रभावी ढंग से लगाया। संघ ने भी उसे हरी झंड़ी दी। संघ के प्रचारकों से लेकर भाजपा के पर्यवेक्षकों या प्रभारियों के स्तर पर देखें तो भाजपा राजनीति की इस मुखौटाकरण की इस राजनीतिक प्रक्रिया को समझना आसान होगा। नमासूद्रा से लेकर ओबीसी और आदिवासियों से राजवंशियों तक, हर उत्पीड़ित और पिछड़े समाज को भाजपा ने बहुत योजना के साथ मिलाया और पटाया। कोरोना दौर में प्रधानमंत्री मोदी ने सिर्फ एक विदेश यात्रा की और वह थी बांग्लादेश की। वह भी बंगाल के चुनाव के बीच। वहां मतुआ समुदाय के आध्यात्मिक नेता-गुरू हरीचंद्र ठाकुर की याद में स्थापित स्मारक पर जाकर मत्था टेका। पिछले दो चुनावों में मतुआ वोटों का बड़ा हिस्सा ममता बनर्जी के साथ था। लेकिन इस बार ममता बनर्जी के सलाहकार प्रशांत किशोऱ स्वयं ही बोल रहे हैं कि 75 फीसदी वोट भाजपा और 25 फीसदी ममता को मिलेंगे। भाजपा काफी समय से मतुआ और अन्य दलित समुदायों के बीच काम करती आ रही है। पूर्वी बंगाल(अब बांग्लादेश) से आये दलित-शरणार्थियों को उन्होंने भरोसा दिया कि उनकी तमाम लंबित मांगें सीएए के जरिये संबोधित हो सकेंगी। यही कारण है कि बंगाल में भाजपा का हर नेता कहता आ रहा है कि उनकी सरकार बनी तो कैबिनेट की पहली बैठक में ही सीएए के नये नियमों के अमलीकरण पर फैसला हो जायेगा।

दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस ने भी एक दौर में दलित-ओबीसी के बीच कई आश्वासन दिये थे। कुछ फैसले भी हुए। सन् 2011-12 में ही पार्टी ने संकेत दिया कि वह वामपंथियों के मुकाबले ज्यादा समावेशी नीतियां अपनायेगी। ओबीसी आरक्षण पर ममता बनर्जी सरकार के फैसले को उन वर्गों ने पसंद भी किया। पर उनके दस वर्षों के शासन के बावजूद बंगाल में आज भी ओबीसी और दलितों के आरक्षण-प्रावधानों के क्रियान्वयन में कई पेंच हैं। ओबीसी को आज बंगाल में सिर्फ 17 फीसदी आरक्षण है, जबकि मंडल आयोग ने 27 फीसदी की सिफारिश की थी। बंगाल में यह 17 फीसदी भी पूरा नहीं मिलता। उसमें तरह-तरह के श्रेणीकरण हैं। बाहर से आकर बंगाल में बसे लोगों को जाति-प्रमाणपत्र तक नहीं मिलता रहा है। इसमें ऐसे भी लोग हैं, जिनकी तीन-तीन पीढ़ियां बंगाल में रहती आई हैं। ऐसे पेंच से वे आरक्षण आरक्षण का फायदा नहीं उठा पाते रहे हैं। इन तमाम नाराज लोगों को भाजपा ने इस बार फुसलाने की जबर्दस्त कोशिश की है।

उसने ओबीसी-दलित समुदाय के नेताओं को बड़े पैमाने पर टिकट दिये हैं और पदाधिकारी बनाये हैं। संकेत तो ये भी दिया है कि सरकार बनी तो मुख्यमंत्री ओबीसी समाज का ही बनेगा। कैसी विडम्बना है, एक ऐसी पार्टी, जिसनें हिंदी-भाषी प्रदेशों में ओबीसी आरक्षण को लगभग बेमतलब बना दिया और अब सरकारी-उपक्रमों को निजी हाथों में देकर आरक्षण के संपूर्ण विमर्श को ही लगभग खत्म कर डाला है, वह बंगाल के पिछड़ों के बीच सरकारी नौकरियों और उनके आरक्षण का झुनझुना बजाती नजर रही है। बंगाल में दलित-ओबीसी को फिलहाल भाजपा का यह झुनझुना इसलिए अच्छा लग रहा है कि वे वाम मोर्चा और तृणमूल, दोनों के शासन से निराश रहे हैं। बंगाल में पहले बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों को कहते सुना जाता था कि उनके प्रदेश में जाति-वर्ण का कोई मामला ही नहीं है, समाज में बस अमीर-गरीब हैं। फिर आज बंगाल की राजनीति में नमासुद्र, राजबंशी, आदिवासी और ओबीसी कहां से अवतरित हो गये? ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में अगर भाजपा ने अपने उच्च-वर्णीय हिन्दुत्वा, खासकर ब्राह्मण-बनिया सरोकार और वर्चस्व को ओट में रख बंगाल में फिलहाल सबाल्टर्न-मुखौटा लगाया है तो इस राजनीतिक-प्रयोग को हल्के में नहीं लिया जा सकता। देखना होगा, 2021 के इस महत्वपूर्ण चुनाव में इसका उसे कितना फायदा मिलता है!

(उर्मिलेश राज्यसभा के एक्जीक्यूटिव एडिटर रह चुके हैं।)

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