थका हुआ टीचर पढ़ाये कैसे?

‘बर्नआउट’ अंग्रेजी का शब्द है पर आज कल इसका सामान्य तौर पर हिंदी में भी उपयोग होने लगा है। इसका अर्थ है बहुत अधिक काम के कारण होने वाली थकान की वजह से अवसाद, चिड़चिड़ेपन और हमेशा थकान का अनुभव होना। जैसे किसी वाहन में ईंधन ख़त्म हो जाए, और वह रुक जाए। ऐसी ही हालत बहुत अधिक काम की वजह से किसी इंसान की हो जाए, तो उसे बर्नआउट का शिकार कहा जायेगा।

कॉर्पोरेट जगत में तो यह एक आम बात है। कम उम्र में ही लोग थक कर चूर हो जाते हैं, कई बीमारियों का शिकार भी हो जाते हैं। और देश में एक ऐसे महान उद्योगपति हैं जो सुझाव देते फिर रहे हैं कि लोगों को हफ्ते में सत्तर घंटे काम करना चाहिए। 

गौरतलब है कि देश में शिक्षण के पेशे में बर्नआउट की गंभीर समस्या है, पर इस पर शायद ही कोई गंभीरता से ध्यान दे रहा हो। शिक्षक लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि वे छात्रों को बेहतर शिक्षा दें। शायद यह बात सभी स्कूलों पर लागू नहीं होती, तो भी ऐसे कई स्कूल तो हैं हीं, जिनमें यह स्थिति हमेशा देखी जा सकती है।

ऑनलाइन शिक्षा, बनावटी बुद्धि के असर से शिक्षा जगत में दबाव बढ़ते जा रहे हैं। शिक्षक तनाव महसूस करते हैं, उन्हें शारीरिक और मानसिक थकान का अनुभव होता है और इस कारण वे अक्सर अपने काम-काज को लेकर उदासीन हो जाते हैं।

नौकरी में आनंद नहीं बचता, और नौकरी करना मजबूरी भी है। इसका सबसे बुरा असर पड़ता है बच्चों पर जो स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे होते हैं। ऐसे में शिक्षक अक्सर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से क्लांत हो जाते हैं। विरक्ति और उदासीनता भी इसी स्थिति में जन्मते हैं। 

शिक्षक में बर्नआउट या अत्यधिक थकान की कई वजहें होती हैं। स्कूल में शिक्षकों की संख्या अक्सर आवश्यकता से कम होती है। जब कुछ शिक्षक गैरहाजिर होते हैं तो समस्या और भी कठिन हो जाती है। क्योंकि फिर बाकी शिक्षकों को अनुपस्थित शिक्षकों के क्लास लेने पड़ते हैं, जिसका अर्थ है अतिरिक्त जिम्मेदारी और दोहरा तनाव।

अक्सर स्कूलों में शिक्षकों को प्रशासनिक काम भी सौप दिये जाते हैं। नए छात्रों के प्रवेश के समय, या नए सत्र की शुरुआत में अक्सर ऐसा होता है। जब देश में चुनाव या कोई महामारी जैसी घटना हो जाए तो शिक्षकों को भी ऐसे कामों में लगा दिया जाता है जिसका न ही उन्हें अनुभव होता है, और न ही उनकी रूचि।

कभी-कभार शहर में या दूर कहीं विशेष प्रशिक्षण के लिए जाना पड़ता है। यह सब काम के बोझ को बढ़ाता है। इस तरह की व्यस्तताओं के चलते शिक्षक न खुद पर ध्यान दे पाते हैं और न ही बच्चों का हित कर पाते हैं।

भले ही स्कूल प्रबंधन शिक्षकों से नए-नए तरीकों को अपनाने की सलाह दे, पर सचाई यही है कि वह अपने पाठ्यक्रम से बंधा रहता है। सिलेबस पूरा करने का काम सीमाबद्ध और तनावपूर्ण होता है। कुछ नया करने का दबाव एक नए तनाव का स्रोत ही बनता है।

शिक्षण के पेशे में एक ख़ास बात यह होती है कि एक शिक्षक को लगातार बच्चों के संपर्क में बने रहना पड़ता है, उनके साथ संवाद में लगे रहना पड़ता है। इसका भावनात्मक दबाव बहुत अधिक रहता है। बच्चों की ऊर्जा बड़ों की तुलना में बहुत अधिक होती है और उनके साथ लगातार बझे रहने में ही शिक्षक थक जाया करते हैं।

रिहायशी स्कूलों में तो यह समस्या बहुत ही गंभीर है। ख़ास कर तब, जब वार्डन और शिक्षक एक ही व्यक्ति हो। हर उम्र के बच्चों की अपनी समस्याएं होती हैं। कुछ उपद्रवी होते हैं, कुछ बड़े गुस्सैल, कुछ साथ मिलकर काम ही नहीं कर पाते और कई छात्रों को दोस्त बनाने में दिक्कत आती है।

किशोर उम्र के बच्चों को पढ़ाने वाले हाई स्कूल के शिक्षकों की समस्या अलग किस्म की होती है। उन्हें एक तरह के मनोवैज्ञानिक सलाहकार का काम भी करते रहना पड़ता है। इस तरह शिक्षकों का बच्चों में भावनात्मक निवेश बहुत अधिक हो जाता है और नतीजा फिर वही होता है – वे खुद को भी भूल जाते हैं। लगातार थकान की हालत में बने रहते हैं।

स्कूलों में सामाजिक, आर्थिक प्रगति के सीमित रास्ते और स्कूल प्रबंधन से अपर्याप्त सहयोग मिलना भी शिक्षकों की पीड़ा का कारण बनता है। अक्सर स्कूल के माहौल में शिक्षक ही अलग-थलग महसूस करने लगते हैं। बच्चे, अभिभावक, प्रबंधन सभी उनसे बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं और ये भी उनके लिए अतिरिक्त दबाव का कारण बनती हैं।

फिलहाल, वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए कुछ सुझाव दिए जा सकते हैं जो प्रत्यक्ष रूप से शिक्षकों के जीवन और अप्रत्यक्ष रूप से छात्रों एवं स्कूल के माहौल को सकारात्मक बना सकते हैं।

पेशेवर मनोवैज्ञानिक सलाह या काउंसलिंग के लिए स्कूलों में व्यवस्था होनी चाहिए और तनाव प्रबंधन को लेकर अक्सर कार्यशालाएं करवाई जानी चाहिए। ऐसे मंच होने चाहिए जहां शिक्षकों को खुल कर अपनी समस्याओं पर बोलने का अवसर मिले।

हमें यह जान कर ताज्जुब होगा कि कनाडा जैसे देश में शिक्षक को यदि बहुत अधिक तनाव हो जाए, तो उसे एक साल तक की छुट्टी मिल सकती है। इसे तनाव अवकाश या स्ट्रेस लीव कहते हैं और इस दौरान उसे अस्सी फीसदी तनख्वाह तक मिलती है।

अक्सर देखा जाता है कि जिम्मेदार शिक्षकों पर काम का बोझ बढ़ा दिया जाता है। यह सही नहीं। काम के बोझ का सुनियोजित, न्यायपूर्ण बंटवारा होना चाहिए। जो शिक्षक ज्यादा जिम्मेदार नहीं, उन्हें प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे वह अपने काम को समय पर सही ढंग से कर सकें। यह नहीं कि उनका काम भी किसी जिम्मेदार सहकर्मी को सौंप दिया जाए।

ऐसी भी व्यवस्था हो कि काम के बाद शिक्षक पूरी तरह से अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन पर ध्यान दे सके। काम और जीवन के बीच संतुलन बहुत जरूरी है और इसे अनदेखा करने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, व्यक्ति को भी और संगठन को भी।

यदि शिक्षकों पर प्रशासनिक काम का बोझ लाद दिया जाता है, तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे इस काम के लिए इच्छुक हैं। ऐसी हालत में उन्हें इसके आर्थिक फायदे मिलें, या फिर अतिरिक्त काम के बदले में अवकाश दिया जाए।   

पेशेवर विकास के लिए शिक्षकों के पास पर्याप्त अवसर होने चाहिए। इससे उनका हुनर बढे़गा और वे शिक्षण के क्षेत्र में हो रहे नए प्रयोगों से परिचित होंगे। शिक्षकों के ऐसे समूह होने चाहिए जिसमें वे एक दूसरे की सहायता कर सकें। इससे उनका दबाव काफी हद तक घटेगा। आपसी सहयोग की संस्कृति स्कूल को हर क्षेत्र में मदद करेगी। आपसी गलतफहमियां भी दूर होंगी और अनावश्यक तनाव भी घटेगा।

स्कूल प्रबंधन को समय-समय पर शिक्षकों के अच्छे काम की तारीफ करनी चाहिए। उनका हौसला बढ़ाना चाहिए। यही काम उनके साथ भी किया जाना चाहिए जो स्कूल से जुड़े तो हैं पर वहां पढने-पढ़ाने का काम नहीं करते। सच्ची और ईमानदार तारीफ के दो शब्द भी शिक्षक के उत्साह को बहुत अधिक बढ़ा सकते हैं।

स्कूल की बुनियादी सुविधाओं पर भी ध्यान देना जरूरी है। शहरों में कई स्कूल बहुमंजिला होते हैं। ऐसे में शिक्षक को बार-बार ऊपर नीचे जाना पड़ सकता है। टॉयलेट की सुविधा हर मंजिल पर हो, यह जरूरी है। अधिक उम्र के शिक्षकों को ज्यादा कक्षाएं निचली मंजिल पर ही मिलें, टाइम-टेबल बनाने वाले को इसका ख्याल रखना चाहिए।  

शिक्षक सुखी हो तो पढ़ाई का स्तर बहुत अधिक सुधर सकता है। यदि शिक्षक का अधिक समय तनाव, आपसी मतभेदों और इधर-उधर की बातों में व्यर्थ होता है, तो इसका सबसे अधिक असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ेगा। एक सुखी, हंसमुख शिक्षक अपने विषय में भी पारंगत होता है और बच्चे उसके विषय को पसंद भी करने लगते हैं।

बच्चे विषय को शिक्षक के व्यक्तित्व के साथ जोड़ कर देखते हैं। शिक्षक सरल और सहज, तो विषय भी सरल और सहज। शिक्षक जटिल तो विषय बहुत ही कठिन। बच्चों के मन में यही समीकरण बैठा रहता है।

सकारात्मक स्कूली संस्कृति छात्र और शिक्षक दोनों के लिए कितनी लाभकारी होगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। शिक्षक की बेहिसाब थकान को करीब से देखने की जरूरत है ताकि समय रहते समाज इसे ख़त्म करने के उपाय कर सके। 

शिक्षकों के लिए जरूरी है उनके रोज़मर्रा के जीवन में ऐसा समय भी हो जब उन्हें स्कूल, छात्रों और काम के बारे में बिलकुल भी सोचना न पड़े। यह जिम्मेदारी खुद उनकी है। ऐसा समय वे खुद की और परिवार की देखभाल पर बिताएं। परिवार के सदस्यों के बीच स्वस्थ संबंध काम के तनाव को भी घटाते हैं। घरों में त्योहार, जन्मदिन वगैरह यथावत मनाए जाने चाहिए। ऐसा न हो कि इन उत्सवों पर काम के तनाव का असर पड़े।

बर्नआउट होता जरूर है, पर इसे रोका जा सकता है। सही साथी-संगियों और बेहतर माहौल तैयार करके इससे बचा भी जा सकता है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि उनकी नौकरी में ऐसा बहुत कुछ है जो सकारात्मक है। उनके काम से कई बच्चों का जीवन प्रभावित होता है। उनकी तनख्वाह से उनका परिवार चलाता है और स्कूल में उनके कई अच्छे मित्र हैं जिनकी वजह से उनके जीवन में खुशी भी है।

इन सभी बातों को लेकर आभारी होना भी जरूरी है। आभार का भाव जीवन और जीविका दोनों को ही कम बोझिल और अधिक सुन्दर बना सकता है।

(चैतन्य नागर स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।)

चैतन्य नागर
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