उत्तर प्रदेश में विपक्ष की हार को कैसे देखें

बिहार से खबर आ रही है कि विकासशील इंसाफ पार्टी के (वीआईपी) अध्यक्ष और सरकार में मंत्री मुकेश साहनी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सिफारिश पर राज्यपाल ने मंत्री पद से हटा दिया है। इस पार्टी (वीआईपी) के तीनों विधायक भाजपा में पहले ही शामिल हो चुके हैं।

अब आते हैं पड़ोसी राज्य और देश में सबसे अधिक सांसद लोकसभा में भेजने वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश में। लखनऊ की गद्दी पर कई दशकों बाद सत्ता विरोधी लहर को धता बताते हुए एक बार फिर से भाजपा की ताजपोशी का जिस प्रकार से भव्य आयोजन किया गया, वह अपने आप में अभूतपूर्व बताया जा रहा है।

भाजपा ने इस चुनावी जीत से न सिर्फ मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) के मनोबल को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है, बल्कि इसके पीछे पिछले कुछ महीनों से बेहद उत्साह से लबरेज प्रदेश और देश के बुद्धिजीवियों, सामाजिक न्याय के झंडाबरदारों सहित अन्य विपक्षी पार्टियों और संगठनों की सांस ही मानो रोककर रख दी है।

इस जीत की व्याख्या करते हुए जहाँ कुछ विशेषज्ञ इसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के गहनतम रूप में देख रहे हैं, और यूपी की इस जीत के साथ भारत में फासीवाद की दस्तक का बढ़ा हुआ चरण बता रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसे यूपी के लोगों की बेरोजगारी, अशिक्षा, महंगाई, पिछड़ेपन और अल्पसंख्यकों, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार के बावजूद धर्म में अंधे होने पर यूपी के मतदाताओं को उनके हाल पर छोड़ देने की सलाह दे रहे हैं।

वहीं एक बड़े वर्ग ने इसे भाजपा के 5 किलो राशन वितरण, शौचालय, मनरेगा में ग्रामीण स्तर पर काम और इन सबका हिसाब-किताब रख पिछड़ों और दलितों के बीच में एक नए वर्ग को खड़ा करने को श्रेय दिया है। जबकि एक चर्चा यह भी है कि बसपा सुप्रीमो ने जानबूझकर इस बार पूरे दम-खम के साथ चुनाव ही नहीं लड़ा, बल्कि सपा को हारने के लिए भाजपा के साथ रणनीतिक संश्रय भी स्थापित किया। चुनाव से पहले ही बसपा के कुछ नेताओं के वायरल वीडियो में लेन-देन की चर्चा देखने को मिली थी।

लेकिन असल में क्या ये सब बातें अपनेआप में पूरी तस्वीर साफ़ कर पाती हैं, या उल्टा दिग्भ्रमित करने और संघर्ष की शक्तियों को निराश हताश करने वाली हैं? यह सही है कि धन-बल, बाहुबल, सांगठनिक शक्ति, प्रशासनिक घेरेबंदी, उत्तर प्रदेश की सत्ता पर उच्च जातीय पकड़ सहित बूथ मैनेजमेंट इन सभी चीजों में भाजपा सभी पार्टियों से मीलों आगे है, लेकिन यह भी सच है कि चुनाव से चंद दिनों पहले ही अखिलेश यादव के चुनावी समर में कूदने के बाद जिस प्रकार का जन-समर्थन और सैलाब उमड़ा उसने इन सभी चीजों और अयोध्या में मन्दिर निर्माण या कशी विश्वनाथ कॉरिडोर की हवा को काफी हद तक हवा-हवाई बना दिया था, और भाजपा के केंद्रीय नेताओं तक के चेहरों पर हवा-हवाइयां उड़ने लगी थीं।

रणनीतिक तौर पर गृहमंत्री अमित शाह को खुलकर कहना पड़ा कि योगी ही यूपी में भाजपा का मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे, और 2024 में भाजपा को यदि केंद्र में देखना है तो 2022 में योगी को ही यूपी में बागडोर सौंपनी होगी। यह एक संकेत था उन लोगों के लिए जो, योगी से बेतरह नाराज थे, लेकिन मोदी समर्थक थे। वहीं योगी के लिए साफ-साफ़ हिन्दू-मुस्लिम कार्ड खेलने की छूट थी। तमाम केंद्रीय मंत्रियों के लिए जिलावार सूची थी, और वे बूथ लेवल तक प्रबंधन और पंडित वर्ग को मनाने में जुटे हुए थे। लेकिन इसमें तुरुप का पत्ता खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में था। उन्होंने प्रयागराज में प्रदेश की महिलाओं का जुटान किया, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभार्थी समूहों के सदस्यों और अगुआ महिलाओं को आमंत्रित किया गया था। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार के लाभार्थी वर्गों को रैलियों में बुलाने से लेकर प्रदेश भर में उनकी लिस्ट पर काम करने का काम किया गया।

जहाँ एक ओर अखिलेश यादव ओबीसी नेताओं के भाजपा से खूंटा तोड़कर उनके साथ शामिल होने से फूलकर कुप्पा हो रहे थे, और अपने पीछे आरक्षण और नौकरियों की आस वाले वर्ग को देखकर पूरी तरह आश्वस्त हो रहे थे कि पिछड़े समाज का एक बड़ा वर्ग उनके पास आ गया है, मुस्लिम और यादव तो इस बार टूटकर झोली भरने वाला ही है, वहीं वे इस बात को पूरी तरह से भूल गए कि इन्हीं पिछड़े और दलित वर्ग के बीच में बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो पिछले कुछ वर्षों में नोटबंदी के बाद निम्न मध्य वर्ग से गरीब और गरीब से अति निर्धन की श्रेणी में तब्दील हो चुका है। प्रदेश में ही नहीं देश में एक ऐसा विशाल वर्ग तैयार हो गया है, जिसे अब दिहाड़ी रोजगार की भी आस नहीं रही। उसने कोरोना काल में अपने आसपास अपने से बेहतर आर्थिक स्थिति वालों की भी ऐसी स्थिति देखी है कि उसके लिए किसी भी प्रकार के अच्छे दिनों की बात पूरी तरह से बेमानी हो चुकी है।

ऐसे वर्ग के लिए उनके पास कोई संदेश नहीं था। 5 किलो अनाज की गारंटी एक ऐसी कुंजी बन गई थी, जिसे तमाम विज्ञापनों के जरिये देश के अत्यंत गरीबों को बताया गया कि इसे सिर्फ और सिर्फ मोदी जी के कारण ही संभव बनाया जा सका है। कोरोना में लाखों लोगों की असमय मृत्यु और गंगा में बहा दी गई लाशों का हिसाब पूरा हुए एक साल भी नहीं गुजरा था, लेकिन उस शून्य को भी भाजपा आरएसएस की कुशल कार्यनीति ने अपने लिए हमले की बजाय अवसर में तब्दील कर लिया। उन्होंने कहीं न कहीं इन तबकों के बीच में इस बात को घर कराने में सफलता प्राप्त की कि भाजपा और मोदी ने उस आपदा को जिसने दुनियाभर को अपनी गिरफ्त में ले रखा था, उसमें भी उनकी जान माल की रक्षा में अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। सबके लिए टीका मुफ्त लगवाने की व्यवस्था की। सबको जीवित रखने के लिए अन्न के भण्डार खोल दिए। जिसे नहीं मिला उसे आगे मिलेगा। जिसे शौचालय, मकान नहीं मिलेगा, यदि फिर से अवसर मिला तो यह काम वे ही करा सकते हैं।

इसके साथ ही कुछ महीनों के लिए एक लीटर तेल की शीशी, नमक, एक किलो चना दाल और उससे भी उपर चुनाव तक डीजल-पेट्रोल घरेलू गैस के दामों की बढोत्तरी पर पूर्ण तालाबंदी ने इन मुद्दों को आम लोगों की नजरों में ओझल करने का शानदार काम किया।

जीतकर भी यह एक भाजपा के लिए एक फ्रैक्चर्ड जनादेश है। यूपी के भीतर मुखर शक्तियाँ उससे नाराज हैं। शिक्षित युवाओं का बहुसंख्यक तबका उसके विरुद्ध है। इसमें सिर्फ पिछड़े और दलित तबके के युवा ही नहीं हैं, बल्कि सवर्णों का भी एक हिस्सा साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। इस बार धर्म का छौंका उस तरह से नहीं लग सका, जिस प्रकार की कल्पना की गई थी। इस सबके बावजूद भाजपा ने जीत हासिल की है। दलित समुदाय एक गहरे ऊहापोह की स्थिति में है। अखिलेश यादव को इस बार समर्थन देने में उनके स्पष्ट और मुखर नेतृत्त्व की कमी भी उत्तरप्रदेश ने साफ़-साफ़ महसूस की है।

कुछ लोग इसे कांग्रेस के लिए भयानक रूप से खत्म होने की कगार पर देखते हैं। बहुजन समाज पार्टी के बारे में भी यही बात कही जा रही है। लेकिन सपा के लिए भी यह उतना ही सच है। राजनीति में सिर्फ अंकगणित से ही हिसाब किताब नहीं सधता। इन तीनों दलों में देखना होगा कि क्वालिटी के लिहाज से किस दल के पास उर्जावान शक्ति है? अगले दो सालों में वो कौन सी राजनीतिक शक्ति होगी, जो न सिर्फ युवाओं, बेरोजगारों के मुद्दों को मुखरता से उठाएगी, बल्कि अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर भी राज्य सरकार के साथ आँख से आँख मिलाकर बात करेगी। दलितों के मुद्दों पर चैन से नहीं बैठेगी। और सबसे बड़ी बात, शहरी और ग्रामीण सर्वहारा के विशाल समूह को 5 किलो अनाज के लिए उसे सरकार के सामने भिखारी के बजाय उसे यह इतना सामर्थ्यवान बनाने में सक्षम बना सकेगी कि वह इसे भीख नहीं बल्कि अपना हक समझे और साथ में यह भी कह सके कि हमें 5 किलो अनाज के बजाय रोजगार मिले, ताकि हम एक बार फिर से सम्मान के साथ जी सकें।

इस सबके लिए सिर्फ ट्विटर पर बयानबाजी नहीं बल्कि सांगठनिक ढाँचे की जरूरत है, जो आंतरिक रूप से चलायमान हो, गतिशील हो। लोकतांत्रिक स्वरुप लिए हुए हो, ग्रामीण स्तर से लेकर तहसील स्तर तक उसके पास जन मुद्दों पर पहल करने और प्रशासन को जवाब तलब करने के विश्वास से लबरेज हो। बूथ स्तर पर चुनावी प्रबंधन और जन भागीदारी हो। शहरों में युवाओं, वकीलों, अध्यापकों, बुद्धिजीवियों और अल्पसंख्यक तबके के लोगों का नागरिक समूह हो और प्रदेश स्तर पर नेतृत्व हो जो पुराने और नए राजनीतिक, सोशल मीडिया नेटवर्किंग के कौशल में निपुण हो।

चुनाव जीतना आज एक सामरिक रणनीति है। यह 24×7 मानसिक युद्ध है। इसमें एक-एक पहलू पर आपको हर पल निगाह रखनी होगी, और आखिरी पल तक शतरंज की आगे की चार चालों को सोचकर ही आगे बढ़ना होगा, वरना जगह-जगह लैंड माइंस बिछा रखी गई हैं। इनके बीच में जनता को कैसे एक भौतिक शक्ति के रूप में तब्दील किया जाए, यह एक बड़ी चुनौती है जो 2024 की बिसात को अभी भी खुला छोड़े हुए है। 

(रविंद्र पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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