पुणे में शिक्षक की गिरफ्तारी: कक्षा में भय और निगरानी के माहौल में कोई कैसे पढ़ाएगा?

‘सिम्बायोसिस कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स’ (एससीएसी) के एक शिक्षक को कक्षा में हिंदू देवताओं के बारे में कथित तौर पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में गुरुवार दोपहर को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके एक दिन बाद उन्हें संस्थान द्वारा निलंबित कर दिया गया।

तीन दशकों से अधिक समय तक मैंने अपने शिक्षण-कार्य का लुत्फ उठाया, उसका मुख्य कारण यह था की हमारी कक्षाएं जीवंत संवाद की जगह हुआ करती थीं – एक ऐसी जगह जो सूक्ष्म विमर्शों, चीजों को देखने के विविध आयामों, सुनने की कला, या अपने मानसिक व बौद्धिक क्षितिज के विस्तार की इच्छा से भरीपूरी होती थीं।

मेरे छात्र अक्सर मुझसे असहमत होते थे और अपने-अपने तरीके से मेरी दार्शनिक अवस्थिति की व्याख्या करते थे। उदाहरण के लिए, कुछ मार्क्सवादी छात्र कहते कि मैं गांधीवादी हूं; और कुछ अंबेडकरवादी छात्र मुझे मेरे “जातिगत विशेषाधिकार” की याद दिलाते, और वे सोचते कि इसीलिए मैं भारतीय राजनीति और समाज में जाति के सवाल की गंभीरता को नहीं समझ सकता। इतना ही नहीं, मेरे द्वारा कक्षा में थियोडोर एडोर्नो, हर्बर्ट मार्क्युज़ और एरिच फ्रॉम के संदर्भ उद्धृत करने के कारण मुझे “नव वामपंथ” विचारधारा के प्रति झुकाव रखने वाले व्यक्ति के रूप में भी देखा जाता।

हालांकि, इन मतभेदों या असहमतियों के बावजूद, कोई दुश्मनी नहीं थी। कक्षा के बाद, हम विश्वविद्यालय कैंटीन में एक साथ बैठा करते और कॉफी का आनंद लेते। कोई पुलिस शिकायत नहीं, कोई एफआईआर नहीं, कोई वायरल वीडियो नहीं। दूसरे शब्दों में, शिक्षक-छात्र संबंध में कुछ पवित्रता थी; परस्पर विश्वास था; और कक्षाएं ऐसी जगह नहीं थीं जो निगरानी के दायरे में हों।

संभवतः मैं भाग्यशाली था। मैं सही समय पर सेवानिवृत्त हो गया। अब हम एक बिल्कुल अलग समय में रह रहे हैं। आज एक छात्र कक्षा में होने वाले विमर्श का वीडियो शूट कर सकता है और इसे “वायरल” कर सकता है। और ऐसे युग में जब धार्मिक या “राष्ट्रवादी” भावनाएं इतनी तेज़ी से आहत होने लगी हैं, एक शिक्षक के कदाचित जटिल मत को अपराध के रूप में देखा जा सकता है, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा सकती है, और उसे गिरफ्तार किया जा सकता है।

सोचिए पुणे में क्या हुआ है। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप में पुलिस ने ‘सिम्बायोसिस कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स’ के एक शिक्षक को गिरफ्तार कर लिया है, और उनके कॉलेज ने उन्हें अपनी एक कक्षा में हिंदू देवताओं के बारे में कथित “आपत्तिजनक” टिप्पणी करने के लिए निलंबित कर दिया है। अशोक सोपान एक हिंदी शिक्षक हैं और वे बारहवीं कक्षा के छात्रों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे।

एक छात्र द्वारा शूट किया गया कथित वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। इसमें वे हिंदू देवताओं और इस्लाम और ईसाई धर्म के बीच समानताओं का वर्णन कर रहे हैं। वह यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि “ईश्वर एक है।” और एक उग्र हिंदू संगठन के एक सदस्य ने उस शिक्षक के खिलाफ फटाफट शिकायत दर्ज करा दी। पुणे पुलिस ने उन पर आईपीसी की धारा 295-ए – “धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से जानबूझ कर और दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से किए गए कृत्य” के तहत आरोप लगाए।

एक शिक्षक के तौर पर मैं बहुत क्षुब्ध हूं। ऐसी घटना से पता चलता है कि हम प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों, संवादों, वार्तालापों और मतभेदों के माध्यम से नयी चीजें सीखने और पुरानी धारणाओं से मुक्त होने की भावना को कैसे नष्ट कर रहे हैं। हम उस चीज़ को नष्ट कर रहे हैं जो वास्तव में एक कक्षा को कक्षा बनाती है। वह चीज है शिक्षक और छात्र के बीच आपसी विश्वास के कारण पैदा होने वाला असर। दरअसल हम छात्रत्व की भावना को नष्ट कर रहे हैं।

‘सिम्बायोसिस कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स’ के बारहवीं कक्षा के इन छात्रों के बारे में सोचें। वे नौजवान हैं, उन्होंने अभी दुनिया को देखना शुरू ही किया है। यह जिज्ञासु बने रहने, आंखें खुली रखने, महान साहित्य पढ़ने, जाति और धार्मिक पहचान के सीमित दायरे से परे देखने, अपने क्षितिज का विस्तार करने और जीवन, संस्कृति और समाज को देखने के भिन्न-भिन्न तरीके खोजने का समय है।

दूसरे शब्दों में, विद्यार्थी होने में कुछ सौंदर्य है। यह चिंतन-मनन करने, सवाल करने, कल्पना की उड़ान भरने और मतभेदों और विश्व दृष्टिकोण की बहुलता के साथ जीने की क्षमता है। हालांकि ऐसे समय में, जब जहरीले टेलीविजन चैनलों के चमकते समाचार एंकर हमारे शिक्षक बन जाते हैं, और सोशल मीडिया की तात्कालिकता आलोचनात्मक सोच से घृणा करने लगती है, तो छात्रत्व की भावना का जश्न मनाना आसान नहीं रह जाता। आज महान विचारों का स्थान उत्तेजना फैलाने वाले नेताओं की जोरदार बयानबाजी ने ले लिया है; और गंदी नारेबाजी ने कविता, दर्शन और सामाजिक विज्ञान को विस्थापित कर दिया है। आज हम अपने छात्रों को जानवरों के झुंड की मानसिकता वाली एक गैर-चिंतनशील भीड़ में बदल रहे हैं।

इसके अलावा, जब धार्मिक पहचान की आक्रामकता के साथ अति-राष्ट्रवाद की राजनीति हमारे स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश कर लेती है, तो सब कुछ बदल जाता है। ऐसे समय में, जब प्राचार्यों और कुलपतियों से यह अपेक्षा की जाने लगती है कि वे वर्तमान में प्रभावी “राष्ट्रवादी” विमर्श के संरक्षक की भूमिका निभाएं, तो शिक्षकों से भी यह उम्मीद की जाने लगती है कि वे एकायामी सोचने वाले और विनम्र जी-हजूरिए बन कर रह जाएं। इसका परिणाम होता है, आलोचनात्मक शिक्षा शास्त्र का खात्मा। इसके बाद तो चारों तरफ भय, संदेह और निगरानी का माहौल व्याप्त हो जाता है। कक्षाएं नष्ट कर दी गयी हैं। शिक्षक-छात्र संबंधों में मधुरता अब अतीत की बात बन चुकी है।

कल्पना कीजिए कि एक शिक्षक के रूप में आप अपने छात्रों से फ्रेडरिक नीत्शे की प्रसिद्ध घोषणा, कि “ईश्वर मर चुका है” का अर्थ समझने का आग्रह कर रहे हैं। कल्पना कीजिए कि आप अपने छात्रों को कबीर के इस पद पर विचार करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं: “मोको कहां ढूंढे रे बन्दे/ मैं तो तेरे पास में/ ना तीरथ मे ना मूरत में/ ना एकान्त निवास में/ ना मंदिर में ना मस्जिद में/ ना काबे कैलास में/ ना मैं जप में ना मैं तप में/ ना मैं बरत उपास में/ ना मैं किरिया करम में रहता/ नहिं जोग सन्यास में।”

कल्पना कीजिए कि आप अपने छात्रों से 1947-48 में गांधी की प्रार्थना सभाओं के महत्व को समझने का आग्रह कर रहे हैं। कल्पना कीजिए कि आप “ईश्वर अल्लाह तेरे नाम” गा रहे हैं। कौन जानता है, आपके खिलाफ कब एफआईआर दर्ज करा दी जाए, और आपका नियोक्ता आपको निलंबित/निष्कासित करने से पहले एक बार भी न सोचे।

भय के नतीजे में बना वातावरण सीखने की संस्कृति को नष्ट कर रहा है। ऐसे क्षण आते हैं जब मुझे लगता है कि हमारी कक्षाओं में सार्थक सामाजिक विज्ञान/ मानविकी पढ़ाना अधिक कठिन हो जाएगा। यदि, एक शिक्षक के रूप में, आपको अपनी कक्षा में कोई भी शब्द बोलने से पहले अत्यधिक सतर्क रहना पड़े, यदि आपको आशंका है कि कोई छात्र आपका व्याख्यान रिकॉर्ड कर रहा है, या वीडियो बना रहा है, या प्रशासन लगातार आपकी हर गतिविधि पर नजर रख रहा है, तो ऐसे में आप मार्क्स, गांधी, अंबेडकर, टैगोर, इकबाल, मंटो और प्रेमचंद को स्वतंत्र रूप से, सहज और रचनात्मक तरीके से कैसे पढ़ा सकते हैं? और जब कक्षाएं मर जाती हैं, तो लोकतंत्र मर जाता है।

क्या व्यापक शिक्षण समुदाय को यह एहसास होगा कि अशोक सोपान के साथ जो हुआ वह किसी अन्य कॉलेज/विश्वविद्यालय में भी किसी के साथ भी हो सकता है? क्या वे खड़े होंगे, अपनी आवाज़ उठाएंगे और इस सर्वव्यापी पतन की आलोचना करेंगे? या वे चुप रहेंगे और इसी को अपने लिए “सुरक्षित” समझेंगे?

(जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर प्रो. अविजित पाठक का लेख, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद: शैलेश)

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