अयोध्या मेगा आयोजन के निहितार्थ: एक तीर, निशाने अनेक

अयोध्या में विराट भव्यता के वातावरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गर्भगृह में रामलला की मोहक मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा और नए युग के आरंभ की गर्जना को राष्ट्रीय घटना के साथ साथ वैश्विक प्रतिघटना के रूप में निरंतर प्रस्तुत किया जा रहा है। मीडिया के अनुसार रोज लाखों भक्त और पर्यटक इस नगरी में पहुंच रहे हैं।

लेकिन पावन सरयू नदी की जल सतह को चीरते हुए कुछ बेचैन करने वाले सवाल और आशंकाएं भी उठ रहे हैं। इन सवालों व आशंकाओं से पलायन का अर्थ होगा भविष्य के आकार और प्रकार के प्रति उपेक्षा का भाव अपनाना। इस मेगा घटना के आशंकित परिणामों के प्रति अनासक्त भाव अपनाना। अतः मेगा आयोजन के प्रोजेक्ट के संबंध में गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।

बेशक, इस मेगा आयोजन ने तात्कालिक रूप से देश के बहुसंख्यक समुदाय के चमकीले, भड़कीले और व्यवस्था से नानाप्रकार से उपकृत वर्गों में एक नई ऊर्जा और वर्तमान सत्ता तंत्र के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव संचारित हुआ है। मंदिर के प्रांगण और सरयू तट पर कॉरपोरेट पूंजीपतियों, फिल्मी सितारों, सितारा खिलाड़ियों, रिटायर्ड जजों, नेताओं, कलाकारों, लेखकों और अन्य क्षेत्रों के हैसियतमंदों के बहुरंगी जमावड़े को बेतरतीब व अनायास ही तो नहीं कहा जा सकता।

हजारों आमंत्रित अतिथियों की लिस्ट को काफी सोच विचार के बाद बनाया गया होगा। आयोजन के विभिन्न पहलुओं पर योजनाबद्ध ढंग से विचार किया गया होगा। तात्कालिक और दूरगामी रणनीति के तहत इस मेगा आयोजन को अंतिम रूप दिया गया होगा। निसंदेह इस जमावड़े का चरित्र मूलतः व्यवस्थावादी और यथास्थितिवादी है। इस चरित्र के किरदार वर्तमान राजसत्ता की ’राजनीतिक आर्थिकी या पॉलिटिकल इकोनॉमी’ को सुरक्षित और सुदृढ़ रखना चाहते हैं।

जबकि, यह राजनीतिक आर्थिकी अपने मूल क्रिया व परिणाम में स्वभाव से विषमता जनक है। इसमें सामान्य जन के हाशियाकरण और सामर्थ्यवान के और सामर्थीकरण की ऊर्जा प्रवाहित होती रहती है। यह राज्य को संवेदनहीन बनाती है; ’वीर भोग्या वसुंधरा’ की संस्कृति समाज पर हावी होने लग जाती है। राष्ट्र और शासक इसी रंग में लीन हो जाते हैं।

इसके ज्वलंत उदाहरण हैं प्राचीन रोम के शासक जिसमें श्रेष्ठ वर्ण, नस्ल, रंग और वर्ग व श्रेणीवाद की अपसंस्कृति का विस्फोट और विस्तार होता है। शासक और शासन में अधिनायकवादी प्रवृत्तियां संचारित होने लगती हैं। ऐसी स्थिति में समाज के विशाल वर्ग के हाशियाकरण की रफ्तार तेज़ होने लगती है। आमजन अपने भविष्य के प्रति विभिन्न आशंकाओं से ग्रस्त होने लगता है। राज्य और उसके बीच संवादहीनता बढ़ने लगती है। वह राज्य की कृपादृष्टि का मोहताज़ बन जाता है।

शासक भी यही चाहता है कि उसके शासन में जन केवल ’प्रजा’ बने रहें, नागरिक बन कर उससे सवाल न करें, उसकी कारगुजारियों पर उंगली न उठाएं। आज 81 करोड़ भारतीय राज्य के रहमोकरम पर जी रहे हैं। अतः यह जरूरी है कि शासक जनता को भावनात्मक विषयों में लपेटे रखे। जनता में विवेकशीलता और तार्किकता पैदा न होने दे। इसके लिए जनता को ईश्वर, अवतार, धर्म मजहब, भक्ति, समर्पण, प्रश्नविहीनता, मिथकीय आख्यान, अंधविश्वास, व्यक्तिपूजा आदि के बैरीकेड से घेरा जाता है।

अयोध्या की ’मेगा इवेंट’ से गरीबी, भूख, अशिक्षा, बेरोजगारी, मृत्युदर, कुपोषण, बीमारी, शक्तिहीनता, विषैली सियासत, जनप्रतिनिधियों की पतनशीलता जैसे सवालों को बर्फ में लगाने की कोशिश हुई है। अयोध्या मेगा आयोजन में ’भावनात्मक पुलवामा’ की भूमिका निभाने की प्रचुर  संभावना निहित है। इस आशंका की अनदेखी करना मुश्किल है।

लोकसभा चुनावों से केवल तीन महीने पहले ऐसा बहुआयामी आयोजन अकारण नहीं हो सकता। जहां यह विराट धार्मिक आयोजन है, वहीं इसमें पॉलिटिकल प्रोजेक्ट की भी गंध आती है। प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन चुनावों के बाद भी हो सकता था। अभी मंदिर का संपूर्ण निर्माण नहीं हुआ है। सनातन धर्म के शिखर नेतृत्व चारों शंकराचार्य ने प्राणप्रतिष्ठा से असहमति जताई थी।

लेकिन सत्ताधीशों ने उनके शास्त्र सम्मत मत की अनदेखी की और राजनीतिक तात्कालिकताओं को ध्यान में रख कर यह विराट आयोजन कर डाला। इसमें अस्वाभाविकता के तत्व निहित प्रतीत होते हैं।अभी मथुरा + काशी प्रकरण पंक्तिबद्ध हैं।

देश में ’एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के माहौल को गरमाने की कोशिशें चल रही हैं। एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब ’एक राष्ट्र, एक दल, एक चुनाव’ का नारा लगाया जाय। इस नारे को परवान चढ़ाने के लिए एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से शक्ति मिल सकती है। ढिंढोरा पीटा जा रहा कि अयोध्या आयोजन से एक नए काल और पुनर्जागरण का आरंभ होगा। एक हजार साल की दासता से हिंदू आजाद होगा। वह नए युग और नई ऊर्जा के साथ अंगड़ाई लेगा। संभव है ऐसा हो।

लेकिन ऐसा आख्यान एक रेखकीय है और इससे अधिनायकवाद की गंध उठती है और बहुलतावाद नष्ट होता है। प्रकारांतर से सांस्कृतिक वर्चस्ववाद और राष्ट्रवाद राजनीतिक अधिनायकवाद या तानाशाही में तब्दील हो जाता है। चूंकि आम चुनाव दूर नहीं है और चुनाव तक अयोध्या आयोजन को केंद्र में रख कर नित नये आख्यान देश में गुंजित किये जाएंगे। 

तब दिमाग में यह शंका पैदा होती है कि क्या उस दिशा में भारत को घसीटा जा रहा है? क्या ऐसे आयोजनों और नारों के माध्यम से इसकी जमीन तैयार की जा रही है? सवाल तो ऐसे भी आयोजनों की ज़मीन को चीर कर उठेंगे: भविष्य में एक दल-एक नेता की निर्वाचित तानाशाही को रोका कैसे जाये?

पाठकों को याद दिला दिया जाए कि सत्तारूढ़ भाजपा ने कभी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा उछाला था। लेकिन पिछले वर्ष संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों सदनों के 140 से अधिक प्रतिपक्ष के सांसदों को निलंबित किया गया था। क्या इस कार्रवाई का यह अर्थ लिया जाए कि अब मोदी+शाह ब्रांड भाजपा प्रतिपक्ष मुक्त लोकतंत्र चाहती है? 

जब भाजपा के शासन में सब कुछ एकमय-राममय  हो जायेगा तब  सांस्कृतिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ज़मीन पर प्रतिपक्ष के लिए स्पेस ही कहां शेष रह जाएगा। अतः यह ज़रूरी हो गया है कि उत्तर अयोध्या आयोजन के परिप्रेक्ष्य में प्रतिपक्ष का इंडिया गठबंधन नए ढंग से सोचे; घटक लचीला रुख अपनाएं; कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, केजरीवाल जैसे नेता तात्कालिक राजनैतिक यथार्थवादिता का परिचय दें; व्यवहारिक सीट-शेयरिंग करें; साझा न्यूनतम कार्यक्रम की घोषणा करें। 

याद रखें आगामी चुनाव भारतीय लोकतंत्र और संविधान सम्मत शासन के लिए निर्णायक रहेंगे। भाजपा का टारगेट 400 सीटों का है। यदि उसे 350 तक सीटें मिल जाती हैं तो समझिये ‘भारत का विचार (आइडिया ऑफ़ इंडिया)’ की नियति तय है। देर-सबेर इसके अस्तित्व का पटाक्षेप कर दिया जाएगा। 

मोदी नेतृत्व ने 303 सीटों की ताक़त पर अनेक चमत्कारिक उपलब्धियों से अपनी झोली को भर लिया है। संवैधानिक संस्थाओं की प्रभावशीलता को गहन लगता जा रहा है। उदार पूंजीवादी लोकतंत्र की मर्यादाओं का भी उल्लंघन हो रहा है। समाजवादी लोकतंत्र का नाम तो विलुप्त हो चुका है। अब तो कॉर्पोरेटी पूंजीवादी लोकतंत्र का ताण्डव दिखाई दे रहा है।

इस परिदृश्य में इंडिया घटक के नेताओं से काफी कुछ अपेक्षित है। जहां प्रमुख घटक कांग्रेस से राजनैतिक परिपक्वता अपेक्षित है, वहीं क्षेत्रीय दलों (तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी दल, जनता दल ( यूनाइटेड), राष्ट्रवादी कांग्रेस, डीएमके आदि) से भी गठबंधन में यथार्थवादी रवैये को अपनाने की   अपेक्षा की जाती है।

क्षेत्रीय दलों को याद रखना चाहिए कि उत्तर भारत के चुनाव में उनका अस्तित्व भी दांव पर लगा हुआ है। आगामी चुनाव सामान्य नहीं होंगे क्योंकि असाधारण वैचारिक संघर्ष के माहौल में चुनाव होने जा रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के इस विचार से लेखक की सहमति है कि मौज़ूदा समय वैचारिक संघर्ष का काल है।

इसलिए हिंदुत्व व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्लावन को रोकने में विशेषतः उत्तर भारत के क्षेत्रीय दल निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। वे संकीर्णताओं से ऊपर उठ कर लोकतंत्र+संविधान रक्षा के व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोच-विचार करें। गठबंधन की सकारात्मक भूमिका को अंजाम दें। 

भारतीय मीडिया ने अयोध्या मेगा शो को वैश्विक पटल पर प्रदर्शित किया है। 22 जनवरी के आयोजन को चैनलों पर एक साथ न्यूयॉर्क, शिकागो, पेरिस, लंदन सहित विभिन्न देशों में राममूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा के समर्थन में जुटे राम भक्तों के आयोजनों को घंटों दिखाया गया था।

अयोध्या आयोजन के माध्यम से राजनीतिक सत्ता पर धर्म सत्ता की स्थापना का सन्देश दिया गया। यह दिखाया गया कि ईश्वर और धर्म ही मानवता को संकटों से बचा सकते हैं। भगवान् राम के माध्यम से शिथिल पड़ी धर्म-सत्ता को वैश्विक स्तर पर  प्राणप्रतिष्ठित किया गया।

इसके ठोस कारण हैं- 1. भूमंडलीकरण प्रोजेक्ट की असफलताएं, 2. समाज में गहराती विषमताएं, 3.  राष्ट्रों के बीच संघर्ष ,4. सभ्यताओं के टकराव, 5. कॉर्पोरेट पूंजी के आक्रामक दंश और परंपरागत राज्य का बढ़ता निष्प्रभावीकरण, 6. क्षेत्रीय असंतुलन और जन प्रतिरोध, 7. वैश्विक प्रभु राष्ट्रों की पूंजी, राष्ट्रीय पूंजी और स्थानीय पूंजी के मध्य बढ़ती टकराहटें, 8. चरम उपभोक्तावाद बनाम चरम जन हाशियाकरण+वंचनीकरण आदि।

ऐसे कारण जनता में चेतना और आक्रोश को समानांतर जाग्रत करते हैं। इससे राजसत्ताओं के समक्ष उनके अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है। यथास्थिति बनाये रखने में अनेक परेशानियां रहती हैं। इतिहास बतलाता है कि औद्योगिक क्रांति और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में धर्म-आस्था की सत्ता कमज़ोर हुई है। इसके बरक़्स जन असंतोष बढ़ा है। इसका शमन सिर्फ राजसत्ता और पूंजी से नहीं किया जा सकता।

पिक्केटी जैसे अर्थशास्त्रियों के मत में आज़ पूंजी का चंद घरानों में एकत्रीकरण होता जा रहा है। इससे भविष्य में जन आक्रोश के विस्फोट होने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। कुछ समय पहले पड़ोसी देश श्रीलंका का जन आक्रोश जग ज़ाहिर है। उससे पहले पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों में प्रतिरोध की लहर आ चुकी है। भारत में ही देश के किसानों ने राजधानी दिल्ली को 385 दिनों तक चारों दिशाओं से घेरे रखा। अंततः सरकार को मज़बूर हो कर तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा।

अमेरिका समेत विकसित देशों में जीवन -निर्वाह महंगा होता जा रहा है। इसी वर्ष अमेरिका, ब्रिटेन, भारत जैसे देशों में आम चुनाव होंगे। सत्ताएं उलटी जा सकती हैं। भविष्य में कॉर्पोरेट पूंजी की सत्ता के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो सकता है। इसलिए जनता के दिल दिमागों में धार्मिक सत्ता को पुनर्जाग्रित कर सम्भावी जन आक्रोश को ‘डीप फ्रीजर’ के हवाले किया जाए। 

वास्तव में अब कॉर्पोरेट शासकों के लिए ‘धर्म+मज़हब+रिलीजन‘ एक मात्र तारण हार रह गया है। दूसरे शब्दों में यही एक मात्र ‘राम बाण’ है अस्तित्व सुरक्षा के लिए। इस वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी अयोध्या मेगा धार्मिक शो की सुदूर भूमिका को देखा जाना चाहिए।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

रामशरण जोशी

View Comments

  • A thought provoking article that unfolds challenges ahead.
    A must read.
    Thanks for the write up.

  • आपने बहुत सही तरह से स्थितियों काआकलन किय अहै. आज जो कुछ हमारे सामने हो रहा है उसके निहितार्थों को आपने बखूबी उजागर किया है. विपक्ष के लिए अपनी भूमिका पर गम्भीरता से विचार करने का यह कदाचित आखिरी समय है. या तो अभी, या कभी नहीं! ज़ाहिर है कि सत्तारूढ़ दल विपक्ष को नेस्तनाबूद कर देना चाहता है. अब देखने की बात यह है कि क्या विपक्ष भी ऐसा होने देगा? अभी जो संकेत मिल रहे हैं वे बहुत आश्वस्तिकारक नहीं हैं. सब अपने ईगो और स्वार्थों के लिए आपस में टकरा कर लहू लुहान हो रहे हैं और सत्तारूढ़ दल इस स्थिति का आनंद ले रहा है. इस जगाने वाले लेख के लिए आपको बधाई!

Published by
रामशरण जोशी