प्यू के सर्वे में सामने आयी भारतीय समाज की कूढ़मगजता

इलमों बस करीं ओ यार

इक्को अलफ तेरे दरकार

पढ़ पढ़ लिख लिख लावें ढ़ेर

ढ़ेर किताबा चार चुफेर

गिरदे चानण, विच्च हनेर

पुच्छो रहा ते खबर न सार..

(तुमने बहुत ज्यादा ही पढ़ाई कर ली है, तुम्हें एक ही कायदा सीखने की जरूरत है, तुम्हारे चारों ओर किताबों का मजमा लगा है इस लिए आस-पास तो रौशनी है लेकिन तुम्हारे अंदर अंधेरा है तुमसे कोई रास्ता पूछे तुम्हें तो उसका ही कुछ पता नहीं।)

बुल्लेशाह

प्राकृतिक आपदा या कोई सामाजिक मुसीबत किसी को क्या पूरा बदल देती है? क्या एक जातिवादी समाज कोरोना वायरस के हमले सीख गया कि वायरस जाति और धर्म नहीं देखता है? उसके लिए कोई बंटवारा नहीं है सिवाय इम्युनिटी के। क्या इस वायरस ने इंसानित सिखा दिया लोग एक दूसरे की मुसीबत में काम आने लगे? क्या ऐसा हुआ कि जत्थे के जत्थे लोग सेवादार बन गये? क्या ऐसा नहीं हुआ कि कईयों ने अपने लोगों की लाशें नहीं लीं। क्या ऐसा नहीं हुआ कि बुजुर्गों को उनकी बीमारी के दौरान अकेले छोड़ दिया गया क्या ऐसा नहीं हुआ कि घरेलू हिंसा की घटनाओं में इजाफा हो गया।

हुआ तो गृहकलह और स्त्रियों और बच्चों पर हिंसा में बढ़ोत्तरी हो गयी। ये हुआ कि कम्पनियां बंद होने लगीं। अनगिनत छोटे बड़े रोजगार बेपटरी हो गये। क्या ये सच नहीं है कि हिन्दूवाद की दुहाई देने वाली सरकार और उसके लोगों ने असंख्य लोगों को जलाने के लिए लकड़ी तक नहीं दी। क्या ये सच नहीं कि गंगा में हजारों लाशें तैरने लगीं। ये उन लोगों की लाशें थी जिनके पास कोई सहारा नहीं था जिनके अपनों की ऐसी भी हैसियत नहीं थी कि ठीक से अंतिम संस्कार कर सकें। प्रशासन ने लोगों को टायर तक डाल कर जलाया। गंगा के किनारे बसे गांव के बच्चों तक ने देखा कि कैसे इंसानों की लाश कुत्ते खाते हैं।

कोविड 19 में भारत को अलग से देखने की भी जरूरत है। बीमारी ने हमारे यहां की कई बीमारियों को सतह पर लाकर खड़ा कर दिया। गरीबी असुरक्षा के चलते लाखों लोग सड़कों पर थे। उसे सबने देखा। जो जितनी मदद कर सकता था उसने किया लेकिन राज्यों का रवैया अलग ही रहा। उन्हें जैसे मालूम ही न हो कि रातों रात कोई नियम बनाने से क्या होता है, जैसे उन्हें मालूम न हो नौकिरयां कितनी कम हैं और तनख्वाहें बंद हो चुकी हैं। लेकिन इन सबके साथ कुछ और भी घट रहा था। जो प्रेमी प्रेमिका अपना घर छोड़कर अलग किन्हीं शहरों में जाकर बस गये थे उन्हें मजबूरी में अपने गांव शहर लौटना पड़ा यहां पर उनका अलग ही काल स्वागत कर रहा था।

चौबीस साल के एम सुधाकर की नौकरी छूट गयी थी। मजबूरी में वो अपने परिवार के साथ अपने गांव मोपाप्पन थंगल,तमिलनाडु आ गये। यहां पर उनके ससुर ने अन्य लोगों के साथ मिल कर उनकी हत्या करवा दी। सुधाकर ने छह महीने पहले शादी की थी और विरोध के चलते घर छोड़कर चले गये थे। शायद ही उनका मामला आनर किलिंग का बने आखिर कौन रजिस्टर करायेगा। आखिर एफआईआर के लिए भी तो कोई चाहिए। जब अपने ही जान लेने पर उतारू हों और ऐसा कोई कानून न हो जिसमें ऑनर किलिंग करने वालों को सख्त सजा मिले तो क्या हो सकता है फिर मानसिकता का क्या करें।

अभी हाल में ही प्यू रिसर्च सेंटर ने ‘भारत में धर्म: सहिष्णुता और अलगाव’ शीर्षक से सर्वे पेश किया है। प्यू ने एक विस्तृत सैम्पल साइज लिया है। यह सर्वे तीस हजार लोगों के बीच किया गया जिसमें तकरीबन सत्रह अलग-अलग भाषा बोलने वाले शामिल हैं। सर्वे के विषय अन्तर्धार्मिक विवाहों पर विभिन्न धर्मों के लोगों का क्या रवैया शामिल है। जिसमें हर धर्म के लोगों ने एक स्वर से कहा कि अन्तर्धार्मिक विवाहों को रोकना सबसे जरूरी काम है। यह सर्वे अन्तरधार्मिक विवाहों पर बने कानूनों के आने के बाद किया गया। जब अनलाफुल कनवर्जन आफ रीलिजन 2020  ‘लव जेहाद’ जैसा कानून बन चुका है। यह इन्टरव्यू 26 राज्यों के लोग व तीन संघ संचालित प्रदेशों के लोगों के बीच हुआ। प्यू सर्वेक्षण में 69% लोगों ने खुद को एससी/एसटी/ओबीसी-एमबीसी के रूप में बताया। इनमें से कॉलेज ग्रेजुएट्स की संख्या 56% थी।

सर्वे में पूछा गया कि धर्म और राष्ट्रीयता का क्या संबंध है जिसमें हिन्दुओं में पाया गया कि वो अपनी धार्मिक पहचान और राष्ट्रीयता को तकरीबन एक ही समझते हैं। तकरीबन चौसठ प्रतिशत हिन्दुओं ने कहा कि सच्चा भारतीय होने के लिए सच्चा हिन्दू होना जरूरी है। अस्सी प्रतिशत मुसलमानों ने माना कि धर्म के बाहर शादी रूकनी चाहिए। वहीं पैसठ प्रतिशत हिन्दुओं ने धर्म के बाहर शादी रूकने पर हामी भरी। सर्वे में यह माना कि हिन्दू-मुसलमान में बहुत सारी समानतायें होने के बाद भी उन्हें नहीं लगता है कि हिन्दू-मुसलमान में समानता है। भारतीय लोग में बहुत सारे धार्मिक भेद हैं और वो अलग अलग रहते हैं। चूकि दोनों अलग अलग रहते हैं इसलिए साथ रह सकते हैं। अध्ययन के मुताबिक दोस्ती भी घर के बाहर तक ही सीमित रखना चाहते हैं। ।(https://www.bbc/news/world/asia-india-57547931)

हिन्दू और मुसलमान के बीच प्रेम और विवाह में पहले ही बहुत दिक्कतें थीं लेकिन अब नया कानून बनने से और भी दिक्कत हो गयी है। 30 जून 2021 के द हिन्दू अखबार में ऐसी ही दो घटनाओं का जिक्र था जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अन्तरधार्मिक जोड़ों को राहत देने से इंकार कर दिया था। नये कानून के मुताबिक धर्म परिवर्तन के साठ दिन पहले से किसी को डीएम के समक्ष आवेदन करना होता है जबकि कुल तीन ऐसे मामले आये जो उत्तरप्रदेश के नये कानून अनलाफुल कनवर्जन आफ रिलीजन 2020 जो कि अब एक एक्ट के विरुद्ध थे। मुजफ्फरनगर की एक मुस्लिम औरत ने 20 फरवरी 21 को हिन्दू आदमी से शादी की थी और आर्य समाज के संस्कार अधिकारी से सर्टिफिकेट लेकर आयी थी कि वो हिन्दू बनना चाहती है लेकिन सेक्शन 8 और 9 के मुताबिक यह अनाधिकृत है। इसी तरह एक बांदा जिले की एक मुस्लिम लड़की एक हिन्दू लड़के के साथ निकाह का सर्टिफिकेट लेकर आयी थी लड़के ने 5 मार्च 21 को धर्मपरिवर्तन करके निकाह किया था। वह काजी का सर्टिफिकेट लेकर आया था। इन दोनों मामलों में राहत नहीं मिली क्योंकि साठ दिन पहले डीएम के यहां डिक्लेरेशन सर्टिफिकेट नहीं जमा किया गया था।(30जून21)

अब हम अंदाजा लगायें कि जिस समाज में दो धर्मों के बीच पहले से इतना विद्वेष भरा हो वहां अगर साठ दिन पहले ही कोई घोषणा करता है तो उसके जान पर कितनी बन आ सकती है। जिस समाज में प्रेमी जोड़ों की खुलेआम हत्या हो जाती है उसका मनोविज्ञान समझने में ये सर्वे मददगार है। और एक नागरिक के नाते अफसोसजनक भी कि हमारी समझ कितनी धार्मिक और जातीय है हम नागरिक नहीं है। ऐसे में बुल्लेशाह का गीत भारतीय समाज की कुढ़मगजी और दिखावे के लिए किताबी समझ की अच्छी दरयाफ्त करता है।

(डॉ. सविता पाठक दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन करती हैं।)

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