बांग्लादेश का मुक्ति संघर्ष: इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर सफलता हासिल की थी

जब सोवियत संघ के महान नेता स्टालिन की मृत्यु हुई थी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि स्टालिन was strong both in peace and war इसी तरह की श्रद्धांजलि श्रीमती इंदिरा गांधी को दी जा सकती है। बांग्लादेश के संघर्ष के दौरान जिस सक्षमता से उन्होंने देश का नेतृत्व किया उसे विश्व के युद्धों के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा। यहां यह स्मरण करना प्रासंगिक होगा कि बांग्लादेश का युद्ध उन्होंने प्रारंभ नहीं किया था। वह हम पर लादा गया था।

पाकिस्तान में हुए चुनावों में मुजीबर रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग ने विजय हासिल की थी। इसके बावजूद पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं ने उन्हें सत्ता नहीं सौंपी। वोट द्वारा प्राप्त बहुमत को खो देने से पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष फैला। असंतोष को दबाने के लिए जबरदस्त ज्यादतियां की गईं। हत्याएं की गईं, महिलाओं की इज्जत लूटी गई। अत्याचार से परेशान होकर लाखों पूर्वी पाकिस्तानियों ने हमारे देश में शरण ली।

इतनी बड़ी संख्या में शरणार्थियों के आने से हमारे देश में तरह-तरह की समस्याएं पैदा हुईं। इसके कारण युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई। देश में पैदा स्थिति से दुनिया को अवगत कराने के लिए इंदिराजी ने बड़ा कूटनीतिक अभियान प्रारंभ किया। इस अभियान के अंतर्गत स्वयं उन्होंने भी अनेक देशों की यात्राएं कीं। वे इस सिलसिले में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मिलीं। मुलाकात असफल रही। इस पर तत्कालीन अमरीकी विदेश मंत्री हैनरी किसिंजर ने इंदिराजी से कहा “मैडम प्राईम मिनिस्टर क्या आपको नहीं लगता कि राष्ट्रपति के प्रति आप कुछ और धैर्य का प्रदर्शन कर सकतीं थीं”।

इंदिराजी का जवाब था “आपके बहुमूल्य सुझाव के लिए धन्यवाद मिस्टर सेक्रेटरी। भारत विकासशील देश अवश्य है किंतु हमारी रीढ़ की हड्डी सीधी और मजबूत है। अत्याचार का सामना करने के लिए हमारे पास इच्छाशक्ति और संसाधन हैं। हम साबित कर दिखाएंगे कि वे दिन गए जब कोई शक्ति हजारों मील दूर बैठकर किसी देश पर शासन कर सके।” मेरी राय में इस भाषा में दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के प्रतिनिधि से इंदिराजी ही बातचीत कर सकतीं थीं।

इंदिराजी ने इस नाजुक घड़ी में देश को एक रखा व प्रतिपक्ष के नेताओं का भरपूर सहयोग लिया। उस समय इंदिराजी ने देश के सबसे सम्मानीय गैर-राजनीतिक नेता जयप्रकाश नारायण को भारत के प्रतिनिधि के रूप में अनेक देशों में भेजा। पश्चिमी जर्मनी की उनकी यात्रा का विवरण अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिपरिषद में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने अभी हाल में जारी अपने लेख में दिया है। इंदिराजी ने जेपी को जर्मनी इसलिए भेजा क्योंकि उस समय वहां के चांसलर विल्ली ब्रांईट थे। ब्राइंट सुप्रसिद्ध सोशलिस्ट नेता थे और जयप्रकाशजी के अच्छे मित्र थे। यशवंत सिन्हा उस दौरान जर्मनी की राजधानी बॉन स्थित भारतीय दूतावास में फर्स्ट सेक्रेटरी (कर्मशियल) के पद पर पदस्थ थे।

जयप्रकाशजी ने विश्व के अनेक समाजवादी नेताओं से संपर्क किया। इसी तरह इंदिराजी ने अटलबिहारी वाजपेयी की सेवाओं का भी उपयोग किया। उन्होंने एक संदेश देकर वाजपेयीजी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के तत्कालीन सरसंघ चालक गुरू गोलवलकर के पास भेजा। उन्होंने देश में शांति बनाए रखने में आरएसएस की मदद मांगी। यशवंत सिन्हा अपने लेख में कहते हैं कि बांग्लादेश के घटनाक्रम ने यह सिद्ध किया कि कूटनीतिक, सैनिक और देश को एक रखने के मोर्चों पर इंदिराजी ने जो सफलता हासिल की वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएगी।

सिन्हा ने अपने लेख में कहा कि ऐसी महान सफलता का उत्सव मनाते समय इंदिराजी को याद न करना (वर्तमान केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की) घटिया और तुच्छ मनोवृत्ति के अलावा कुछ नहीं है। कम से कम प्रधानमंत्री से तो यह ऐसी अपेक्षा नहीं है।

बांग्लादेश के विश्व के मानचित्र पर आने ने यह सिद्ध किया कि धर्म आधारित देश ज्यादा दिन तक नहीं टिकते और न विकास कर पाते हैं। धर्म से ज्यादा भाषा देशों को एक रखती है। बांग्लादेश के निवासियों ने यह घोषित किया था कि बांग्ला हमारी भाषा है। हम पर उर्दू नहीं लादी जा सकती। बांग्लादेश ने एक और चौंकाने वाला काम किया। बांग्लादेश ने रवीन्द्र नाथ टैगोर लिखित ‘’सोनार बांग्ला’ को अपना राष्ट्रगान बनाया। यह आश्चर्य और गर्व की बात है कि दो देशों के राष्ट्रगानों के रचयिता एक ही कवि हैं।

इसके अलावा बांग्लादेश ने हमारे देश की तरह धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को अपना आधार बनाया। बीच में वहां साम्प्रदायिक शक्तियों ने सिर उठाया था परंतु वहां की जनता ने उन्हें शिकस्त दी। हम अपने देश में कैसे इस तरह की शक्तियों को शिकस्त दे सकते हैं यह हमेँ बांग्लादेश के बहादुर नागरिकों से सीखना चाहिए।

बांग्लादेश के निर्माण के पीछे इंदिराजी की दूरदर्शिता थी जिसके अंतर्गत उन्होंने सोवियत संघ से बीस वर्ष की मैत्री संधि की थी। संधि में यह प्रावधान किया गया था कि दोनों देशों में से किसी पर बाहरी आक्रमण होने की स्थिति में दोनों एक-दूसरे की हर संभव मदद करेंगे। संभवतः इसी प्रावधान के कारण अमरीका ने अपनी नौसेना के सातवें बेड़े को वापस बुला लिया था। वियतनाम के बाद यह अमरीका की दूसरी बड़ी शिकस्त थी।

(एलएस हरदेनिया पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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