उत्तराखंड भोजन माता प्रकरण: दलितों के अपने संवैधानिक अधिकार छोड़ने के चलते कायम है गांवों में ‘सामाजिक सौहार्द’

अखबारों में यह खबर आई है कि उत्तराखंड के सूखीढांग जाआईसी में भोजन माता प्रकरण का हल हो गया है। अभी तक की सूचना के अनुसार घटना क्रम इस प्रकार है पहले सवर्णों के बच्चों (ब्राह्मणवाद-मनुवाद के जहर से भरे बच्चे) ने दलित  भोजनमाता सुनीता के हाथ भोजन खाने के इंकार किया, फिर उनको हटाया गया और उसके बाद सवर्ण भोजन माता की नियुक्ति की गई। उनकी नियुक्त के बाद  दलित भोजन माता के अपमान और हटाए जाने के प्रतिरोध-प्रतिवाद में दलितों बच्चों द्वारा सवर्ण भोजनमता के हाथ भोजन खाने से इंकार कर दिया गया। अब खबर आ रही है, मामले का पटापेक्ष हो गया है।

कैसे हुआ, क्या तय हुआ, क्या फिर दलित भोजनमाता की निुयक्ति हो गई और ब्राह्मणवाद के जहर से भरे बच्चे उनके हाथ भोजन करेंगे या जैसा कि अक्सर होता है, मामले को हल करने के नाम पर दलितों को झुकना पड़ेगा और सवर्ण माता ही खाना बनाएंगी और उनके हाथ खाना सभी बच्चे खाएंगे? और दलित भोजन माता को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा या उन्हें कहीं और रोजी-रोटी दे दी आएगी। हम सभी को पता है कि यह मामला सिर्फ दलित भोजनमता सुनीता के रोजगार का नहीं था, यह मामला भारत के संविधान को लागू करने का था, यह मामला समता और न्याय का था। यह मामला सवर्णों और उनके बच्चों के दिलों में दलितों के प्रति भरे नफरत और घृणा से जुड़ा हुआ था। यह मनु की संहिता बनाम भारत के संविधान के बीच का था।

यदि इसका हल सवर्ण भोजन माता द्वारा भोजन बनाने और सभी बच्चों द्वारा उसके खाने के समझौते के आधार पर हुआ है, तो संविधान हार गया है और मनुवादी संविधान जीत गया है। अभी तक की सूचना के संकेत यही हैं।

मेरा भारत के गांवों (विशेषकर उत्तर भारत) और घरों (परिवारों) का अनुभव यह बताता है कि भारत के गांवों में सिर्फ और सिर्फ एक कारण से तथाकथित सामाजिक सौहार्द कायम है, क्योंकि सामाजिक जीवन में दलित और कुछ अति पिछड़ी जातियां अपने अधिकांश संवैधानिक अधिकारों (विशेषकर जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी के अधिकार) को छोड़े हुए हैं, उस पर दावेदारी नहीं करते। जब भी वे दावेदारी करते हैं, तथाकथित सारा सामाजिक सौहार्द बिगड़ जाता है और हिंसक हमला तक शुरू हो जाता है।

चाहे वह गांव के मंदिर में प्रवेश का मामला हो, गांव के पोखरे पर छठ पूजा का, पंचायत भवन में दलित प्रधान (महिला या पुरूष) के कुर्सी पर बैठने का, दलित दूल्हे के घोड़ा पर चढ़ने का, मूछ रखकर बुलेट चलाने का, सवर्णों को दलितों द्वारा नमस्कार न करने का, नल छू देने का, वाजिब मजूदरी मांगने का, ऐसे बहुत सारे मामले हैं। जिस दिन भारत के हर गांव के दलित घोषणा कर दें कि वे संविधान में मिले हुए अधिकारों को प्रतिदिन व्यवहार में उतारेंगे और सवर्णों का कोई भी विशेषाधिकार स्वीकार नहीं करें, उसी दिन हर गांव में गृह युद्ध शुरू हो जाएगा।

यदि भारत के गांवों में गृहयुद्ध सिर्फ और सिर्फ इस कारण से रुका हुआ है क्योंकि भारत के गांवों में दलित विभिन्न कारणों से अपने संवैधानिक अधिकारों को व्यवहार में रोज-ब-रोज और हर मामले में नहीं उतारते।

बदले रूप में लेकिन यही स्थिति भारत के बहुलांश परिवारों, विशेषकर निम्न मध्यम वर्गीय और मध्यवर्गीय परिवारों की हैं (विशेषकर तथाकथित अपरकॉस्ट और पिछड़े वर्ग के अगड़े हिस्से)। यदि इन पवित्र परिवारों में लड़कियां और महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों (विशेषक बराबरी और स्वतंत्रता के अधिकार) को व्यवहार में उतारने लगें, तो करीब हर परिवार में तीखा संघर्ष शुरू हो आएगा। बहुलांश परिवारों में लड़कियों-महिलाओं ने अपने अधिकांश संवैधानिक अधिकारों को छोड़ रखा है और मर्दों के पास अभी (मनु संहिता) के विशेषाधिकार बरकरार हैं। इसी के चलते घरों में शांति और सौहार्द है, ये सारा शांति और सौहार्द ( प्रेम) इसलिए कायम है क्योंकि जाने-अनजाने, सहर्ष या मजबूरी वश महिलाओं ने अपने संवैधानिक अधिकारों को छोड़ रखा है।

भारत के गांव और परिवार में गृहयुद्ध की स्थिति सिर्फ और सिर्फ इसलिए रुकी हुई है, क्योंकि दलित और महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों को स्थगित किए हुए हैं, कारण बहुत सारे हैं। सच यह कि भारत के सवर्ण और मर्द अपने मनुवादी विशेषाधिकार को सहर्ष छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, मजबूरी वश ही छोड़ते हैं।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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