संक्रमण में अमेरिका से बहुत पीछे नहीं चल रहा है भारत!

3 अप्रैल को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रिकॉर्डेड संदेश में देश की जनता से ‘अंधकार से प्रकाश की ओर चलने’ का आह्वान किया। 5 अप्रैल को रात 9 बजे 9 दीये जलाने की अपील की तो एक महीने पहले की तारीख 3 मार्च की याद आ गयी। उस दिन पीएम ने एक ट्वीट किया था। बताया था कि दुनिया के डॉक्टर इकट्ठा नहीं होने की सलाह दे रहे हैं, इसलिए वे होली समारोह से दूर रहेंगे। 

3 मार्च और 3 अप्रैल की तुलना करें, तो तब भारत में कोरोना मरीजों की संख्या 7 थी, अब यह ढाई हजार हो चुकी है। बीते एक महीने में जनता कर्फ्यू से लेकर कुल 3 बार देश की जनता को प्रधानमंत्री संबोधित कर चुके हैं।

50 से ढाई हजार कोरोना संक्रमण में भारत को लगे 21 दिन, अमेरिका को 19 दिन

होली 10 मार्च को थी। इसी दिन भारत में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या 50 पार हुई थी। 10 मार्च को यह संख्या 62 पहुंच गयी। ठीक 21 दिन बाद 2 अप्रैल को भारत में कोरोना मरीजों की तादाद ढाई हजार पार कर गयी। इसकी वास्तविक संख्या 2543 हो गयी। (आंकड़ों का स्रोत : https://www.worldometers.info/coronavirus/country/india)

गौर करने वाली बात यह है कि भारत के मुकाबले अमेरिका ने दो दिन पहले यह नकारात्मक उपलब्धि हासिल की। अमेरिका में कोरोना मरीजों की संख्या 26 फरवरी को 50 पार हुई थी। यह वह दिन था जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की यात्रा से स्वदेश लौटे थे। खास बात यह है कि इसी दिन अमेरिका में ऐसा केस मिला था जिसे सामुदायिक संक्रमण कहा गया। ठीक 19 दिन बाद 14 मार्च को कोरोनो मरीजों की संख्या ढाई हजार पार कर गयी। 14 मार्च तक अमेरिका में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या 2770 हो चुकी थी।

अमेरिका से भारत की तुलना की खास वजह है कि फरवरी महीने में जब भारत ने ‘नमस्ते ट्रंप’ का आयोजन किया था तब दोनों ही देशों ने सोशल डिस्टेंसिंग की ऐसी-तैसी कर दी थी। यही वो समय था जब दिल्ली में दंगे हो रहे थे। यह तुलना यह बताने के लिए भी जरूरी है कि कोरोना संक्रमण में भारत की रफ्तार कम नहीं है। यह अमेरिका के मुकाबले महज दो दिन पीछे है। इसे इस रूप में भी कह सकते हैं कि भारत को बीमारी के संक्रमण में दो दिन की राहत है। 

अमेरिका पर भारत की इस दो दिन की ‘बढ़त’ को हम लॉकडाउन से भी जोड़ सकते हैं। वहीं हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि टेस्टिंग के मामले में हिन्दुस्तान अमेरिका के मुकाबले बहुत पीछे है। हालांकि कहने वाले यह भी कहेंगे कि मरकज जमात जैसी घटना अमेरिका में नहीं हुई अन्यथा आंकड़े और अनुकूल हो सकते थे। मूल चिंता यह है कि क्या आगे भी कोरोना संक्रमण के मामले में भारत की ‘बढ़त’ मजबूत रह सकेगी? यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोरोना से लड़ाई हम कैसे लड़ रहे हैं। 

क्या वाकई गंभीर है देश?

क्या देश वाकई गम्भीर है? जब ‘देश’ कहा जाता है तो इसमें जनता भी है और जनता की चुनी हुई सरकार भी। जनता से सरकार ने अपील की कि वह ‘जनता कर्फ्यू’ करे। पालन हुआ- जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का कर्फ्यू। सरकार ने भी ट्रांसपोर्ट आदि बंद कर इसमें सहयोग किया। ताली के साथ-साथ थाली भी बजी। यह उनका मनोबल बढ़ाने के लिए था जो कोरोना वारियर्स हैं। हालांकि ताली-थाली कार्यक्रम में सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ गयीं, फिर भी यह सरकार के लिए उत्साह बढ़ाने वाला था।

उत्साह से लबरेज मोदी सरकार ने देश को 24 मार्च की मध्यरात्रि से लॉक डाउन में डाल दिया। किसी विरोध का सवाल ही नहीं था, क्योंकि जनता साथ दे रही थी। मगर, इसमें संदेह नहीं कि यह ऐलान बगैर किसी तैयारी के हुआ। नतीजा मजदूर पलायन करने लगे। सैकड़ों मील दूर पैदल चलने का उनका संकल्प बता रहा था कि बड़ी गलती हुई है। पैदल घिसटते मजदूर पूछ रहे थे कि जो विदेश से कोरोना ला रहे हैं उनके लिए सरकार के पास हवाई जहाज है, हमारे लिए चप्पल तक क्यों नहीं? जब गरीब बेचैन होता है तो उसकी बेचैनी सरकार की नींद हराम कर देती है। 

पलायन की बदनामी से ‘पलायन’ का अवसर

निजामुद्दीन में तबलीगी मरकज जमात की घटना इस मायने में मोदी सरकार को सुकून दे गयी कि पलायन ने जो छवि धूमिल की थी, उस पर पर्देदारी के लिए मौका मिल गया। अब कोरोना संक्रमण के तेजी से बढ़ने की जिम्मेदारी तबलीगी जमात पर आ गयी। इस बीच कोरोना वॉरियर्स के साथ ‘जमात से जुड़े लोगों’ के दुर्व्यवहार की घटना ने भी कोरोना को देखने के नजरिए को सांप्रदायिक बनाने का अवसर दिया। वो सारे सवाल दब गये कि तबलीगी जमात में 2 हजार से ज्यादा विदेशी हवाई अड्डे से बगैर किसी स्क्रीनिंग के कैसे आए, क्वॉरन्टीन क्यों नहीं किए गये, 50 मीटर की दूरी पर मौजूद थाने में बैठी पुलिस क्या कर रही थी, जनता कर्फ्यू और राज्यों की सीमाएं सील होने के बाद और फिर लॉक डाउन हो जाने के बाद मरकज में मौजूद लोगों को रेस्क्यू क्यों नहीं किया गया? वो सारी लापरवाही जो सरकार और पुलिस-प्रशासन की ओर से हुई, दब गयी। 

पलायन की मजबूरी से गरीब उबरे हों या नहीं, मोदी सरकार इस सदमे से उबर चुकी थी। अब छवि की चिन्ता नहीं थी। लॉक डाउन सफल हो, तो सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती थी। विफल हो तो दूसरों की पीठ पर इस विफलता का बोझ डाल सकती थी। इसी स्थिति ने मोदी सरकार में जो आत्मविश्वास लौटाया, उसी का नतीजा है 3 अप्रैल का वीडियो संदेश और उसमें ‘कोरोना काल’ में ‘दीपावली’ का ऐलान।

कितना लंबा होगा लॉकडाउन?

लॉक डाउन जारी रहेगा या पहले खत्म हो जाएगा या कि अपने नीयत समय पर ही खत्म होगा, इस बहस में थोड़े समय पहले तक मोदी सरकार रुचि ले रही थी। सरकार को सफाई देनी पड़ी थी कि लॉक डाउन बढ़ाने की बात अफवाह है। मगर, लॉक डाउन नहीं बढ़ाने की बात भी तो अफवाह है! दरअसल जो बात रिव्यू मीटिंग में तय होगी, उस बारे में पहले ‘हां’ या ‘ना’ कुछ भी कहना सच नहीं हो सकता।

अब एक बात तय है कि अगर लॉक डाउन बढ़ता है तो मोदी सरकार के पास उसका लॉजिक होगा। मजबूरी में ऐसा करना पड़ा है। अगर मरकज ने ‘वैसा’ नहीं किया होता, तो आज देश की तस्वीर अलग होती! जाहिर है कि लॉक डाउन बढ़ाना राजनीतिक नफा-नुकसान के नजरिए से सरकार के लिए अब मुश्किल भरा फैसला नहीं रह गया है।

राजनीति की चाल चाहे जो हो, मगर वक्त की रफ्तार और हकीकत की रवानगी अपने ही तरीके से होती है। कोरोना के संक्रमण की भारत में रफ्तार यह कह रही है कि भारत भी अमेरिका के नक्शेकदम पर है। लॉक डाउन का फर्क दोनों देशों में कोरोना के संक्रमण में फर्क ला पाएगा, इसमें संदेह है। संदेह की वजह भारत में भी है, अमेरिका में भी। अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर लॉक डाउन भले न हो, लेकिन प्रांतीय स्तर पर लोगों को अपने ही घरों में रहने को कहा गया है।

वहीं, भारत में जरूर 21 दिन का लॉक डाउन है मगर यह लॉक डाउन पलायन और मरकज जैसी घटनाओं के बीच व्यापक पैमाने पर टूटा है। बड़े पैमाने पर टेस्टिंग का अभाव भारत के संदर्भ में महत्वपूर्ण नकारात्मक पहलू है। ऐसी स्थिति में अब देश को प्रधानमंत्री के एक और संदेश का इंतज़ार है जो ‘दीपावली’ के बाद हो सकता है।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और उन्हें आजकल विभिन्न चैनलों के पैनलों में बहस करते देखा जा सकता है।)

प्रेम कुमार
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