शेख जर्रा के फिलिस्तीनी नागरिकों को बचाने के लिए आगे आएं भारतीय

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय कुद्स दिवस पर दो कार्यक्रमों में 6 और 8 मई को शामिल होने का मौका मिला जिसमें ईरान,ब्रिटेन, फिलिस्तीन और तमाम अरब देशों तथा इंडिया फिलिस्तीन सॉलिडेरिटी फोरम  के बुद्धजीवियों को सुनने का मौका मिला। फिर समाचार मिला कि यरूशलम में स्थित अल अक्सा मस्जिद में दुआ करने गए फिलिस्तीनी श्रद्धालुओं पर हमला किया गया है।  शेख जर्रा में भी हमले किए जा रहे हैं।

 असल में इजरायली सरकार अल अक्सा मस्जिद को जो मुसलमानों के लिए तीसरे नंबर की सबसे पवित्र मस्जिद है, को नष्ट करने की साजिश रच रही है। वे अल अक्सा मस्जिद और द डोम ऑफ द रॉक को नष्ट कर वहां सोलोमन का तीसरा पवित्र स्थान बनाना चाहते हैं। यदि इस दिशा में कट्टरपंथियों को आगे बढ़ने से नहीं रोका जाता तो  इसकी पूरी दुनिया में प्रतिक्रिया होना तय है। स्थिति युध्द तक पहुंच सकती है ।

 कुल मिलाकर इजराइल यहूदी पवित्र ऐतिहासिक स्थानों के अलावा यरूशलम में सभी ईसाई और इस्लाम से जुड़े  सांस्कृतिक, धार्मिक धरोहर को नष्ट करना चाहता है। फिलिस्तीनियों ने सैकड़ों साल से यहूदी, ईसाई और इस्लाम के ऐतिहासिक धरोहर को बचा के रखा है। हाल ही में जो स्थिति बनी है उसके लिए मुख्य तौर पर डोनाल्ड ट्रंप जिम्मेदार हैं। उन्होंने डील ऑफ सेंचुरी के नाम पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों, नैतिकता, ऐतिहासिक तथ्यों को दरकिनार कर यरूशलम को इजराइल को सौंप दिया है। यह अरब मूल के नागरिकों के साथ धोखा है। इजरायली शासकों द्वारा यरूशलम के शेख ज़र्रा और सिलवान में बसे फिलिस्तीनियों को न्यायालय के आदेशों के माध्यम से खदेड़ा जा रहा है। यह वही लोग है जो 1948 के जातीय नरसंहार के बाद 1960 में जॉर्डन की सरकार तथा संयुक्त राष्ट्र संघ आरडब्लूए द्वारा 1960 में पुनर्वासित किए गए थे।

यह सभी जानते हैं कि उस समय फिलिस्तीन की साढ़े सात लाख में से आधी से अधिक आबादी को खदेड़ दिया था तथा उन्हें शरणार्थी बनने को मजबूर कर दिया था। ऐसी स्थिति में शेख जर्रा बचाओ आंदोलन शुरू हो गया है। जिसका फिलिस्तीनी नागरिकों के साथ तमाम अरब देश समर्थन कर रहे हैं। भारत की सरकार और जनता को चाहिए कि वह फिलिस्तीनियों को संघर्ष में साथ दे।

उधर इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय  और अरब देशों के बीच फिलिस्तीन के सवाल को पीछे धकेलने में सफलता हासिल की है। यदि 2 जून के पहले इजराइल  में पिछले 2 साल में 4 बार चुनाव होने के बाद भी यदि  यूनिटी गवर्नमेंट नहीं बन पाती तो पांचवी बार के चुनाव के बाद हो सकता है। हो सकता है आनेवाले समय मे ऐसी  सरकार बने जो बेंजामिन नेतन्याहू मुक्त हो, भ्रष्टाचार के आरोपों में उन्हें सजा हो और नई सरकार इस  त्रासदी को अलग नजर से देखने की दिशा में काम करें।

अमेरिका में भी बेंजामिन नेतन्याहू के खास समर्थक डोनाल्ड ट्रंप को जनता ने हरा दिया है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि अमेरिका के रुख में कोई सकारात्मक बदलाव आएगा हालांकि अधिकतर जानकार यह मानते हैं कि इजराइल और अमेरिका में कोई भी सत्ता परिवर्तन हो उनका फिलिस्तीन के प्रति रुख नहीं बदलेगा लेकिन मैं यह नहीं मानता कि कुछ भी असंभव है ।

शांति प्रयासों को मुझे कई दशक  पूर्व प्रत्यक्ष देखने का मौका  तब मिला था, जब मैं 120 देशों के युवा समाजवादियों के संगठन इंटरनेशनल यूनियन ऑफ सोशलिस्ट यूथ  के उपाध्यक्ष रहते हुए  यरुशलम, गाजा और वेस्ट बैंक गया था। शरणार्थियों से भी मिला था। हमारे प्रतिनिधि मंडल की मुलाकात यासिर अराफात और मोहम्मद अब्बास से भी हुई थी । 

 यासिर अराफात फिलिस्तीन का 40 वर्षों तक चेहरा रहे हैं।  20 से 22 नवंबर 1997 तथा 10 अप्रैल 1999 के बीच भारत आए थे। उन्हें मिडिल ईस्ट में शांति प्रयासों के लिए यासिर अराफात, सिमोन पेरिस और यज़ाक रबिन के साथ नोबेल पुरस्कार भी मिला था। 

उन्होंने जो प्रयास किये उसके तमाम नतीजे भी निकले । फिलिस्तीनीयों के साथ जो कुछ हो रहा है कई मायने में वह भारत के  साथ भी हो चुका है। अंग्रेजों ने 1757 से जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को ईस्ट इंडिया कंपनी ने हराया था तब से लेकर 15 अगस्त 1947 तक भारत को  गुलाम बनाए रखा। दक्षिण अफ्रीका में भी गोरों का राज चला लेकिन भारत और दक्षिण अफ्रीका दोनों मुक्त हो गए। फिलिस्तीनियों के मुक्ति के संघर्ष को भारत एक राष्ट्र के तौर पर गांधीजी के दिनों से लेकर आज तक समर्थन देता रहा है। गांधीजी ने 1948 में फिलिस्तीनियों को बेदखल किए जाने के 10 वर्ष पूर्व ही कहा था कि अरबियों पर यहूदियों  को थोपना गलत और अमानवीय होगा।

इजराइल के 1948 में गठन के समय के पहले ही संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में फिलिस्तीन के विभाजन के खिलाफ भारत ने वोट दिया था। 1974 में भारत में पीएलओ को मान्यता दी थी तथा 1988 में फिलिस्तीन स्टेट को मान्यता दी थी।  ओस्लो एकॉर्ड के बाद भारत  ने गाजा में अपना दूतावास खोला था बाद में उसे रामल्ला में शिफ्ट किया गया। इजराइल ने जब वेस्टबैंक में दीवार बनाई, तब भारत ने उसके खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ में वोट किया। भारत में 2011 में फिलीस्तीन को यूनेस्को का पूर्ण मेंबर बनाने का समर्थन किया। इसी तरह 2012 में संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन का स्टेटस बढ़ाने के लिए समर्थन किया। 2014 में इजरायल द्वारा गाजा में की गई कार्यवाही के खिलाफ यू एन एच आर सी के प्रस्ताव का भारत ने समर्थन किया। 2008 में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत संप्रभु एकजुट  स्वतंत्र फिलिस्तीन चाहता है जो इजराइल के साथ सहअस्तित्व की नीति अपनाए।

10 फरवरी 2018 को जब भारत के प्रधानमंत्री रामल्ला गए थे तो उन्होंने भी कहा था कि भारत स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र को शांति के वातावरण में स्थापित होते  देखना चाहता है। पूर्वी येरूशलम में बसे फिलिस्तीनियों को न्यायालय के आदेश के  माध्यम से नस्लभेदी इजराइल की फौज शेख जर्राह  से  खदेड़ने की कोशिश कर  रही है। 

हम इस तरह की कार्यवाही की निंदा करते हैं। जिस तरीके से पूरे फिलिस्तीन में इजराइल की इस कार्यवाही के खिलाफ में कमेटियां बनाई गई है, वैसी कमेटियां हमें भी बनानी चाहिए तथा फिलिस्तीन में  नए तरह का इंतफादा,एक नया आंदोलन जन्म ले रहा है उसको ताकत देने की कोशिश की जानी चाहिए। 

ईरान के द्वारा जिस तरह से फिलिस्तीन की मुक्ति संग्राम को समर्थन दिया जा रहा है उसी तरह का समर्थन अन्य अरब राष्ट्र में तथा भारत सरकार 72 लाख से अधिक शरणार्थियों को मदद करें तथा इजराइल पर फिलीस्तीन राष्ट्र को मान्यता प्रदान करने और उसके पहले फिलिस्तीनियों पर लगातार किए जाने वाले हमले को बंद किए जाने तथा फिलिस्तीनियों को स्वतंत्र रूप से आने-जाने का अधिकार प्रदान करने के लिए दबाव डालें। बहुत सारे लोग यह कह सकते हैं कि जब भारत इजराइल से हथियार खरीदने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है तब ऐसी उम्मीद करना खयाली पुलाव पकाना है। लेकिन जिस तरह से ईरान की जनता फिलिस्तीनियों के साथ खड़ी है उसी तरह भारतीय फिलिस्तीनी नागरिकों के साथ खड़े होंगे तो सरकार अपने तौर-तरीके बदलने के लिए मजबूर होगी। पूरे मिडिल ईस्ट में जिस तरह युवा फिलिस्तीन के समर्थन में सामने आया है उससे उम्मीद पैदा हुई है

संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के अध्यक्ष  ने ठीक ही कहा है कि फिलिस्तीनियों  को  केवल संवेदनाओं की नहीं एकजुटता की भी जरूरत है।

इनशाअल्लाह फिलिस्तीनी लड़ेंगे और जीतेंगे।

(डॉ. सुनीलम समाजवादी नेता हैं और मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं।)

डॉ. सुनीलम
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डॉ. सुनीलम