भ्रष्टाचार पर प्रारम्भिक जांच भी नहीं कर सकतीं जांच एजेंसियां, देश में अधिकतम भ्रष्टाचार और न्यूनतम रोकथाम

मोदी सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की बात करती है लेकिन वास्तविकता विल्कुल विपरीत है। देश में अधिकतम भ्रष्टाचार और न्यूनतम रोकथाम है। क्या आप जानते हैं भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस का दावा करने वाली मोदी सरकार चाहती ही नहीं है कोई नौकरशाह ,सरकारी अधिकारी या कर्मचारी भ्रष्टाचार के मामले में फंसे। मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 में धारा 17-ए जोड़कर यह व्यवस्था की है कि अब कोई भी जांच एजेंसी सीधे आरोपी अधिकारी या कर्मचारी की जांच या पूछताछ नहीं कर सकती। इसके लिए अब पहले ही राज्य सरकार की अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। जाँच एजेंसियां ऐसी शिकायतों में प्रारंभिक जांच भी नहीं कर सकती, जिनमें किसी आदेश या नियम के खिलाफ जाकर फैसला करने का आरोप है।

(नोट-भ्रष्टाचार निरोधक कानून (1988) संशोधन के लिए यूपीए 2 के कार्यकाल में वर्ष 2013 में पेश किया गया था इसके बाद इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था स्थाई समिति ने इस पर अपने विचार रखने के बाद इसको प्रवर समिति के पास भेजा था जिसके बाद इसको समीक्षा के लिए विधि आयोग के पास भी भेजा गया। अंत में समिति ने 2016 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसके बाद मोदी सरकार ने 2017 में इस विधेयक को दोबारा संसद में पेश करके पारित कतराया था। दरअसल कार्पोरेट्स, नौकरशाह, राजनेता (मंत्री) का गठजोड़ है, जो मिलकर सार्वजनिक सम्पत्तियां लूटते हैं। चूँकि इसमें क्रियान्वयन के स्तर पर नौकरशाह के हस्ताक्षर ही होते हैं तो उसे बचाने में कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है)

उच्चतम यायालय के दो बार दखल देने के बावजूद भ्रष्टाचार के मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप अब भी मौजूद है।मोदी सरकार ने प्रावधान किया है कि किसी भी जनसेवक की जांच से पहले सीबीआई सरकार से अनुमति लेगी। कोर्ट ने इस प्रावधान को दो बार रद्द किया लेकिन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसी एक्ट) में संशोधन करके सरकारी दिशानिर्देश के रूप में यह अब भी बना हुआ है।

भ्रष्टाचार रोकथाम संशोधन कानून सरकारी कर्मचारियों का दायरा भी बढ़ाता है जिन्हें अभियोजन पक्ष के लिये पूर्व सरकारी मंज़ूरी के प्रावधान से संरक्षित किया जाएगा। यह कानून यह सुनिश्चित करने के नाम पर बनाया गया है कि ईमानदार अधिकारी को झूठी शिकायतों से धमकाया न जा सके। जाँच शुरू करने के लिये सरकार की पूर्व अनुमति पाने के प्रावधान से कानून अपने मूल मसौदे से कमज़ोर हो गया है।कानून में सरकारी कर्मचारियों पर भ्रष्‍टाचार का मामला शुरू करने से पहले लोकपाल और राज्‍य के लोकायुक्त की अनुमति लेना अनिवार्य किया गया है|

केंद्र सरकार द्वारा  सीबीआई को निर्देश दिए गये है किसी भी सरकारी अधिकारी, जो निर्णय लेने वाले पदों पर हैं, उनकी जांच करने के लिए एजेंसी को सरकार से अनुमति लेनी होगी|पहली बार यह कानून 1969 में आया और इसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गय। दूसरी बार, 1988 में बोफोर्स घोटाले के बाद सरकार ने दिशानिर्देश जारी करके यह अनिवार्य कर दिया कि सीबीआई भ्रष्टाचार के मामले में कोई जांच करने से पहले सरकार से अनुमति लेगी।

करीब एक दशक बाद 1997 में हवाला कांड से जुड़े निर्णय में उच्चतम न्यायालय  ने इस प्रावधान को खत्म कर दिया कि सीबीआई को किसी अधिकारी की जांच करने के लिए सरकार की अनुमति लेनी होगी। दरअसल हवाला कांड में एक जैन डायरी सामने आई थी जिसके जरिये पता चला कि पैसे के अवैध लेनदेन में कई बड़े नेता शामिल हैं। यह काफी हाई प्रोफाइल स्कैंडल था। उच्चतम न्यायालय  का कहना था कि यह प्रावधान अधिकारियों के खिलाफ संज्ञेय अपराधों की जांच में बाधा बनेगा और न्याय  को हतोत्साहित करेगा। इसके अलावा यह निर्णायक पदों पर बैठे कुछ अधिकारियों को विशेषाधिकार देता है, जो कि अनुच्छेद 14 के समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

कुछ साल बाद, सेंट्रल विजिलेंस कमीशन (सीवीसी) एक्ट-2003 आया और उसमें फिर से यह प्रावधान कर दिया गया। इस सीवीसी एक्ट को डेल्ही स्पेशल पोलिस स्टैबलिशमेंट एक्ट 1946 में संशोधन के साथ लाया गया, जो सीबीआई को कानूनी आधार और जांच की पॉवर मुहैया कराता था। इसमें कहा गया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत हुए किसी अपराध की जांच सीबीआई बिना केंद्र सरकार की अनुमति के नहीं कर सकती।

हवाला कांड से जुड़े उच्चतम न्यायालय के फैसले में सीवीसी को कानूनी आधार देने और सीबीआई की कार्यप्रणाली की देखरेख की जिम्मेदारी सीवीसी को देने के बारे में भी कहा गया था। न्यायालय ने ऐसा इसलिए कहा था ताकि राजनीतिक हस्तक्षेप रोका जा सके और जांच प्रक्रिया में पारदर्शिता और निगरानी हो न्यायालय लेकिन सरकार ने इसमें तीसरा रास्ता निकाला और संशोधन के जरिये सीबीआई पर नियंत्रण कायम कर लिया। तब से सीबीआई सरकार के नियंत्रण में ही है। इसके साथ ही सीबीआई को सरकारी दिशानिर्देश  का कानूनी आधार मिल गया।

वर्ष 2004 में इसे तत्काल कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन उच्चतम न्यायालय  ने इसे रद्द करने में एक दशक लगा दिया|2014 में इसे रद्द करने के दौरान उच्चतम न्यायालय ने हवाला कांड का ही तर्क दोहराया|इस फैसले में कहा गया कि सीबीआई को मिला यह सरकारी दिशानिर्देश न तो सार्वजनिक अनियमितताओं को दूर करने में कामयाब हुआ है और न ही जनहित में कुछ हासिल कर सका है|बल्कि, यह सार्वजनिक अनियमितताओं को बढ़ावा देता है और चोर-दरवाजों को सुरक्षित करता है| यह प्रावधान भ्रष्ट जनसेवकों को पकड़ने में स्वतंत्र, निर्बाध, पूर्वग्रह-मुक्त, सक्षम और निर्भय होकर जांच को प्रभावित करता है|

चार साल बाद, 2018 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में बदलाव के साथ यह कानून फिर से वजूद में आ गया है|इस कानून में एक धारा (17A) जोड़ी गई है जो कहती है कि जिस दौरान कोई अधिकारी नियुक्ति पर रहा हो, उस दौरान हुए कथित अपराध की जांच बिना पूर्व अनुमति के नहीं की जा सकती|

गौरतलब है कि वर्ष 2014 के फैसले में सरकार से ‘पूर्वानुमति’ के बारे उच्चतम न्यायालय  ने कहा था  कि पूर्वानुमति का मतलब होगा कि जिस अधिकारी के खिलाफ जांच होनी है, उसे यह पता चल जाएगा कि उसकी जांच होने जा रही है| इस तरह मामले में पहले से सतर्कता बरत कर जांच को प्रभावित किया जा सकता है|दूसरे, अगर सीबीआई को यह अधिकार नहीं है कि वह प्राथमिक जांच पड़ताल करके शिकायत की पुष्टि कर सके, तो अभियोजन आगे कैसे बढ़ेगा? प्राथमिक जांच का मकसद यह सुनिश्चित करना है कि जिस बारे में शिकायत मिली है, क्या प्रथमदृष्टया वह जांच का मामला बनता है या नहीं|

दरअसल सीबीआई अगर कोई दूसरे केस भी लेती है, जो भ्रष्टाचार से जुड़े हैं और जिनकी जांच भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत होनी है, तो उसकी जांच इस दिशानिर्देश से सीधी प्रभावित होगी। लोकपाल का पूरा अधिकार क्षेत्र भ्रष्टाचार के उन मामलों तक सीमित कर दिया गया है जो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत आते हैं और सरकारी दिशानिर्देश  से सीधे प्रभावित होंगे|इस तरह इस’सरकारी दिशानिर्देश  का प्रभाव बहुत व्यापक है|

राजस्थान हाईकोर्ट एक मामले में 17 ए पीसी एक्ट का हवाला देते हुए 2020 में दिए गये फैसले में कहा था कि सरकारी कर्मचारी के खिलाफ पूछताछ/ जांच शुरू करने से पहले सरकार की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है और ऐसी अनुमति के बिना प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की जा सकती है।किसी निजी शिकायत के आधार पर ऐसी जांच नहीं कराई जा सकती है। ज‌स्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कहा, “… भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों के तहत लोक सेवकों के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले सरकार की अनुमति आवश्यक है और ऐसी अनुमति के बिना प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की जा सकती है। ऐसे मामलों में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो लोक सेवकों पर तो मुकदमा नहीं ही चला सकता है, निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी प्राथमिकी पूरी तरह से अवैध है और कानून की प्रक्रिया की दुरुपयोग है।

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट और राजस्थान हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया है। याचिकाओं में सरकारी अधिकारियों से पूछताछ से पहले सरकार से अनुमति लेने के प्रावधान को चुनौती दी गई है। गौरतलब है कि प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट में एक नई धारा 17 (1) जोड़ी गई है जिसके तहत विशेष स्थापना पुलिस, लोकायुक्त संगठन हो या फिर आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ (ईओडब्ल्यू) किसी भी लोक सेवक, अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ सीधे प्रकरण दर्ज नहीं कर सकेंगे। पूछताछ भी अनुमति मिलने के बाद ही होगी।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

जेपी सिंह
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