आबादी एक अवसर है या चुनौती?

भारत इस वर्ष दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनपीएफ) के यह पुष्टि करने के एक दिन बाद समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक दिलचस्प ट्वीट किया। इस ट्वीट की भाषा गौर करने लायक है। उन्होंने कहाः 

चिंतनीय ख़बर: भारत की आबादी हुई सबसे अधिक

कारण: सरकार की विफलता

विवरण:- ग़रीबी-बेरोज़गारी के कारण काम में हाथ बंटाने व कमाने के लिए व

– मेडिकल की कमी से बाल मृत्यु के डर से अधिक बच्चे पैदा करना तथा कांट्रासेप्टिव्स का वितरण न होना।

– शिक्षा की कमी से जनसंख्या के दबाव को न समझना

जनसंख्या संबंधी आधुनिक विमर्श से परिचित किसी व्यक्ति के लिए इस ट्वीट को देख कर यह समझना कठिन होगा कि अखिलेश यादव (या उनके जैसे पढ़े-लिखे लोग भी) किस युग में जी रहे हैं? 1970-80 के दशकों में ज़रूर ऐसी बातें कही जाती थीं। मुमकिन है कि बहुत से आम लोग अभी भी ऐसा सोचते हों कि दुनिया में आबादी के लिहाज से नंबर एक देश बनना भारत के लिए एक अभिशाप है। लेकिन देश के एक बड़े नेता का भी ऐसा सोचना समस्याग्रस्त है।

जो लोग “शिक्षा की कमी” के शिकार हैं, उनका नाजानकारी में ऐसे पूर्वाग्रह पालना समझ में आ सकता है। लेकिन जिन लोगों के हाथ में नीति निर्माण और विकास योजनाओं को बनाने की जिम्मेदारी आती रहती हो, अगर उन्हें भी पॉपुलेशन ट्रेंड्स की बुनियादी जानकारी नहीं है, तो यह इस देश के लिए गहरी चिंता का विषय होना चाहिए।

वरना, अगर अखिलेश यादव सिर्फ अपने राज्य- उत्तर प्रदेश (जहां के वे पांच साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं) के रिप्लेसमेंट (अथवा फर्टिलिटी) रेट पर गौर कर लेते, तो उन्हें यह खबर इतनी “चिंतनीय” महसूस नहीं होती। साल 2022 के अंत में उत्तर प्रदेश में यह दर 2.4 तक गिर चुकी थी। हालांकि यह दर अपेक्षित रिप्लेसमेंट रेट से अभी भी कुछ अधिक है, लेकिन जन्म दर में गिरावट का ट्रेंड साफ है।

रिप्लेसमेंट रेट का मतलब प्रति महिला औसत जन्म दर है। जनसंख्या विशेषज्ञों के मुताबिक अगर किसी समाज में यह दर 2.1 हो, तो उस समाज में आबादी स्थिर रहेगी। यानी हर 10 महिला पर 21 बच्चों के जन्म औसत को अपेक्षित दर माना जाता है। सामान्य समझ हैः दो लोग एक बच्चे की जन्म प्रक्रिया में शामिल होते हैं। अगर उनके दो ही बच्चे होंगे, तो वे एक समय के बाद अपने माता-पिता को रिप्लेस करेंगे (यानी माता-पिता की मृत्यु से होने वाली संख्या की कमी की पूर्ति करेंगे)। लेकिन चूंकि कई अप्राकृतिक मौतें भी होती हैं, इसलिए अपेक्षित दर 2.1 मानी गयी है।

भारत में अब ये दर सबसे ज्यादा बिहार में है। वहां प्रति महिला औसतन लगभग तीन बच्चे अभी जन्म ले रहे हैं। लेकिन ऐसे अनेक राज्य हैं, जहां यह दर अपेक्षित दर से भी काफी घट चुकी है। मसलन, पंजाब और पश्चिम बंगाल में यह दर मात्र 1.6 रह गई है, जबकि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में यह 1.7 है। जाहिर है, एक समय के बाद इन प्रदेशों में आबादी वास्तविक अर्थ में घटने लगेगी।

वैसे अगर पूरे भारत पर गौर करें, तो 2022 के अंत में रिप्लेसमेंट दर 2.159 तक गिर गई थी। यानी राष्ट्रीय स्तर पर भारत ने अपेक्षित रिप्लेसमेंट दर को लगभग हासिल कर लिया है। इस दिशा में प्रगति कितनी तेज है, इसका अंदाजा 2020 और 2022 की तुलना करके लगाया जा सकता है।

2020 के अंत में भारत में रिप्लेसमेंट दर 2.2 थी। साफ है, सिर्फ दो साल में इस दर में 0.9 प्रतिशत की गिरावट आई है। अगर आज़ादी के समय भारत में रही रिप्लेसमेंट दर से 2022 की दर की तुलना करें, तो स्वतः अंदाजा लग सकता है कि इस दिशा में प्रगति कितनी तेज रही है। 1950 में यह दर 5.9 थी। यानी तब औसतन प्रति महिला लगभग छह बच्चे जन्म लेते थे। अब यह संख्या दो के करीब पहुंच चुकी है।

जन्म दर में गिरावट का सीधा संबंध मानव विकास की स्थितियों से है। शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता, महिलाओं का सशक्तीकरण और पारिवारिक जीवन स्तर में सुधार वो पहलू हैं, जिनसे लोग स्वतः ही छोटा परिवार रखने के लिए प्रेरित होते हैं।

यह दुनिया भर का अनुभव है। तजुर्बा यह है कि मध्य वर्गीय जीवन स्तर हासिल करने की तरफ बढ़ रहे या ऐसा कर चुके परिवारों में भविष्य बेहतर बनाने की आकांक्षा स्वाभाविक रूप से बढ़ती है। ऐसे में अपने बच्चों की शिक्षा और उनके पालन-पोषण में निवेश उनकी प्राथमिकता बन जाता है। इसके अलावा स्वास्थ्य संबंधी चेतना से गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल अधिक प्रचलित होता है।

तमाम विकसित समाजों के अनुभवों पर गौर करें, तो देखा गया है कि अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की महिलाओं की स्वतंत्रता का स्तर जनसंख्या को निर्धारित करने वाला एक प्रमुख पहलू है। महिलाएं शिक्षा और रोजगार के लिए घर से बाहर निकलने लगती हैं, विवाह संबंधी निर्णय का अधिकार उन्हें मिल जाता है, कब और जीवन में कितनी बार मां बनना है- इस बारे में उनका फैसला परिवार में स्वीकार्य हो जाता है, तो उन समाजों में जन्म दर में खुद कमी आने लगती है।

आम तौर पर सक्षम और सशक्त महिलाओं में हर कुछ वर्ष पर मां बनने की प्रक्रिया से बचने की प्रवृत्ति होती है। पश्चिम यूरोप से लेकर जापान और दक्षिण कोरिया तक में आज अगर आबादी में जरूरत से ज्यादा गिरावट एक बड़ी समस्या बन गई है, तो इसके पीछे शिक्षा और महिला सशक्तीकरण सबसे अहम पहलू हैं।

भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश चीन को पीछे छोड़ते हुए बना है। आबादी के मामले में चीन का भारत से पीछे हो जाना एक ऐसी घटना है, जिस पर जनसंख्या विमर्श के क्रम में अवश्य गौर किया जाना चाहिए। 1951 में चीन की आबादी 55 करोड़ और भारत की 36 करोड़ थी। तीन दशक बाद यानी 1981 में चीन की आबादी 99 करोड़ तक पहुंच गई, जबकि भारत की आबादी तब 68 करोड़ थी। उसके 30 साल बाद यानी 2011 में चीन की आबादी 135 करोड़ हुई, जबकि भारत की आबादी 125 करोड़ तक पहुंच गई। इस 30 साल की अवधि में चीन वन चाइल्ड (एक बच्चे की ही अनुमति देने) की “दमनकारी” नीति पर चला था।

लेकिन अब वहां हो रहे अध्ययनों से यह सामने आया है कि वन चाइल्ड नीति ने चीनी समाज में जनसंख्या संबंधी असंतुलन पैदा किया। अंततः 2015 में उसे यह नीति छोड़नी पड़ी और दो साल पहले तो उसे तीसरे बच्चे को पैदा करने के लिए माता-पिता को प्रोत्साहित करनी की नीति अपनानी पड़ी है। मगर गौरतलब यह है कि चीन की नई पहल के कारगर होने के अब तक कोई संकेत नहीं हैं। इसकी वजह गुजरे 40 वर्षों में चीन में तेजी से ऊंचा हुआ आम जीवन स्तर है। साथ ही वहां आधुनिक ढंग की जीवन शैली तेजी से प्रचलित हुई है।

चीन की तकरीबन 80 करोड़ आबादी वैश्विक पैमाने पर मध्य वर्ग का हिस्सा बन चुकी है। अब इस वर्ग के परिवारों में अधिक बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति नहीं है। बल्कि एक या दो बच्चों से ज्यादातर परिवार संतुष्ट नजर आते हैं। इसीलिए भविष्य में अन्य विकसित समाजों की तरह चीन के भी आबादी गिरने से त्रस्त होने की आशंका गहरा गई है। दरअसल, चीन में जन्म दर में तेजी से आई गिरावट ही वो कारण है, जिससे भारत जनसंख्या के मामले में उससे आगे निकलने जा रहा है।

यह विमर्श यह साफ कर देता है कि आबादी का बढ़ना कोई स्वतंत्र पहलू नहीं है। बल्कि किसी समाज की आर्थिक परिस्थितियों, सामाजिक ढांचे और सांस्कृतिक परिवेश से इसका सीधा संबंध है। इन पहलुओं से काट कर कोई जनसंख्या विमर्श नहीं हो सकता। दरअसल, कहा यह जा सकता है कि आबादी अपने-आप में कोई समस्या नहीं है। इसलिए इस मामले में नंबर एक होना भारत के लिए वैसी ‘चिंतनीय’ खबर नहीं है, जैसा अखिलेश यादव ने बताया है। बल्कि यह मौका यह बहस छेड़ने का है कि ये बड़ी आबादी भारत के लिए एक अवसर है या ये बड़ी आबादी देश के लिए एक गंभीर चुनौती बन जाएगी?

इस चर्चा के सिलसिले में भी यह उचित होगा कि हम एक बार फिर चीन के अनुभव पर गौर करें। 1949 की क्रांति के बाद चीन की विकास यात्रा को मोटे तौर पर तीन युगों में रख कर देखा जाता है। पहला दौर ‘माओवादी चीन’ (1949-1981) का है। दूसरा दौर (1981-2013) सुधार और खुलेपन की अपनाई गई नीति का माना जाता है, जिसकी पहचान देंग श्योओपिंग से की जाती है। तीसरा दौर अभी शी जिनपिंग के नेतृत्व में चल रहा है, जिसमें दूसरे दौर में समाज में आए असंतुलनों को दूर करने की कोशिश की जा रही है। चीन इसे ‘समाजवादी आधुनिकीकरण’ का दौर कहता है।

साल 1981 में चीन जब सुधार और खुलेपन के दौर में प्रवेश करने की तैयारी कर रहा था, तब वहां की स्थितियों पर विश्व बैंक ने एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट तैयार की थी। 400 पेज से अधिक की इस रिपोर्ट में उल्लेख किया गया था कि माओवादी दौर में चीन ने प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य और महिलाओं की सांस्कृतिक आजादी के बुनियादी मकसदों को हासिल कर लिया था। उसके बाद के तमाम अध्ययनों में यह जिक्र किया गया है कि जब चीन ने आर्थिक सुधार और खुलेपन की नीति अपनाई, तो उसके पहले मानव विकास में हुए व्यापक निवेश के कारण वहां इस नीति पर अमल के लिए स्वस्थ और सक्षम श्रम-शक्ति तैयार हो चुकी थी। उसका बेहतरीन नतीजा आने वाले दशकों में उसे मिला।

भारत में विचारणीय सवाल यह है कि इन तीन कसौटियों पर आज भी देश की क्या स्थिति है? भारत की विकास यात्रा का सबसे विसंगत पहलू यह रहा है कि यहां अपनाई गई विकास नीति में हमेशा एक अभिजात्य (इलिटिस्ट) पहलू रहा। माओवादी दौर में जहां चीन में जोर प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य पर था, वहीं भारत में उच्च और तकनीकी शिक्षा पर ज्यादा जोर रहा, जिससे बड़ी संख्या में बच्चों को क्वालिटी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई है। 1991 में अपनाई गई नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के बाद प्राथमिक स्वास्थ्य भी प्राथमिकता में पिछड़ गया।

नतीजा यह है कि जहां गुजरे 75 साल में चीन ने 80-90 करोड़ लोगों का मध्य वर्ग तैयार किया, वहीं भारत में यह संख्या दस करोड़ के आसपास सीमित है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खास कर पिछले साढ़े तीन दशकों में हमारी सार्वजनिक नीतियों में आम लोग पीछे छूटते चले गए हैं। नतीजतन, ऐसी खबरें आम होती चली गई हैं कि भारत में उच्च शिक्षा की डिग्रियां भी आज के रोजगार के तकाजों पर खरी नहीं उतरती हैं। प्रथम जैसी संस्था अक्सर अपनी रिपोर्ट से बताती है कि कैसे भारत में छठी में पढ़ने वाले बच्चे चौथे दर्जे के गणित हल नहीं कर पाते या पांचवीं कक्षा के छात्र तीसरी कक्षा के पाठ नहीं पढ़ पाते। इसके अलावा कुपोषण बढ़ने और बड़ी संख्या में महिलाओं के एनेमिक होने संबंधी रिपोर्टें भी अक्सर आती रहती हैं।

आबादी के बहुत बड़े हिस्से का इस हाल में होना ही असली मुद्दा है। अगर सार्वजनिक नीतियों में इन समस्याओं को दूर करने की जरूरत नहीं महसूस की जाती है, तो फिर अपेक्षाकृत छोटी आबादी भी एक बड़ी चुनौती के रूप में ही नजर आ सकती है। दरअसल, आबादी को अवसर में बदलने के लिए मानव विकास के पैमानों पर प्रगति अनिवार्य है। इसी वजह से चीन में जनसंख्या में वास्तविक गिरावट को एक चिंता का पहलू माना गया है। गौरतलब है कि 2022 लगभग छह दशकों में ऐसा पहला साल रहा, जब चीन की आबादी वास्तव में गिरी। 2021 के अंत में जितने लोग चीन में थे, 2022 के अंत में यह संख्या उससे आठ लाख कम दर्ज हुई थी।

तो मुद्दे की बात यह है कि आबादी अवसर बनेगी या चुनौती- यह सिर्फ जनसंख्या से तय नहीं होता है। यह इससे तय होता है कि किसी देश या समाज में आबादी को लेकर नजरिया क्या है और उसे सक्षम बनाने और स्वस्थ रखने की कैसी व्यवस्थाएं वहां मौजूद हैं। भारत में एक बड़ी मुश्किल यह रही है कि आबादी को समस्या समझा जाता है। यह सवाल कोई नहीं उठाता कि अगर मनुष्य ही समस्या है, तो फिर सारा विमर्श किसके लिए होता है?

यह भी दिलचस्प है कि अक्सर लोग खुद के अलावा बाकी लोगों को समस्या मानते हैं। इसमें एक वर्गीय नजरिया भी रहता है। आम तौर पर गरीब और वंचित समुदायों को आबादी बढ़ाने के लिए जिम्मेदार बताया जाता है। ऐसा करते समय इस पहलू को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि अगर आजादी के 75 साल बाद भी बड़ी संख्या में लोग एक खास जीवन स्तर को प्राप्त नहीं कर पाए हैं या आर्थिक और सांस्कृतिक कसौटियों पर उन्नति नहीं कर पाए हैं, तो उसके लिए सरकारों की भटकी प्राथमिकताएं ही दोषी रही हैं।

अब जबकि भारत दुनिया का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बनने जा रहा है, तो इन प्राथमिकताओं को ठीक करने की जरूरत है। लेकिन इसके लिए दबाव तभी बनेगा, जब बहस सही मुद्दों पर और सही संदर्भ में होगी। अतः पहली आवश्यकता जनसंख्या विमर्श को सही दिशा देने की है।   

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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