पाटलिपुत्र की जंग: क्या यह चाणक्य की नई गुगली है!

बात उतनी ही नहीं है, जितनी कही गई है। आप चाहें तो कल रविवार की शाम लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद जारी वक्तव्य फिर से देख लीजिए। छोटा-सा वक्तव्य है। अजीब घालमेल है, अनोखी खिचड़ी। लोजपा ने जनता दल (यूनाइटेड) से अलग होकर चुनाव लड़ना तय किया है, लेकिन वह भाजपा के साथ है। जद (यू) भी भजपा के साथ है, एनडीए में। भाजपा बिहार के इन चुनावों में जद (यू) के साथ है।

लोक जनशक्ति पार्टी का नीतीश कुमार से और उनकी पार्टी से विवाद है। विवाद यह नहीं है कि लोजपा गठबंधन में जितनी सीटें मांग रही थी, जनता दल (यूनाइटेड) ने उस पर अड़ंगा लगा दिया। चिराग एक या कई बार नीतीश से मिलने गए, इससे यह भ्रम हो सकता है। कई लोगों को हुआ भी। मुझे भी। पर सच शायद यही हो कि वह अपनी लोजपा के लिए सीटों की संख्या पर मोल-तोल के लिए नहीं, बल्कि नीतीश के सात-सूत्रीय कार्यक्रम पर अपना एतराज जाहिर करने, ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ के अपने विजन पर चर्चा और उन्हें राजी करने ही गए हों।

हो सकता है कि भारतीय राजनीति में सर्वश्रेष्ठ ‘मौसम वैज्ञानिक’ के चश्मो चिराग जब जेपी नड्डा से अकेले और अमित शाह की मौजूदगी में भी मिलने गए थे, एक नहीं कई बार, तब भी उन्होंने उप-मुख्यमंत्री पद और 42 या 32 सीटें और राज्य से लेकर केंद्र तक के उच्च सदनों में कुछेक स्थानों की दावेदारी न की हो। संभव है, वहां भी वह सात-सूत्रीय कार्यक्रम की आड़ में नीतीश के भ्रष्ट आचरण और ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ का अपना विजन समझाने ही गए हों।

बहरहाल, न तो भाजपा समझी, न नीतीश माने। भाजपा को नीतीश के सात-सूत्रीय कार्यक्रम पर कोई एतराज नहीं है, बल्कि एक ही अधिक सही, पर 243 सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव में जद (यू) के 122 सीटों पर लड़ने की बात पर भाजपा ने मुहर लगा दी है। केवल पांच साल पहले नीतीश कुमार के डीएनए में खोट बताते रहे नरेंद्र मोदी की पार्टी ने उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर भी साफ रजामंदी जता दी है। मतलब कि भाजपा तो नीतीश की अगुवाई में ही चुनाव लड़ेगी और जाहिर है, गठबंधन को बहुमत मिलने पर उन्हें ही मुख्यमंत्री भी बनाएगी, पर चिराग को नीतीश का नेतृत्व मंजूर नहीं। वह भाजपा की अगुवाई में सरकार बनाने के लिए लड़ेंगे और ऐसी सरकार कैसे बनेगी?

तभी तो, जब भाजपा की सीटें ज्यादा हों और चिराग के इतने विधायक जीत कर आ जाएं कि वे और कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कई छोटे-छोटे गठबंधनों के विजयी उम्मीदवार मिल-जुलकर भाजपा को बहुमत के लिए जरूरी 122 संख्या तक पहुंचा दें। अभी पुख्ता तौर पर बस इतना हो सका है कि भाजपा को अब नीतीश के साथ गठबंधन में अपने पाले में आई 121 सीटों में किसी से कोई साझेदारी नहीं करनी है, क्योंकि फार्मूले के तहत लोजपा को एडजस्ट करने की जवाबदेही उसके जिम्मे आई थी और लोजपा के अलग होकर लड़ने से सभी 121 सीटों पर भाजपा के ही प्रत्याशी होंगे।

दूसरी तरफ जीतन राम मांझी के हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा को अपने कोटे से एडजस्ट करने की जिम्मेदारी के कारण उसके पास केवल 115 सीटें तो बचेंगी ही। कोढ़ में खाज यह कि उन्हें विपक्षी गठबंधन के साथ-साथ लोजपा से भी मुकाबला करना होगा। ज्ञातव्य है कि लोजपा ने जद (यू) के हिस्से आई सीटों समेत कुल 143 क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है और बना भले राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस-वाम के विपक्षी खेमे की काट में हो, कुछ सीटों पर तो असदुद्दीन ओवैसी-देवेन्दर प्रसाद का नया एम-वाई समीकरण और पप्पू यादव, बसपा, प्रकाश अंबेडकर जैसी ताकतें भी उनके दलित-मुस्लिम वोटरों में सेंध लगा ही देंगी।

दिलचस्प यह है कि भाजपा को लोजपा के रुख पर कोई एतराज नहीं है। उसे अपने चुनावी साझीदार के खिलाफ लोजपा के तमाम हमलों से भी कोई गुरेज नहीं और उसके इस संकल्प पर तो कतई नहीं कि वह चुनाव के बाद राज्य में भाजपा के नेतुत्व में सरकार बनाएगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे ओवैसी, प्रकाश जैसे अपने आजमाए हुए साथियों और विपक्षी मतों का अधिक से अधिक विभाजन कराने की अपनी रणनीति पूरी तरह आश्वस्त नहीं कर पा रही हो और जद (यू) के बिना चुनाव में उतरने के हौसले के अभाव में उसने चुनाव के बाद की रोशनी के लिए यह चिराग जलाया हो।

122 सीटों के साथ बड़ी साझेदार होने का जद (यू) का जो प्रतीकात्मक सुकून है, वह तो कल शाम तिरोहित हो ही चुका है, गठबंधन का नेतृत्व बड़े साझीदार को मिलने का सिद्धांत, नतीजे के दिन उसके गले की फांस भी बन सकता है। आखिर मांझी और उनके एक-दो जितने भी सदस्य जीतकर विधानसभा पहुंचे, वे जद (यू) को छोड़ भाजपा के साथ नहीं चले जाएगे, इसकी क्या गारंटी है।

(राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और यूएनआई में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं।)

राजेश कुमार
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