इजराइल और फिलिस्तीन के बीच 47 दिन तक चली लड़ाई के बाद ‘मानवीय आधार पर हमले रोकने’ के लिए हुए समझौते का श्रेय अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने लिया है। अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने दावा किया कि यह समझौता कराने में बाइडेन की “प्रमुख भूमिका” रही। तो प्रश्न है कि सात अक्टूबर को इजराइल पर हमास के हमलों के बाद से युद्धविराम का लगातार विरोध करते रहे बाइडेन आखिर ऐसी भूमिका क्यों अपनाई?
साफ तौर पर इसलिए कि इजराइल की बर्बर कार्रवाइयां अमेरिकी राष्ट्रपति को भारी पड़ने लगी थीं। हमास के हमलों के बाद इजराइल के प्रति पश्चिमी देशों के एक बड़े हिस्से में सहानुभूति पैदा हुई थी। लेकिन उसके बाद प्रतिशोध की भावना के साथ इजराइल ने जिस तरह अस्पतालों, शरणार्थी शिविरों, स्कूलों आदि को निशाना बनाया और उनमें जिस बड़ी संख्या में निहत्थे लोग- शिशु, बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग मारे जाने लगे, उससे सहानुभूति की तुलना में कई गुना ज्यादा गुस्सा और विरोध भाव भी उन देशों में फैलने लगा।
यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने इन इजराइली कार्रवाइयों को “युद्ध अपराध” बताया। ये धारणा आम हो चली कि इजराइल यह सब इसलिए कर पा रहा है, क्योंकि बाइडेन प्रशासन और अन्य पश्चिमी देशों का हाथ उसकी पीठ पर है।
अक्टूबर खत्म-खत्म होते बदलती जन धारणा बाइडेन और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को भारी पड़ने लगी। खुद पश्चिमी मीडिया में ऐसी खबरों की भरमार हो गई। मसलन,
दरअसल, इजराइल को अंध-समर्थन की बाइडेन की नीति ने खुद उनके प्रशासन के अंदर फूट पैदा कर दी। उधर विभिन्न देशों से मिल रही प्रतिक्रिया से प्रशासन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस नीति के कारण दुनिया की जन धारणा में उसे स्थायी किस्म का नुकसान हो रहा है। चूंकि शुरुआत से ही वह इजराइली हमलों को “आत्म रक्षा की कार्रवाई” बताते हुए बार-बार यह कह चुका था कि जब तक हमास का खात्मा नहीं होता, युद्धविराम की जरूरत नहीं है, ऐसे में चेहरा बचाने के लिए उसने “मानवीय आधार पर युद्ध रोकने” का जुमला गढ़ा।
लेकिन फिलहाल आम अनुमान यही है कि अब बंधकों की अदला-बदली के लिए लड़ाई रोकने का फैसला दीर्घकालिक कदम साबित होगा। यानी युद्धविराम की अवधि आगे बढ़ सकती है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के मानवीय सहायता मामलों के उप महासचिव मार्टिन ग्रिफिथ ने कहा है कि लड़ाई का सबसे बुरा दौर गुजर गया है। मानवीय सहायता क्षेत्र में दशकों तक काम करने का अनुभव रखने वाले ग्रिफिथ ने अपनी इस बात पर जोर डालते हुए कहा- ‘ऐसा मैं हलके अंदाज में नहीं कह रहा हूं।’
ऊपर हमने यरुशलम पोस्ट में छपे जिस आलेख का हवाला दिया है, उसमें युद्ध के मैदान पर इजराइल जीत का उल्लेख है। लेकिन यह दावा विवादास्पद है। किसी युद्ध में किसी देश की जीत या नाकामी को सैनिक कार्रवाई के घोषित उद्देश्य के पैमाने पर मापा जाता है। इस लड़ाई में इजराइल ने अपना जो मकसद घोषित किया, उसे हासिल करना असंभव था। और इसलिए ऐसा हो भी नहीं पाया है। यह मकसद हमास का खात्मा है।
लेकिन किसी संगठन को, जो एक मकसद के लिए लड़ रहा हो और किसी क्षेत्र में एक विचार के रूप स्थापित हो गया हो, उसका जड़-मूल से नाश करना असंभव होता है। अगर गजा के सभी लोगों की हत्या कर दी जाए, तब भी हमास के समर्थक, और स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना को अपना मकसद मानने वाले लोग दूसरे क्षेत्रों या यहां तक कि अन्य देशों में भी जीवित बने रहेंगे। साथ ही उसे इस मकसद के लिए कार्यकर्ता मिलते रहेंगे। इसलिए जब तक मकसद बाकी रहता है, इस तरह के संगठन जब-तब, जहां-तहां से पनपते रहते हैं।
फिलहाल, बात अगर हमास और फिलिस्तीन तक सीमित रखें और लड़ाई रुकने के पहले तक का लेखा-जोखा लें, तो यह देखना अहम होगा कि सात अक्टूबर के बाद से चले घटनाक्रम में लाभ-हानि की गणना किसके पक्ष में है। चूंकि इस दौर में पहला वार हमास ने किया, इसलिए पहले उसके नजरिए से इस गणना पर ध्यान देते है-
सात अक्टूबर को हमास ने भारी जोखिम उठाया। उसकी बहुत महंगी कीमत गजा और पश्चिमी किनारे की फिलिस्तीनी आबादी और यहां तक कि लेबनान स्थित फिलिस्तीन समर्थक समहों को चुकानी पड़ी है। उसके हमलों के बाद इजराइल ने बदले की जो बेलगाम कार्रवाई की, उसमें 13 हजार से अधिक लोग मारे गए। उनमें नौ हजार बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग हैं। मकानों और बुनियादी ढांचे को जो नुकसान हुआ, उसका आकलन अभी होना बाकी है। लेकिन यह कीमत चुका कर हमास निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रहा हैः
अब दूसरी तरफ इजराइल के नजरिए से देखें, तो उसे इस दौर में कोई लाभ हुआ, इसे ढूंढना कठिन है। जबकि उसे हुए नुकसान की सूची लंबी है। मसलन,
दरअसल, उपरोक्त परिणामों और हालात पर अनियंत्रण के बोध ने ही इजराइल में वह व्यग्रता और बेचैनी पैदा की, जिसके बीच प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार ने बिना संभव सैन्य लक्ष्य तय किए- विशुद्ध रूप से प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर गजा पर जवाबी हमले शुरू किए, जो वहां तो विनाशकारी साबित हुए, लेकिन जिन्होंने इजराइल और उसके समर्थक पश्चिमी देशों को दूरगामी क्षति पहुंचाई है।
युद्ध के स्थापित नियमों और मानवीय संवेदना को पूरी तरह ताक पर रख कर इजराइल ने बदले की भावना से बर्बर हमले किए, जिसे अमेरिका एवं उसके साथी देशों का पूरा समर्थन मिला। बाकी दुनिया ने आवाक होकर इस भयानक नजारे को देखा और फिर उसका विरोध एवं उस पर गुस्सा कई रूपों में व्यक्त हुआ। नतीजतन, दुनिया की निगाह में आम तौर पर पूरे पश्चिम- और विशेष रूप से अमेरिका और इजराइल का अख़लाक पूरी तरह चूक गया है।
चूंकि इजराइल और हमास एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं, इसलिए मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि उनमें एक को हुआ नुकसान दूसरे का लाभ है। इस नजरिए से ऊपर इजराइल को हुए जिन नुकसानों का हमने उल्लेख किया है, परोक्ष रूप से वे हमास के लिए फायदे का पहलू हैं। गौरतलब है कि संप्रभु फिलिस्तीन की स्थापना की लड़ाई 75 साल पुरानी हो चुकी है तथा यह अभी कई और वर्ष या दशकों तक चल सकती है, इसलिए अभी जो लाभ-हानि का गणित बना है, वह दीर्घकालिक महत्त्व का है।
यह बात खुद अमेरिकी शासक वर्ग के मुखपत्रों में स्वीकार की गई है कि इस पूरे प्रकरण में हमास लाभ की स्थिति में रहा है। इसकी वजह उसका अराजकीय (non state) स्वरूप है। ऐसी ही प्रमुख पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में छपे एक विश्लेषण (Hamas’s Asymmetric Advantage: What Does It Mean to Defeat a Terrorist Group?) में कहा गया है कि आधुनिक हथियारों और संचार तकनीक में महारत से हमास ने अपनी वैसी हैसियत बना ली है कि इजराइल के लिए उसे पराजित करना आसान नहीं रह गया है।
दरअसल, अब ये जानकारियां सामने आ रही हैं कि इजराइल ने सात अक्टूबर के हमलों के पहले व्यापक पूर्व तैयारी की थी। इनमें गजा में सुरंगों और बंकरों का बड़ा नेटवर्क बनाना भी शामिल है। कुछ रिपोर्टों/विश्लेषणों में दावा किया गया है कि इजराइल ने जब गजा में जमीनी हमले शुरू किए, तो उसे भारी नुकसान हुआ। उसके अनगिनत टैंक और बख्तरबंद वाहन हमास ने नष्ट कर दिए। अनगिनत इजराइली सैनिकों के हताहत होने का दावा भी किया है। कहा गया है कि यह भी युद्ध रोकने पर इजराइल के राजी होने का एक कारण बना। (Scott Ritter: Hamas is Winning the Battle for Gaza)
अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और चर्चित किताब The Hundred Years’ War on Palestine: A History of Settler-Colonialism and Resistance के लेखक रशीद इस्माइल खालिदी ने तो कहा है कि सात अक्टूबर के बाद जो कुछ हुआ है, वह फिलिस्तीन के खिलाफ चल रहे सौ साल के युद्ध में दिशा-परिवर्तन (paradigm shift) साबित हो सकता है। (A paradigm shift in the hundred years’ war on Palestine? – Mondoweiss)
ऐसी धारणाएं इस समझ के आधार पर बनी हैं कि फिलिस्तीनियों के पास खोने के लिए अपनी जान के अलावा और कुछ नहीं है। बाकी सब कुछ उनसे क्रमिक रूप से छीना जाता रहा है। गुजरे दौर में उनकी जान, इज्जत, आस्था सब निरंतर होने वाले आक्रमणों का शिकार रहे हैं। और यह सब भले रोजमर्रा के स्तर पर खुलेआम सामने हुआ हो, लेकिन बाकी दुनिया ने उसे ज्यादा तव्वजो नहीं दी है।
ऐसे में खतरनाक जोखिम उठाना भी फिलिस्तीनियों को ज्यादा महंगा नहीं महसूस होता। जबकि उस जोखिम से जो कुछ भी हासिल होगा, वह उन्हें महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ता है। बेशक, सात अक्टूबर को जो जोखिम हमास ने मोल लिया, उससे उसे और संप्रभु फिलिस्तीन की स्थापना के उद्देश्य को काफी कुछ हासिल हुआ है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)