गुजरात नरसंहार की बीसवीं बरसी को भूलना खतरनाक है

जिस समय ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं बीस साल पहले उन दिनों गुजरात धधक रहा था। ताजे इतिहास का सबसे भीषण नरसंहार। गुजरात में 2002 में हुयी सांप्रदायिक हिंसक बर्बरता की यह 20वीं बरसी है। इस बार पर इस बार कोई बयान नहीं आया, कहीं स्मृति सभा नहीं हुई। 28 फरवरी और 1 मार्च 2002 से शुरू हुयी भीषण हिंसा ; जिनमें बहे रक्त के ज्वार पर सवार होकर वे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे हैं; की याद तो खैर हुक्मरान क्यों ही करते, उन्होंने गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की एस-6 बोगी में जलकर मर गए उन 59 कारसेवकों को भी याद नहीं किया, जिनके लाशों को आधार बनाकर उन्होंने आजाद भारत के इस सबसे जघन्य नरसंहार को अंजाम दिया था।

27 फरवरी 2002 की सुबह मुजफ्फरपुर से अहमदाबाद लौट रही साबरमती एक्सप्रेस की एस-6 बोगी में सवार कुछ लोगों ने गोधरा के रेलवे प्लेटफार्म पर चाय नाश्ता बेच रहे हॉकर्स के साथ झगड़ा किया। ट्रेन के थोड़ा आगे बढ़ने और सिग्नल पर रुकने के साथ ही समीप की बस्ती के लोगों ने इस बोगी पर हमला कर दिया। बोगी में आग लगा दी जिसके नतीजे में उसमें सवार 59 यात्रियों की मृत्यु हो गयी थी। आग लगने की वजह विवादित रही। इसकी जांच के लिए बने जस्टिस यू सी बनर्जी की रिपोर्ट ने आग की वजह बोगी में रखे ज्वलनशील पदार्थ का आग पकड़ना बतायी। हालांकि बाद में इस आयोग की नियुक्ति के तरीके को सही न मानने के तकनीकी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इस आयोग को ही खत्म कर दिया था। बहरहाल करीब 11 वर्षों तक चली सुनवाई के बाद अंततः न्यायालय ने 31 लोगों को अपराधी माना और 11 को मृत्युदण्ड 20 को आजन्म कारावास की सजा सुनाई। बाद में ऊपरी अदालत ने मृत्युदंड को आजन्म कारावास में बदल दिया। इसी के साथ अदालत ने इस हादसे के पीछे किसी भी तरह की साजिश होने की संभावना को पूरी तरह से खारिज कर दिया।

27 फरवरी 2002 के गोधरा काण्ड के बाद जो हुआ वह असाधारण था। रेल बोगी के मृतकों के शवों को सार्वजनिक रूप से निकालकर उन्माद भड़काया गया और उसी के साथ सीधे राज्य के संरक्षण, पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारियों के मार्गदर्शन में गुजरात के ज्यादातर जिलों में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हत्यारी मुहिम शुरू कर दी गयी। बच्चों के साथ जघन्य अपराध, खुले आम सामूहिक बलात्कार, दसियों हजार घरों, दुकानों, ऑटो रिक्शा, जीप, हाथठेलों , गैरेज, मस्जिदों को ध्वस्त किया गया। आगजनी की गयी। कई जगह सप्ताह भर तो कुछ जगह महीनों तक चली इस उन्मादी हिंसा में सरकार द्वारा 2005 में राज्य सभा में दिए एक जवाब के मुताबिक़ कुल 1044 लोग मारे गए, 223 लापता हैं और 2500 से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए। दसियों हजार बेघर हुए जिनमें से अनेक अपनी पुरानी जगह कभी वापस नहीं लौट पाए। हालांकि अलग अलग समूहों द्वारा की गयी जांच के अनुसार मरने वालों की तादाद 2000 से कहीं ज्यादा थी। दंगा भड़काने, हिंसा का आह्वान करने, उसे बिना किसी रोकथाम के जारी रहने देने को लेकर सिर्फ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की आपराधिक लिप्तता ही सामने नहीं आयी; तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके गृहमंत्री अमित शाह पर भी आरोप लगे। हालांकि बाद में इन्हें खुद इनकी सरकार द्वारा गठित एसआईटी ने क्लीनचिट भी दे दी। यह क्लीन चिट और पूर्व सांसद एहसान जाफरी और उनकी गुलबर्ग सोसायटी के हत्याकांड के मामले में उनकी बेबा जकिया जाफरी की याचिका अभी भी सुप्रीम कोर्ट के सामने लंबित है।

बाकी अपराधियों के गुनाहों के मामले में भी न्याय या तो हुआ ही नहीं या आधा अधूरा हुआ। बाबू बजरंगी के साथ 28 वर्ष की सजा पाने वाली मोदी मंत्रिमंडल की मंत्री माया कोडनानी बाद में बरी कर दी गयीं। खुद सुप्रीम कोर्ट की एसआईटी ने सरदारपुरा, नरोदा ग्राम, चमनपुरा की गुलबर्ग सोसायटी, आणंद के ओढे गाँव, दीपाड़ा दरवाजा, बेस्ट बेकरी नाम से कुख्यात नरसंहारों और बिलकीस बानो कांड में कुछ लोग दोषी साबित हुए। उन्हें सजा सुनाई गयी। मगर बाकी हजारों मामले या तो तफ्तीश के दौरान या पुलिस की जानबूझकर की गयी कमजोर तैयारी के चलते अदालतों में दम तोड़ गए।

2002 के गुजरात के अस्थिपंजर लोकतंत्र के चारों स्तम्भों के ऊपर मंडरा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्यों आज तक इतने बर्बर, प्रायोजित नरसंहार के गुनहगार सूचीबद्ध नहीं हुए हैं ? क्यों बेइंतहा ज़ुल्म के शिकार हजारों भारतीयों के साथ इन्साफ नहीं हुआ है ? अब इन सब अपराधों पर पर्दा डालना है इसलिए जो सैकड़ों कई मामलों में तो हजारों वर्षों तक की याद दिलाते रहते हैं, वे 2002 के गुजरात और गोधरा की याद नहीं करना चाहते। उस वक़्त के गुजरात के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री आज देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बने हुए हैं। उनकी इस खामोशी की वजह सिर्फ पांच राज्यों में हो रहे चुनाव नहीं हैं। इस चुनिन्दा विस्मृति के पीछे उन घपलों, घोटालों, साजिशों, चालबाजियों, न्याय प्रबंधन की तिकड़मों की याद दिलाने से बचना है जिनके जरिये इन दंगों के असली मुजरिमों को बचाया गया था।

भूलने और याद करने वाली बातों को अलग अलग करने की यह कला हुक्मरानों के लिए फायदेमंद हो सकती है, क़ानून और इन्साफ पर आधारित सभ्य समाज की कामना करने वाले अवाम के लिए, राष्ट्र राज्य के लिए यह नुकसानदेह ही होती है। एक तो इसलिए कि इन दिनों जिस हिंदुत्व के ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज से भी ऊपर लहराने के लायक बनाने के लिए ध्वजस्तंभ तामीर किया जा रहा है उसकी चिनाई ईंट पत्थरों से नहीं 2002 में गुजरात में बिछाई गयी लाशों के ढेर से हुयी है। जिसकी बीसवीं बरसी है उस 2002 के गुजरात ने ही फासीवाद के भारतीय संस्करण के लिए ऐसी राह बनाई है जिसपर चलकर अब तक तिरस्कृत और बहिष्कृत सा रहा गिरोह इस देश के सत्ता शीर्ष तक जा पहुंचा है। दूसरे इसलिए कि ताजे इतिहास में घटी ऐसी बर्बरताओं – नेल्ली (1983), दिल्ली (1984), भागलपुर (1989) की अनदेखियों और विस्मृतियों का नतीजा गुजरात (2002) के रूप में सामने आया। इस गुजरात को सही तरह से एजेंडे पर न लेने की कीमत देश को कंधमाल (2008), कोकराझार (2012), मुजफ्फरनगर-शामली (2013) और अभी हाल में पूर्वी दिल्ली (2020) की इसी तरह की विभीषिकाओं के रूप में चुकानी पड़ी है। तीसरे इसलिए भी कि इस देश की आधी आबादी 25 वर्ष से कम और 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है। उस दौर की जो इस देश के राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक विमर्श में साम्प्रदायिकता के विष की सुनामी का दौर है। वह खतरनाक कालखण्ड है जब इतिहास को विकृत करके उसे एक ख़ास तरह के उन्माद को भड़काने वाले रसायन में डुबोया जा रहा है। ऐसे समय में नरसंहारों को भूलना सदियों को अभिशप्त कर सकता है।

ठीक यही वजह है कि देश की एकता, सौहार्द्र और क़ानून के राज का महत्त्व समझने वाली जनता और उसके संगठन जानते हैं कि गुजरात को याद रखा जाना, उसके सभी अपराधियों को सजा देने की माँग उठाने के साथ उस कुत्सित विचार के खिलाफ नयी और तेज मुहिम छेड़ी जाना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी आज है।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के सचिव हैं।)

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