नगालैंड कांड: सरकार को समझना होगा कि इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं

हिन्दी के तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवियों में से एक सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, जिनकी कविताओं को उनकी असाधारण साधारणता के लिए जाना जाता है और जो कवि के तौर पर देश के जनसाधारण से इस हद तक सम्बद्ध थे कि उनके निकट इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं था, न ईश्वर, न ज्ञान और न चुनाव, मनुष्यता के हित में कागज पर लिखी कोई भी इबारत फाड़ी जा सकती थी और जमीन की सात परतों के भीतर गाड़ी जा सकती थी, वे अरसा पहले अपनी एक कविता में लिख गये हैं कि जो विवेक खड़ा हो लाशों को टेक, वह अंधा है और जो शासन चल रहा हो बंदूक की नली से हत्यारों का धंधा है। इस ‘हत्यारों के धंधे’ के प्रति वे इतने असहिष्णु थे कि कहा करते थे : यदि तुम यह नहीं मानते/तो मुझे/अब एक क्षण भी/तुम्हें नहीं सहना है।/याद रखो/एक बच्चे की हत्या/एक औरत की मौत/एक आदमी का/गोलियों से चिथड़ा तन/किसी शासन का ही नहीं/सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

लेकिन आज जब वे नहीं हैं और सत्ताओं को निवेशकों को नागरिकों की छाती पर मूंग दलते देखने में मजा आने लगा है, कलमकारों व कलाकारों में से अनेक ने ‘स्वेच्छया’ निवेशकों व सत्ताओं की चाकरी स्वीकार कर ली है और जिन्होंने नहीं स्वीकार की है, उनकी जुबानें सिल देने के नाना जतन किये जा रहे हैं, कहा नहीं जा सकता कि नगालैंड में म्यांमार सीमा के निकट स्थित मोन जिले के तिरु व ओटिंग गांवों के बीच दमनकारी कानूनन अफस्पा के दिये विशेषाधिकारों से लैस सुरक्षा बलों द्वारा 14 निर्दोष नागरिकों को विद्रोही समझकर मार गिराने के खिलाफ सत्ता को आईना दिखाने वाली इस तरह की कोई बेलौस टिप्पणी आयेगी या उन्हें मार गिराये जाने को लेकर जो गुस्सा भड़का है, उसे कोई सार्थक दिशा मिल पायेगी। 

दो कारणों से ऐसा कुछ होने की ज्यादा उम्मीद नहीं है। पहला यह कि मामला देश की मुख्य भूमि का नहीं है और मुख्य भूमि की मानसिकता ऐसी है कि उसकी परिधि से बाहर कुछ भी होता रहे, उसे तब तक फर्क नहीं पड़ता, जब तक बला उसके सिर से टली रहे। दूसरा कारण यह कि सर्वेश्वर की ही एक कविता के शब्द उधार लेकर कहें तो मारे गये उक्त निर्दोषों में हर किसी के लिए कहा जा सकता है कि जब सब बोलते थे/वह चुप रहता था/जब सब चलते थे/वह पीछे हो जाता था/जब सब खाने पर टूटते थे/वह अलग बैठा टूँगता रहता था/जब सब निढाल हो सो जाते थे/वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था/लेकिन जब गोली चली/तब सबसे पहले/वही मारा गया। 

सर्वेश्वर के ही शब्दों में उन सबका ‘कुसूर’ यह था कि गोली खाकर उनमें से किसी के भी मुँह से ’राम’ या ‘माओ’ नहीं निकला, ’आलू’ निकला और उनके पेट खाली थे। 

फिर भी उनके जानें गंवाने से जो गुस्सा भड़का है और जिसका कुफल सुरक्षा बलों पर हमले के रूप में देखने में आया है, उसकी तीव्रता व स्वाभाविकता का इससे अनुमान किया जा सकता है कि ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स ऑर्गनाइजेशन (ईएनपीओ) ने इस घटना की निन्दा करते हुए उसके विरोध में क्षेत्र के छह जनजातीय समुदायों से राज्य के सबसे बड़े पर्यटन कार्यक्रम ‘हॉर्नबिल’ महोत्सव से भागीदारी वापस लेने का आग्रह किया है। उसने छह जनजातियों से राज्य की राजधानी के पास किसामा में हॉर्नबिल महोत्सव स्थल ‘नगा हेरिटेज विलेज’ में अपने-अपने ‘मोरुंग’ में घटना के खिलाफ काले झंडे लगाने को भी कहा है। 

अलबत्ता, उसने संयम बरतते हुए यह भी कहा है कि यह आदेश/कदम राज्य सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि सुरक्षा बलों के खिलाफ नाराजगी जताने और छह जनजातीय समुदायों के प्रति एकजुटता दिखाने के लिए है। लेकिन इस बात  से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस हत्याकांड के बाद न सिर्फ नगालैंड बल्कि मणिपुर और पूर्वोत्तर के कई अन्य दूसरे इलाकों से अफस्पा हटाने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ेगी। लोगों को इसकी भी याद आयेगी कि इरोम शर्मिला  इस मांग को लेकर दुनिया का सबसे लम्बा अनशन कर चुकी हैं।

ऐसे में गनीमत की बात महज इतनी है कि अतीत के इस तरह के कई मामलों की तरह इसको लेकर सरकार की ओर यह नहीं कहा जा रहा कि उग्रवाद या आतंकवाद प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बल कठिन परिस्थितियों में जान हथेली पर रखकर अपने आपरेशन को अंजाम देते हैं तो इस तरह के वाकये हो ही जाते हैं और वहां मानवाधिकारों के हनन के मामले उठाते हुए ‘याद’ रखना चाहिए कि सुरक्षा बलों के जवानों के भी कुछ मानवाधिकार होते हैं। इसके उलट कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने, जो कुछ हुआ है, उसे हृदयविदारक यानी दिल दुखाने वाला बताकर भारत सरकार से सही-सही जवाब की अपेक्षा की और पूछा है कि नगालैंड में सुरक्षा बलों के उग्रवाद विरोधी अभियान में न आम लोग सुरक्षित रह गये हैं, न सुरक्षा कर्मी तो केन्द्रीय गृहमंत्रालय आखिर क्या कर रहा है?

विपक्ष द्वारा मामले को गंभीरता से उठाये जाने का ही असर है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस सिलसिले में जो कुछ और जैसे भी हुआ, उसको लेकर लोकसभा में खेद जताया और जानें गंवाने वालों के परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त की है। 

सेना द्वारा भी उक्त कांड और उसके बाद हुई घटनाओं को ‘अत्यंत खेदजनक’ माना जा रहा तथा उनकी उच्चतम स्तर पर जांच की जा रही है। साथ ही कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी के आदेश दिये गये हैं। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने एसआईटी (विशेष जांच दल) से उच्चस्तरीय जांच कराये जाने का वादा और समाज के सभी वर्गों से शांति बनाये रखने की अपील की है। 

फिर भी यह सवाल अपनी जगह है कि क्या इतना ही काफी है और क्या बड़ी से बड़ी जांच और मुआवजे की बड़ी से बड़ी घोषणा से भी उक्त चौदह निर्दोषों की जानों के नुकसान की क्षति पूर्ति की जा सकती है? अगर नहीं तो किसी भी उग्रवाद विरोधी अभियान के वक्त, उसे पुलिस चला रही हो, अर्धसैनिक बल या सैनिक, यह मानकर कि इस दुनिया में आदमी की जान से बढ़कर कुछ नहीं है,  ऐसी ‘अत्यंत खेदजनक’ घटनाओं को रोकने के लिए पर्याप्त एहतियात क्यों नहीं बरते जाते? 

बरते जाते तो जैसा कि इस मामले में हुआ, यह क्योंकर संभव होता कि कुछ दिहाड़ी मजदूरों को, जो शाम पिकअप वैन के जरिये एक कोयला खदान स्थित अपने कार्यस्थल से घर लौट रहे हों, प्रतिबंधित संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड-के (एनएससीएन-के) के युंग ओंग धड़े के उग्रवादी समझ लिया जाये और उनके वाहन पर गोलीबारी कर दी जाये? क्या हमारे जैसे लोकतंत्र में किसी भी बल को इस तरह गलत पहचान के आधार पर हत्याओं की इजाजत दी जा सकती है?

ठीक है कि मोन म्यांमार की सीमा के पास स्थित है और म्यांमार से एनएससीएन का युंग ओंग धड़ा अपनी उग्रवादी गतिविधियां चलाता है और सेना की 3 कोर के मुख्यालय का दावा है कि मोन जिले के तिरु में उग्रवादियों की संभावित गतिविधियों की विश्वसनीय खुफिया जानकारी के आधार पर इलाके में विशेष अभियान चलाए जाने की योजना बनाई गई थी, लेकिन अब चौदह निर्दोषों की जानें जाने के बाद यह सिद्ध करने के लिए और क्या चाहिए  कि योजना में खोट थे, जिसका खामियाजा निर्दोषों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। किसी न किसी स्तर पर तो इसकी जिम्मेदारी निर्धारित ही करनी पड़ेगी, ताकि दोषियों पर कानून के अनुसार उचित कार्रवाई की जा सके। ऐसा किये बिना नागरिकों में विश्वास बहाली बहुत कठिन होगी।

बहरहाल, जैसे भी संभव हो, ऐसे उपाय किये जाने बहुत जरूरी हैं कि ऐसी वारदातों की किसी भी स्थिति में पुनरावृत्ति न हो। क्योंकि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना यह भी लिख गये हैं, देश सिर्फ कागज पर बना नक्शा नहीं होता। वह साझा संवेदनाओं और सरोकारों से बनता है।

(कृष्ण प्रताप सिंह फैजाबाद से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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