ऐसा लगा कि प्रधानमंत्री का नहीं बल्कि संबित पात्रा का भाषण हो रहा है!

एक राजनेता के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘ख्याति’ भले ही मजमा जुटाऊ एक कामयाब भाषणबाज के तौर पर हो, लेकिन उन पर यह ‘आरोप’ कतई नहीं लग सकता है कि वे एक शालीन और गंभीर वक्ता हैं! चुनावी रैली हो या संसद, लालकिले की प्राचीर हो या कोई सरकारी कार्यक्रम या फिर विदेशी धरती, मोदी की भाषण शैली आमतौर पर एक जैसी रहती है- वही भाषा, वही अहंकारयुक्त हाव-भाव, राजनीतिक विरोधियों पर वही छिछले कटाक्ष, वही स्तरहीन मुहावरे और वही आत्म-प्रशंसा। आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर गलत बयानी, तथ्यों की मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़, अपनी नाकामियों को भी मनगढ़ंत आंकड़ों के जरिए कामयाबी के तौर पर पेश करने की हास्यास्पद कोशिश, वही सांप्रदायिक तल्खी और नफरत से भरे जुमलों का भी मोदी के भाषणों में भरपूर शुमार रहता है।

इस सिलसिले में बतौर प्रधानमंत्री उनके पिछले साढ़े छह साल के और उससे पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दिए गए उनके ज्यादातर भाषणों को देखा जा सकता है। सोमवार को संसद में दिया गया उनका भाषण भी ऐसा ही रहा, जिसमें न तो न्यूनतम संसदीय मर्यादा और शालीनता का समावेश था और न ही प्रधानमंत्री पद की गरिमा और लोकतांत्रिक परंपरा का।

प्रधानमंत्री को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस का जवाब देना था, लेकिन अपने स्वभाव के अनुरूप उन्होंने इस गंभीर मौके का इस्तेमाल भी चुनावी रैली जैसा भाषण देने के लिए ही किया। स्थापित संसदीय परंपरा यह है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का समापन करते हुए प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के अभिभाषण में उल्लेखित मुद्दों पर अपनी सरकार का नजरिया पेश करते हैं। इसी क्रम में वे बहस के दौरान विपक्ष के आरोपों और आलोचना का भी जवाब देते हैं, लेकिन मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री अपने भाषण में ऐसा कुछ नहीं किया।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान विपक्ष ने पिछले ढाई महीने से जारी किसानों के आंदोलन, उनकी मांगों, सरकार की ओर से आंदोलन को दबाने और बदनाम करने के लिए की जा रही दमनात्मक कार्रवाइयों, आंदोलन के दौरान हुई किसानों की मौतों, अरुणाचल प्रदेश में चीन की घुसपैठ, अर्थव्यवस्था की बदहाली, महंगाई, बेरोजगारी, बालाकोट एयर स्ट्राइक जैसी संवेदनशील जानकारी एक टीवी चैनल के संपादक को मिलने जैसे कई महत्वपूर्ण मसलों पर सवाल किए थे, लेकिन प्रधानमंत्री इन सवालों पर बोलने से साफ बच निकले।

देश में चल रहे ऐतिहासिक किसान आंदोलन दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है। किसान संगठनों की केंद्रीय कृषि मंत्री के साथ दस दौर की वार्ताओं के बेनतीजा रहने के बाद सभी की निगाहें प्रधानमंत्री मोदी पर थीं। उम्मीद थी कि लगभग ढाई महीने से चल रहे किसान आंदोलन के सामने प्रधानमंत्री संसद में कुछ झुकते हुए दिखाई देंगे और आंदोलन कर रहे किसानों के हक में कुछ ऐसा कहेंगे, जिससे सरकार और किसानों के रिश्तों में जमी बर्फ पिघलेगी लेकिन हुआ इसका उलटा। मोदी का भाषण पूरी तरह आंदोलन के प्रति हिकारत और छिछले कटाक्षों से भरा रहा। लगा ही नहीं कि प्रधानमंत्री बोल रहे हैं। उनका पूरा भाषण उनकी पार्टी के सर्वाधिक मसखरे प्रवक्ता संबित पात्रा जैसा रहा।

दरअसल मोदी सरकार और भाजपा का यह जाना-पहचाना पैटर्न है कि जब भी सरकार से असहमति जताने वाली कोई आवाज उठती है तो सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता उसे देश-विरोधी करार देते हैं। एक साल पहले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टार (एनआरसी) के खिलाफ हुए देशव्यापी आंदोलन को भी देश-विरोधी ताकतों का आंदोलन करार दिया गया था और किसान आंदोलन के साथ भी ऐसा ही हो रहा है।

केंद्र सरकार के कई मंत्री भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और भाजपा के नेता शुरू दिन से किसान आंदोलन को खालिस्तानी, माओवादी और पाकिस्तान प्रेरित बता रहे हैं, हालांकि मोदी ने अपने भाषण में किसानों और उनके आंदोलन के प्रति इन शब्दों का जिक्र तो नहीं किया, लेकिन इस आंदोलन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिल रहे समर्थन को लेकर उनके भाषण में बौखलाहट साफ दिखाई दी। मोदी ने कहा, ”देश का विकास हो रहा है और हम एफडीआई की बात कर रहे हैं, लेकिन देश में एक नए किस्म की एफडीआई आ रही है- फॉरन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी। हमें देश को इस एफडीआई से बचाना है।’’

अपने राजनीतिक विरोधियों को अक्सर टुकडे-टुकडे गैंग, खान मार्केट गैंग जैसे विशेषणों से नवाजने वाले मोदी ने इस बार अपने भाषण में आंदोलनकारियों और उन्हें समर्थन देने वालों का मजाक उड़ाते हुए उन्हें आंदोलनजीवी करार दिया। उन्होंने कहा, ”श्रमजीवी और बुद्धिजीवी शब्द तो हम अक्सर सुनते ही रहते हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से देश में एक नई जमात पैदा हुई है और इसका नाम है- आंदोलनजीवी। यह जमात वकीलों, छात्रों, मजदूरों के आंदोलनों यानी हर जगह नजर आती है। ये आंदोलनजीवी परजीवी होते हैं।’’

प्रधानमंत्री के इस जुमले पर सदन में मौजूद उनके मंत्रियों और सांसदों ने भले ही मेजें पीट कर उनकी हौसला अफजाई की हो और मीडिया ने भी मुदित भाव से कूल्हे मटकाए हों, मगर आंदोलनकारियों के प्रति उनकी हिकारत भरी टिप्पणी से यह तो जाहिर हो ही गया है कि कॉरपोरेट प्रायोजित एक फर्जी आंदोलन की लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की राजनीतिक समझ बेहद छिछली है और महात्मा गांधी की अगुवाई में देश के स्वाधीनता संग्राम में शिरकत करने वाले असंख्य सेनानियों के प्रति भी उनके मन में कोई सम्मान नहीं है।

दरअसल आंदोलनकारियों के प्रति मोदी की यह हिकारत उनकी उस राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा का परिणाम है जो उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्कार शाला में मिली है। यह जगजाहिर हकीकत है कि आरएसएस ने हमेशा ही आम जनता से जुड़ी आंदोलनात्मक गतिविधियों से अपने को दूर रखा है। फिर वह चाहे आजादी का आंदोलन हो या आजादी के बाद आपातकाल विरोधी संघर्ष।

हालांकि आपातकाल के दौरान आरएसएस और जनसंघ (भाजपा) के कई नेता-कार्यकर्ता मीसा के तहत गिरफ्तार किए गए थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर माफीनामा भरकर छूट गए थे। खुद आरएसएस के तत्कालीन मुखिया मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बाला साहब देवरस ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक-एक करके तीन पत्र लिखकर अपने संगठन पर लगे प्रतिबंध को हटाने का अनुरोध करते हुए आपातकाल का समर्थन करने की पेशकश की थी, लेकिन इंदिरा गांधी ने यह पेशकश ठुकरा दी थी।

बाद में भाजपा ने भले ही एक विपक्षी राजनीतिक दल के तौर पर कई बार रस्मी आंदोलन किए, लेकिन नरेंद्र मोदी सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी हमेशा संघ के प्रचारक की भूमिका में ही रहे। उन्होंने कभी किसी आंदोलन में शिरकत नहीं की। हालांकि राजनीतिक विमर्श में आपातकाल मोदी का प्रिय विषय रहता है, इसलिए वे आपातकाल को अक्सर याद करते रहते हैं- देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी।

राज्यसभा में भी उन्होंने अपने भाषण में आपातकाल बहुत शिद्दत से याद किया। यह और बात है कि मोदी आपातकाल के दौरान एक दिन के लिए भी जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं ले जाए गए थे। वैसे भी जब आपातकाल लगा था, तब गुजरात में कांग्रेस विरोधी जनता मोर्चा की सरकार थी, जिसके मुख्यमंत्री बाबूभाई पटेल थे। इस वजह से गुजरात में विपक्षी कार्यकर्ताओं की वैसी गिरफ्तारियां नहीं हुई थीं, जैसी देश के अन्य राज्यों में हुई थीं।

जेल के बाहर भूमिगत रहकर मोदी ने आपातकाल विरोधी संघर्ष में कोई हिस्सेदारी की हो, इसकी भी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती। गुजरात के पुलिस, जेल और खुफिया विभाग से संबंधित तत्कालीन सरकारी अभिलेखों में भी मोदी के नाम का कहीं उल्लेख नहीं आता, जबकि उस दौरान भूमिगत रहे जार्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गजों के अलावा समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम और द हिंदू अखबार के तत्कालीन प्रबंध संपादक सीजीके रेड्डी जैसे कम मशहूर लोगों की गतिविधियां भी जगजाहिर हो चुकी हैं।

आपातकाल लागू होने से पहले गुजरात में छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार से शुरू हुए जेपी आंदोलन के संदर्भ में भी मोदी के समकालीन या उनसे वरिष्ठ रहे रामविलास पासवान, शरद यादव, शिवानंद तिवारी, लालू प्रसाद, अरुण जेटली, मोहन सिंह, चंचल, राजकुमार जैन, अख्तर हुसैन, नीतीश कुमार, सुशील मोदी, मुख्तार अनीस, मोहन प्रकाश, लालमुनि चौबे, रामबहादुर राय और गुजरात के ही प्रकाश बह्मभट्ट, हरिन पाठक, नलिन भट्ट आदि नेताओं के नाम चर्चा में रहते हैं, लेकिन इनमें मोदी का नाम कहीं नहीं आता।

कहा जा सकता है कि मोदी संघ और जनसंघ के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में आपातकाल के एक सामान्य दर्शक रहे हैं, हालांकि वर्ष 2019 में प्रदर्शित होकर फ्लॉप रही उनकी बॉयोपिक ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ में जरूर उन्हें आपातकाल के भूमिगत महानायक के तौर पर पेश करने की फूहड़ और हास्यास्पद कोशिश की गई थी।

एक राजनीतिक कार्यकर्ता होते हुए भी आपातकाल से अछूते रहने के बावजूद अगर मोदी मौके-बेमौके आपातकाल को चीख-चीखकर याद करते हुए कांग्रेस को कोसते हैं, तो इसकी वजह उनका अपना यह ‘आपातकालीन’ अपराध बोध ही है कि वे आपातकाल के दौर में कोई सक्रिय भूमिका निभाते हुए जेल क्यों नहीं जा सके! आपातकाल के नाम पर उनकी चीख-चिल्लाहट को उनकी प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी नाकामियों को छुपाने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि मोदी कांग्रेस को कोसने के लिए गाहे-बगाहे आपातकाल का जिक्र करके अपने उन कार्यों पर नैतिकता का पर्दा डालना चाहते हैं, जिनकी तुलना आपातकालीन कारनामों से की जाती है।

सब जानते हैं कि पिछले छह वर्षों के दौरान देश में न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सतर्कता आयोग, सूचना आयोग, रिजर्व बैंक, प्रवर्तन निदेशालय आदि संस्थाओं की हालत सरकार के रसोईघर जैसी होकर रह गई है। वहां वही पकता है जो प्रधानमंत्री या उनकी सरकार चाहती है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह तरह जन सरोकारों से कट कर सरकार का ढिंढोरची बना हुआ है। उसका काम महज सरकार के हर गलत काम का बचाव करना, उन कामों का विरोध करने वालों को तरह-तरह से बदनाम करना और नियमित रूप से सांप्रदायिक नफरत का माहौल बनाना हो गया है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के संवैधानिक प्रावधान का सहारा लेकर लोकतंत्र और संविधान का गला घोंटा था, जबकि वही काम नरेंद्र मोदी औपचारिक रूप से आपातकाल लागू किए बगैर ही कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।

प्रधानमंत्री मोदी ने किसान आंदोलन और उसे समर्थन दे रहे लोगों से सख्ती से निबटने का संकेत देते हुए कहा, ये लोग आंदोलन के बगैर जी ही नहीं सकते। हमें ऐसे लोगों की पहचान करनी होगी और देश को उनसे बचाना होगा।

चूंकि तथ्यों को लेकर मोदी जरा भी आग्रही नहीं रहते हैं, सो कुछ भी बोल जाते है। यहां भी ऐसा करने से नहीं बचे। अपने भाषण के दौरान कांग्रेस को लोकतंत्र का दुश्मन बताने के चक्कर में प्रधानमंत्री अपने बहुचर्चित हास्यास्पद इतिहास बोध का प्रदर्शन करने से खुद को रोक नहीं पाए। कांग्रेस पर प्रहार करने की ललक उन पर इतनी हावी रही कि वे परोक्ष रूप से ब्रिटिश हुकूमत, मुगलिया सल्तनत और अन्य तमाम राजाओं, बादशाहों, नवाबों के दौर को भी लोकतांत्रिक शासन बता बैठे।

उन्होंने कहा, ”जब कोई यह कहता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो यह सुनकर हम गर्व करने लगते हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि भारत दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है। हमारे देश का इतिहास सदियों पुराना है और हमारे यहां ढाई हजार साल पहले बुद्ध के समय से ही लोकतंत्र चला आ रहा है। लोकतंत्र हमारे देश की संस्कृति, परंपरा और हमारी रगों में है।’’

आजादी से पहले के दौर को भी लोकतांत्रिक बताने वाली उनकी इस अद्भूत जानकारी पर यह पूछना लाजिमी हो जाता है कि स्वाधीनता संग्राम से अलग रहने की वजह से आरएसएस के संस्थापकों और हिंदू महासभा के नेताओं को गिरफ्तार न करने की अंग्रेज हुकूमत ने जो अनुकंपा की थी, क्या मोदी उसे ही लोकतंत्र मानते हैं? सवाल यह भी बनता है कि चोल, शक, हूण, तुर्क, तातार, अशोक, मौर्य, गुप्त, शिवाजी, बाबर, हुमायूं, शेरशाह सूरी, औरंगजेब, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब, अंग्रेज आदि क्या किसी चुनाव के जरिए हिंदुस्तान के शासक बने थे?

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री का यह भाषण भी एक बेहद घटिया भाषण के रूप में लंबे समय तक याद किया जाएगा, इसलिए नहीं कि उन्होंने विपक्ष पर तीखे हमले किए, बल्कि याद इसलिए किया जाएगा कि उन्होंने अपनी जायज मांगों के लिए संघर्ष कर रहे किसानों और उन्हें समर्थन दे रहे लोगों को परोक्ष रूप से देश विरोधी, आंदोलनजीवी और परजीवी कह कर अपने अहंकारी और तानाशाही मिजाज का परिचय दिया है।

कितना अच्छा होता कि नरेंद्र मोदी भाषा और संवाद के मामले में भी उतने ही संजीदा और नफासत पसंद या सुरुचिपूर्ण होते, जितने वे पहनने-ओढ़ने और सजने-संवरने के मामले में हैं। एक देश अपने प्रधानमंत्री से इतनी सामान्य और जायज अपेक्षा तो रख ही सकता है। उनका बाकी अंदाज-ए-हुकूमत चाहे जैसा भी हो।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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