अयोध्या बनाम अनइंप्ल्वायमेंट का एजेंडा

मामला अयोध्या बनाम अनइंप्ल्वायमेंट का है। यानि मंदिर बनाम बेरोजगारी। दस साल के आखिर में जब केंद्र की मोदी सरकार को देश में रोजगार, महंगाई और स्वास्थ्य से जुड़ी अपनी उपलब्धियों पर जनता को जवाब देना था तब उसने देश के सामने मंदिर के मुद्दे को लाकर खड़ा कर दिया है। दो करोड़ रोजगार के वादे के साथ सत्ता में आयी मोदी सरकार अगर अपने वादे को पूरा करती तो आज दस सालों बाद देश के हर घर और परिवार से एक व्यक्ति रोजगारशुदा होता। लेकिन मोदी जी की नीतियों ने समय का पहिया उल्टा घुमा दिया। नतीजा यह है कि बेरोजगारी देश में 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ रही है। लिहाजा मोदी जी हर घर को रोजगार देने की जगह अब हर घर अक्षत भेज रहे हैं। और इस तरह से कह रहे हैं कि बेरोजगारी भूल जाओ, महंगाई भूल जाओ, बच्चों की पढ़ाई भूल जाओ, परिजनों की बीमारी भूल जाओ और मंदिर के नाम पर मुझे वोट दो।

किसी लोकतांत्रिक देश में किसी सरकार को इस तरह से मंदिर बनवाते और फिर उसमें पूरे देश को शामिल करवाते आपने नहीं देखा होगा।

यह दुनिया की शायद पहली सरकार होगी जो पूरे देश को एक मंदिर के निर्माण के काम में लगा रही है और फिर उसके नाम पर वोट मांग रही है। यह सिलसिला आज से नहीं चल रहा है। इसको 35 साल होने को आए हैं। 1986 में पहली बार मंदिर का ताला खुला था। और फिर आडवाणी के राम-रथ से जो सिलसिला शुरू हुआ तो बीजेपी इसी के सहारे देश की सत्ता पर काबिज हो गयी। और अब जब सत्ता में है तो भी उसे मंदिर के नाम पर ही वोट चाहिए। और अयोध्या से निपटने के बाद फिर ज्ञानवापी और मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान का एजेंडा उसकी पाइपलाइन में है। और इस तरह से अगले 2047 तक उसने अपना राजनीतिक एजेंडा जो राजनीतिक कम धार्मिक ज्यादा है, को तैयार कर लिया है।

दरअसल यहां कोई मंदिर नहीं बनाया जा रहा है बल्कि इसके जरिये लोकतंत्र को खत्म कर ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना की जा रही है। इस सिलसिले के आगे बढ़ने के साथ ही आने वाले दिनों में सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर संघ के नेतृत्व में पंडों, पुजारियों, पुरोहितों और शंकराचार्यों का कब्जा हो जाएगा। और फिर देश और राजनीतिक व्यवस्था में संघ का सिक्का चलेगा। और इस तरह से मंदिर की स्थापना के जरिये लोकतंत्र की कब्र खोदने का रास्ता साफ किया जा रहा है। क्योंकि दुनिया का इतिहास बताता है कि धार्मिक संस्थाओं के मजबूत होने से लोकतंत्र कमजोर होता है। याद करिए पश्चिमी देशों का इतिहास और फ्रांस की क्रांति। चर्च और स्टेट के बीच लड़ाई थी। उसमें इस बात को लेकर संघर्ष था कि देश में चर्च की सत्ता चलेगी या फिर राज्य यानि स्टेट की? आस्था और अंधविश्वास का राज होगा या फिर विज्ञान और विवेक से समाज चलेगा? नागरिक पादरी के प्रति जवाबदेह होंगे या फिर राज्य नागरिक के प्रति? 

और फिर फ्रांस की क्रांति ने नागरिक को केंद्र में रखकर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांत का जो सूत्रपात किया वह पूरी दुनिया में लोकतंत्र के लिए आदर्श बन गया। यह बात अलग है कि पूंजीवादी व्यवस्था में एक हद तक नागरिकों के स्वतंत्रता की गारंटी की गयी लेकिन समानता और बंधुत्व के मोर्चे पर वह बहुत आगे नहीं बढ़ सकी। लेकिन इस पूरी कवायद में दो चीजें बिल्कुल साफ कर दी गयीं कि चर्च का स्टेट के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। और अगर कहीं दोनों के बीच अंतरविरोध पैदा होता है तो उसमें स्टेट की भूमिका प्रभावी होगी। और इस कड़ी में आस्था की जगह विज्ञान को तरजीह दी गयी। आस्था को केवल चर्चों और लोगों के व्यक्तिगत जीवन तक सीमित कर दिया गया। लेकिन इसके साथ ही राज्य को यह जिम्मेदारी दी गयी कि वह देश और समाज में वैज्ञानिक सोच और तार्किक पद्धति को आगे बढ़ाने के लिए अभियान संचालित करे। आस्था और अंधविश्वास के समूल नाश के लिए वह हर तरह का प्रयत्न करे। यानि की चर्च के पूरे वजूद को ही खत्म करने का उसके सामने लक्ष्य रखा गया था। 

लेकिन भारत में शायद अब इतिहास के पहिए को पीछे खींचा जा रहा है। यहां लोकतंत्र की स्थापना तो हुई और एक हद तक धर्मनिरपेक्ष राज्य की प्रैक्टिस भी हुई। हालांकि उसमें तमाम खामियां थीं। लेकिन वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की कमी कहिए या फिर आस्था और अंधविश्वास की ताकतों की मज़बूती धर्म राज्य पर भारी पड़ता दिख रहा है। एक फासीवादी सत्ता के रूप में आगे बढ़ते हुए वह राज्य के साथ गठजोड़ कर पूरे समाज पर अपना वर्चस्व कायम करने की ओर आगे बढ़ गया है। 

सामान्य मंदिर होता तो भला किसी को वहां जाने में क्या परहेज हो सकता था। लेकिन यह मंदिर नहीं है। धर्म के नाम पर यह एक राजनीतिक आयोजन है। और इसकी स्थापना के जरिये देश और दुनिया को एक विशेष संदेश दिया जा रहा है। मेहमानों की जो सूची बनायी जा रही है उसके पीछे कोई धार्मिक या फिर आध्यात्मिक मकसद नहीं बल्कि शुद्ध रूप से राजनीतिक उद्देश्य है। और वैसे भी यह दूसरे के धार्मिक ढांचे को जमींदोज करने के बाद उसकी जमीन छीन कर जबरन उस पर बनाया गया है। यह सुप्रीम कोर्ट के न्याय नहीं बल्कि उसकी पंचायती का नतीजा है। घृणा और नफरत की पैदाइश यह प्रतीक समाज विद्वेष फैलाएगा। प्रेम और भाईचारा नहीं। इसको देखने पर बहुमत के अल्पमत पर वर्चस्व की झलक मिलती है। सत्ता से लेकर संघ तक चलने वाली तैयारी बताती है कि यह मंदिर नहीं बल्कि हिंदू राष्ट्र के निर्माण का प्रयोजन है। इसमें अल्पसंख्यकों को जबरन शामिल कर या फिर उनको चुप कराकर उन्हें दोयम दर्जे के होने का एहसास दिलाया जा रहा है। और हिंदुओं में भी जीत का अहंकार पैदा करना इस पूरी कवायद का लक्ष्य है।

लेकिन हिंदुओं के लिए और खास कर हिंदू समाज के वंचित हिस्सों के लिए भी यह खास संकेत है। इसके जरिये एक बार फिर से इसके जरिये ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना करने की कोशिश की जा रही है। जिसमें पुरोहिती और पंडागिरी सबसे ऊपर होगी। जातीय श्रेणियों में बंटा समाज और ज्यादा विभाजन का शिकार होगा। इस तरह से बराबरी और समानता के लोकतांत्रिक मूल्यों को पूरी तरह से तिलांजलि देने की व्यवस्था की जा रही है। सामाजिक न्याय और आरक्षण के जरिये हमने पिछले 75 सालों में जो कुछ भी हासिल किया था उस पर पानी फेरने की यह खुली साजिश है। 

आपने इस पूरे आयोजन में राष्ट्रपति की कोई भूमिका देखी? क्या आपने सोचा ऐसा क्यों हो रहा है? नहीं समझ रहे हैं तो मैं बताता हूं। क्योंकि वो आदिवासी समुदाय से आती हैं इसलिए उनकी इस पूरे धार्मिक आयोजन में संघ-बीजेपी को कोई भूमिका नहीं दिखती है। इससे समझा जा सकता है कि देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़े हिस्सों का इस कथित नई धार्मिक व्यवस्था में क्या स्थान है? 

अगर कोई राष्ट्रपति होकर भी पुरोहितों के समकक्ष नहीं बैठ सकता है तो फिर उस देश में आम नागरिकों की क्या हैसियत होगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। और अगर संयोग से वह दलित और आदिवासी हो गया तो फिर तो हाशिये से आगे बढ़ने के बारे में तो वह सोच ही नहीं सकता है। संसद के उद्घाटन में भी राष्ट्रपति के साथ यही किया गया था। इतने बड़े आयोजन में देश के सर्वोच्च पद पर बैठे शख्स को पूछा तक नहीं गया। तो संघ-बीजेपी के नये धार्मिक लोकतंत्र में राष्ट्रपति और नागरिकों की यही हैसियत होगी। अपने आखिरी रूप में यह लोकतंत्र नहीं बल्कि शुद्ध रूप से एक ब्राह्मणवादी व्यवस्था होगी। जिसको अयोध्या के जरिये फिर से स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।   

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।)

महेंद्र मिश्र

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