सिलेंडर नहीं, सरकार ने हाथी दे दिया जिसे पालना है मुश्किल!

ग्रामीण इलाकों की दलित बहुजन महिलाओं का अस्तित्व ईंधन का पर्याय रहा है। आज 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी उस स्थिति में बहुत बदलाव नज़र नहीं आता है। आज भी सुबह से शाम तक ग्रामीण इलाके की बहुजन महिलाओं की जिंदगी चूल्हे के लिए ईंधन जुटाने में खप रही है।   

 ‘स्वच्छ ईंधन बेहतर जीवन’ नारे के साथ मौजूदा केंद्र सरकार ने 1 मई 2016 को ‘प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना’ की शुरुआत की थी। इस योजना को बीपीएल परिवारों को लक्ष्य करके बनाया गया था। बीपीएल कार्डधारकों में मुख्यतः दलित, बहुजन, अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं ‘उज्ज्वला योजना’ दलित बहुजन महिला कल्याण के लिए शुरु की गई थी। पेट्रोलियम मिनिस्ट्री के डाटा के अनुसार 1 अप्रैल 2020 तक भारत में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत 8.2 करो़ड़ से ज्यादा कनेक्शन दिए गए‌। डाटा से पता चलता है कि पिछले 4-5 वर्षों में दिए गए प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना कनेक्शन ने ग्रामीण भारत के कुल एलपीजी कनेक्शन में 71% की बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन पांच सालों में ये योजना कितनी कामयाब हो पाई है। महिलायें धुंआ के दंश और ईंधन की मशक्क़त से कितना आज़ाद हो पायी हैं क्रांति और आज़ादी के पर्याय अगस्त में इसकी एक पड़ताल करते हैं।

छत पर कंडे पाथती हैं बन्नो देवी

उज्ज्वला योजना अंतर्गत रसोईं गैस सिलेंडर मिलने के बाद आपके जीवन में पहले से कितना बदलाव आया है प्रश्न के जवाब में बन्नो देवी पटेल गुज़रा वक़्त याद करते हुए बताती हैं कि बचपन से लेकर आज जीवन की अधेड़ावस्था तक हमारी सारी जद्दोजहद ईंधन के लिए ही रही है। तब भी और अब भी चूल्हे के लिए ईंधन जुटाना सबसे पहली वरीयता है। पहले सारा दिन हम दूसरे के खेतों में खटते थे। 5 किलो गेहूँ दिन भर की मजदूरी मिलती थी। और उसके बाद ईंधन जुटाने के लिए संघर्ष करते थे। जानवर थे तो उनके गोबर का कंडा बना लेते थे। ताल में उगे बेहया काटकर सुखा लेते थे। बंधा पर बबूल काटकर लकड़ियां जुटा लेते थे। लेकिन अब उतने जानवर नहीं हैं। तो गोबर कम होता है। लकड़ियां भी अब उतनी नहीं रह गई हैं। सड़क किनारे के सारे पेड़ सरकार ने काट दिये। हमारे पास अपना कोई बाग बगीचा भी नहीं है। तो दिक्कत बढ़ गई है। बन्नो देवी के पास खलिहान या कोई खाली जगह नहीं है। अतः वो अपने दो कमरे के मकान की छत पर कंडे पाथती हैं।

उपले पाथती बन्नो देवी।

उज्ज्वला योजना में मिले गैस सिलेंडर पर बन्नो देवी कहती हैं कि सरकार ने हाथी बांध दिया है हम उसको चारा खिलाने निकले तो बिक जायेंगे। वो बताती हैं कि उनके पति केवल खेती का काम करते हैं। खेती का काम बैल से करते हैं। उन्हीं दो बैलों के गोबर से चूल्हा जलता है। खेती में जो पैदा होता है वो खाने पीने, बच्चों को पढ़ाने दवा-दारू में खर्च करें कि ईंधन पर।

बन्नो देवी बताती हैं कि उनके गांव की तमाम औरतों की नाक पर चश्मा चढ़ गया है। डॉक्टर ने कहा है खाने पीने में लापरवाही और धुएं के चलते हमारी आँखें समय से पहले खराब हो गईं। कई औरतों को दमा हो गया है बावजूद इसके उन्हें धुंए से छुटकारा नहीं है।

सरकार ने खाली सिलेंडर पकड़ाकर मिट्टी का तेल छीन लिया

प्रतापगढ़ जिले की विमलेश बताती हैं कि सरकार ने हमारी दिक्कतें बढ़ा दी हैं। उसने हमें खाली सिलेंडर पकड़ाकर हमसे मिट्टी का तेल छीन लिया। मिट्टी का तेल रियायती दाम पर मिल जाता था। हारे-गाढ़े का खाना स्टोव पर बना लेते थे। दीया ढिबरी भी मिट्टी के तेल से जलते थे। मनरेगा में एक सोलर लाइट पकड़ाकर सरकार ने सोच लिया कि दलित के घर का अंधेरा दूर हो गया। जबकि वो साल भर बाद ही खराब हो गई थी। और फिर एक लाइट से हर काम तो नहीं सध सकता ना। बच्चों की पढ़ाई है, उसी समय खाना बनाना है, उसी समय कुछ और काम है तो एक लाइट में सब नहीं सध सकता था। फिर जाने क्या सोचकर सरकार ने मिट्टी का तेल देना बंद कर दिया।

विमलेश बताती हैं कि हमारी इतनी समाई (आर्थिक सामर्थ्य) नहीं है भैय्या कि सिलेंडर गैस पर खाना बनाये। विमलेश के पति शादी ब्याह और दूसरे अवसरों पर बाजा बजाते हैं। जबकि खुद विमलेश कृषि मजदूर हैं। विमलेश के तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं।

शंकरगढ़ की अनारो आदिवासी सपेरा समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। मई 2019 जिस दिन लोकसभा चुनाव का परिणाम आ रहा था उसी दिन मैं उनके इलाके में पानी के संकट पर उनसे बात कर रहा था। भाजपा सरकार के वापस सत्ता में आने पर उनका परिवार बहुत खुश था। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था कि सरकार ने उन्हें गैस कनेक्शन दिया इसलिए उन्होंने सरकार को वोट किया था। सिलेंडर के साथ मिले रुपयों से पहली बार उन्होंने सिलेंडर भरवाया भी था लेकिन उसके बाद से उसे कपड़े में बांधकर टांड़ पर रख दिया है।

दूध के लिए नहीं, गोबर के लिए पाला है भैंस

प्रयागराज जिले की 24 वर्षीय सरोजा देवी गृहिणी हैं। चूल्हे पर खाना पकाती सरोजा बताती हैं कि हाँ हमें भी मिला है गैस सिलेंडर और हमने भी बाकी लोगों की तरह उसे सजाकर धर दिया है। पति शटरिंग का काम करते हैं। चार छोटे-छोटे बच्चे हैं।

हालांकि ये सवाल ही गलत है कि किसी गरीब बहुजन महिला से ये पूछा जाये कि वो सिलेंडर मिलने के बावजूद उस पर खाना क्यों नहीं बनाती। वो भी तब जब उसका जवाब पता हो। लेकिन फिर भी ये सवाल हम पूछते हैं। लेकिन इस सवाल का अप्रत्याशित जवाब देते हुए सरोजा कहती हैं- “मैं गैस सिलेंडर से खाना इसलिए नहीं बनाती क्योंकि वो मुझे खाना बनाने के लिए नहीं बल्कि वोट देने के लिए मिला था।” मुझे हक्का बक्का देख सरोजा आगे कहती हैं, “आप इसे ऐसे समझिये कि सरकारी राशन की दुकान पर हर महीने गेहूँ चावल मिलता है। इसलिए वहां से जो राशन आता है उसे बनाकर खाती हूँ। यदि सरकार ने गेहूँ चावल के बजाय हमें झोला पकड़ा दिया होता ये कहकर कि ये हम आपको राशन के लिए दे रहे हैं, तो क्या होता। जाहिर है हम उस झोले को सजाकर टांग देते। क्योंकि बाज़ार से झोले को भरने की हमारी हैसियत नहीं है। उसी तरह अगर सरकार सचमुच ये चाहती कि गरीब बहुजन महिलायें गैस पर खाना पकायें। और उन्हें ईंधन जुटाने की मशक्कत से छुटकारा मिले, धुंआ धक्कड़ से छुटकारा मिले तो वो मुफ्त या बिल्कुल या बहुत कम दाम पर हमें हर महीने रसोईं गैस मुहैया करवाती। न कि खाली गैस सिलेंडर पकड़ाती।”

पानी लगने के बाद खेत में आलू चुनते बच्चे।

सरोजा देवी आगे बताती हैं कि “लोग बाग गाय भैंस इसलिए रखते हैं ताकि उन्हें दूध-माठा मिले। मैंने इसलिये रखा है ताकि मुझे कंडे (उपले) पाथने भर का गोबर मिल सके। सरोजा की भैंस ने पूस में बच्चा दिया। वो कच्चे घर में रहती हैं जो बेहद जर्जर हालत में है। पूरा बरसात उन्होंने इसी भय में गुज़ारा कि कहीं उनका कच्चा घर न बैठ जाये। सरोजा बताती हैं कि उनके पति ने पूरा मन बना लिया था कि भैंस निकाल देंगे। 70 हजार दाम भी लगा दिया था। ये सोचकर कि कुछ पैसे उधार लेकर दो कमरे की दीवार खड़ी कर लेंगे। ऊपर छत के बजाय टिन या छप्पर डालकर रहेंगे। लेकिन फिर ईंधन के लिए गोबर और दूध की आस लखते बच्चों की आंखों के चेहरे देखकर मन बदल दिया।”

अधिया पर कंडे बनाती हैं

नीलू देवी के पास न ज़र है, न जानवर, न खेत, न कोई काम। सुसराल वालों ने उन्हें घर से बाहर कर दिया। कोर्ट से मुकदमा जीतने के बावजूद सुसराल वाले गुज़ारा भत्ते के लिए कुछ नहीं देते। नीलू देवी के तीन बच्चे हैं। राशन तो उन्हें सरकारी दुकान से मिल जाता है। लेकिन बाकी काम के लिए वो दूसरे के खेतों में मजूरी करती हैं। लेकिन ईंधन की समस्या विकट रूप में उनके सामने हमेशा बनी रहती है। खाली समय में वो उन लोगों के यहां कंडे पाथती हैं जिनके पास जानवर हैं। और बदले में कुल कंडों का आधा मिल जाता है। इसके अलावा वो बेगारी पर दूसरों के यहां सरसों, अरहर माड़ती हैं। और मेहनताने में सरसों और अरहर के सरसेटा व रहठा जलावन के लिए मांग लाती हैं। नीलू देवी बताती हैं कि उन्हें उज्ज्वला योजना का लाभ नहीं मिला। लेकिन जिन्हें उज्ज्वला योजना का लाभ मिला भी है उनका हश्र देख मुझे गैस सिलेंडर न पाने का दुःख भी नहीं है।

(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)      

सुशील मानव
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