दैनिक भास्कर; मसला सेठ का नहीं, प्रेस का है

आखिरकार पिछले पखवाड़े देश के प्रमुख हिंदी अखबार दैनिक भास्कर पर मोदी-शाह के इनकम टैक्स और सीबीडीटी के छापे पड़ ही गए।
पिछले कुछ महीनों से इस तरह की आशंका जताई जा रही थी। आम तौर से सत्ता समर्थक और खासतौर से भाजपा हमदर्द माने जाने वाले इस अख़बार ने कोरोना महामारी की दूसरी लहर के अपने कवरेज से अपने पाठकों को ही नहीं मीडिया की देख रेख करने वाले सभी को चौंका दिया था। इसकी खबरें हिंदी ही नहीं अंग्रेजी के भी बाकी अखबारों से अलग थीं। महामारी से हुई मौतों को छुपाने की सरकारी कोशिशों का भांडा फोड़ते हुए इसने तथ्यों और आंकड़ों, छवियों गवाहियों के साथ असली संख्या उजागर की थीं। इस तरह के कवरेज की शुरुआत सबसे पहले इस संस्थान के गुजराती संस्करण “दिव्य भास्कर” ने गुजरात की मौतों की तुलनात्मक खबरों से की।

बाद में इसके बाकी के संस्करणों ने भी इसी तरह की खोज खबरें छापना शुरू कर दिया। हालांकि यह साहस और खोजीपन मुख्यतः कोविड महामारी की मौतों और उससे जुड़ी सरकार की असफलताओं एक ही सीमित रहा- बाकी मामलों में यह अख़बार समूह,एकाध अपवाद छोड़कर, मोदी सरकार और उसके एजेंडे के साथ रहा। लेकिन हुक्मरानों की असहिष्णुता जब चरम पर होती है तो दुष्यंत कुमार लागू हो जाते हैं और मसला ; “मत कहो आकाश पर कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। ”  का हो जाता है। तानाशाही जब सर पर सवार हो जाती है तो उसे ज़रा सी भी आलोचना नहीं भाती है। यही हुआ- एक दिन रात के अँधेरे में केंद्र सरकार का अमला दैनिक भास्कर के प्रमोटर के भोपाल वाले घर सहित देश के कई दफ्तरों  पर पहुँच गया और छापेमारी शुरू हो गयी।  

मीडिया को अपने साथ रखना,  2014 से नरेंद्र मोदी की अगुआई में आये राज की लाक्षणिक विशेषता है। इस समस्या को हल करने के लिए पहले उस पर कारपोरेट मालिकों का वर्चस्व स्थापित किया गया। आज देश का सबसे बड़ा मीडिया मालिक मुकेश अम्बानी समूह है।  अडानी भी पीछे नहीं हैं। खुद मोदी और उनका हिन्दुत्व चूंकि कारपोरेट के साथ नत्थी हैं इसलिए कारपोरेट मीडिया का उनके साथ नत्थी होना स्वाभाविक बात थी। बचे खुचे मीडिया के लिए सरकारी और कारपोरेट दोनों तरह के विज्ञापनों को रोकने की छड़ी इस्तेमाल की गयी। याचक बनने के लिए झुकना होता है- मगर यहां कुछ ज्यादा ही हुआ; ज्यादातर मीडिया घुटनों के बल रेंगने लगा। कोरोना के दिनों में मौतों के मामले में जाग्रत हुआ दैनिक भास्कर भी इन्हीं में शामिल था।

झुकने या रेंगने में जिसने भी थोड़ी बहुत आंय-ऊँय करने की कोशिश की उसके लिए छड़ी के साथ साथ प्रवर्तन एजेंसियों की लाठी भी इस्तेमाल की गयी। छोटे मंझोले मीडिया हाउस इसके शिकार बने। वेब न्यूज़ पोर्टल द वायर और न्यूज़क्लिक आदि ख़ास  निशाना  थे – हालांकि किसी बड़े अखबार में दैनिक भास्कर पहला है जिस पर यह गाज़ गिरी है।  यह कार्रवाई सिर्फ दैनिक भास्कर तक ही नहीं है। मोदी सरकार इसके जरिये बाकी सभी अखबारों और आलोचनात्मक तेवर दिखाने की मंशा रखने वाले मीडिया और अखबारों को भी चेतावनी देना चाहती है।  

इस प्रतिशोधात्मक कार्यवाही का लोकतांत्रिक शक्तियों और व्यक्तियों द्वारा विरोध किया जाना लाजिमी था -हुआ भी। प्रेस और अभिव्यक्ति पर हमले के समय हर जिम्मेदार नागरिक को खड़ा होना चाहिए। तब भी खड़ा होना चाहिए जब जिस पर हमला हो रहा हो उसकी भी घिग्गी क्यों न बंध जाए।  इसलिए कि मीडिया या अखबार किसी सेठ का उत्पाद भर नहीं होते – छपने और अस्तित्व में आने के बाद वे लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का विस्तार और औजार दोनों होते हैं। अपने धंधों और मुनाफे की सलामती के लिए सेठ टिके या घुटने टेके, प्रेस के लिए आवाज उठाने वालों को टिकना चाहिए। क्योंकि प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश और उसकी मनुष्यता की बाकी आजादी की पूर्व शर्त होती है।  मिजोरम को लेकर एक झूठी और उन्मादी खबर छापकर/चलाकर (जिसे सोशल मीडिया पर हुयी आलोचनाओं के बाद आंशिक रूप से हटा लिया गया) दैनिक भास्कर के मालिकों ने हुक्मरानों के साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाकर अपनी वफादारी साबित करने की चतुराई और खुद को “सुधार” कर जैकारा वाहिनी में शामिल होने की आतुरता दिखाई है।   

लेकिन  इस सबके बावजूद इस मीडिया संस्थान की बांह मरोड़ने की सरकारी पार्टी की हिमाकतों की भर्त्सना करना जारी रखनी चाहिए। क्योंकि यह तानाशाही की पदचाप है- 1975 की इमरजेंसी में लगी सेंसरशिप से भी ज्यादा धमकदार है।  क्योंकि यहाँ फ़िक्र सेठ की नहीं प्रेस की है ; सेठ जाए तेल लेने और नमक बेचने !! क्योंकि 1975 में जिस इंडियन एक्सप्रेस के लिए लड़े थे उसके सेठ रामनाथ गोयनका भी कोई संत नहीं थे। पत्रकारों की तनखा वनखा दूर रही भाई तो उनका पीएफ भी पचा गए थे। मगर एक्सप्रेस के विरुध्द हुयी कार्यवाही के विरुद्ध देश एक हुआ था।  
क्योंकि वाल्टेयर  कह गए हैं कि ; “हो सकता है मैं तुम्हारे विचारों से सहमत ना हो पाऊं लेकिन विचार प्रकट करने के तुम्हारे अधिकार की रक्षा जरूर करूंगा।”
क्योंकि फासिस्ट हिटलर के हाथों मारे गए पादरी पास्टर निमोलर  अपनी कविता में दुनिया भर को सीख दे गए हैं कि ;


पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था
फिर वे यहूदियों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था”

क्योंकि देश – भारत दैट इज इंडिया – इन दिनों अत्यंत असामान्य समय से गुजर रहा है और यह असाधारण सजगता और विवेकपूर्ण हस्तक्षेप की दरकार रखता है। 

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक हैं और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

बादल सरोज
Published by
बादल सरोज