मोदी का हिंदुत्व हारा है कोरोना से, सिस्टम नहीं

यह अंदाजा किसी को नहीं रहा होगा कि हिंदुत्व के रथ के सामने कोई अदृश्य शक्ति खड़ी हो जाएगी और उसे हरा देगी। आक्सीजन के लिए तड़प कर मर रहे लोगों तथा गंगा में तैरती लाशों को मौजूदा मीडिया आम लोगों के जीवन की एक और कहानी बता कर भले ही सामान्य घटना साबित कर दे, लेकिन लोगों की स्मृतियों से कोरोना महामारी का कहर आसानी से गायब नहीं होने वाला है। आज से सालों बाद लोग इसे बंगाल के अकाल या प्लेग की महामारी की तरह याद करेंगे जिसमें अंग्रेजी सरकार ने लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया था। गौर से देखने पर पता चलेगा कि उस दौर में भी हुकूमत की करुणा की कहानियां उसी तरह प्रसारित की जा रही थीं जिस तरह आज का चारण मीडिया प्रधानमंत्री मोदी की छवि बचाने के लिए तरह-तरह के किस्से गढ़ रहा है।

लेकिन सवाल उठता है कि क्या हम कोरोना के जान लेवा प्रहार को झेलने में भारत की उस राज व्यवस्था के कारण असमर्थ हुए हैं जो आजादी के आंदोलन के उदार तथा प्रगतिशील विचारों की बुनियाद पर खड़ी की गई थी या उस हिंदुत्ववादी राजनीति के कारण जो मोदी के सात साल के शासन में अपने नंगे रूप में सामने आती रही है? सिस्टम के फेल होने का गप्प आरएसएस-भाजपा की उसी कथा के हिस्से हैं जिसमें बताया जाता है कि पिछले सत्तर सालों में देश गर्त में गया है और यह इसलिए हुआ कि यहां की बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर रखा गया। 

बेईमानी तथा झूठ पर आधारित इस कथा में नायक आजादी के बाद खड़े किए गए विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के केंद्रों में हुए शोध से निकली दवाई, उदाहरण के तौर पर डीआरडीओ में बनी दवाई, जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बने सरकारी कारखानों में तैयार आक्सीजन तथा आजादी के बाद फैलाए गए रेलवे के नेटवर्क का श्रेय लूट लेता है। वह इसे कभी स्वदेशी तथा कभी आत्मनिर्भर भारत की पहचान बता कर अपनी फोटो इस पर चिपका देता है। लेकिन जब दवाई, वैक्सीन तथा इलाज के खुली लूट वाले कारोबार में सहभागी होकर लोगों को मरने के लिए छोड़ देता है तो त्रासदी के लिए सिस्टम पर इल्जाम लगा कर अपने को अपराध-मुक्त करने की कोशिश करता है। 

आजादी के बाद मौत का इससे बड़ा तांडव देश विभाजन के समय देखा गया था। वह प्रकृति की ओर से आई त्रासदी नहीं थी और इसके किरदार कोरोना वायरस की तरह अदृश्य नहीं थे, लेकिन यह लोगों के नियंत्रण से बाहर था। आपस की नफरत लोगों की जान ले रही थी। इस त्रासदी में भी यह नजर आया था कि भाईचारे तथा करुणा पर विश्वास रखने वालों ने ही लोगों की आशा को जिंदा रखा था। महात्मा गांधी तो निष्पक्ष थे और उनके लिए न सरहद मायने रखती थी और न कोई दूसरी दीवार। लेकिन जवाहरलाल नेहरू से लेकर कांग्रेस के तमाम नेता तो विभाजन में हिस्सेदार थे और सरकार से जुड़े थे। लेकिन उन्होंने उस समय सरकार नहीं, बल्कि लोगों के नेता के रूप में काम किया।

उनके हाथ में जो कुछ भी था उसके जरिए मौत का तांडव रोकने की कोशिश की। यही वजह है कि करोड़ों मुसलमान भारत में रह गए। उस समय भी मौजूदा शासन को चलाने वाले लोगों के वैचारिक पुरखे नफरत ही फैला रहे थे। अगर करुणा तथा मुहब्बत की विचारधारा पर आधारित तत्कालीन शासकों की कार्यशैली की तुलना हम हिंदुत्व की नफरती विचारधारा पर चल रही अभी की सरकार के काम करने की शैली से करें तो हमें दोनों का अंतर साफ दिखेगा। करुणा से विहीन हिंदुत्व की विचारधारा का ही असर है कि सैकड़ों मील पैदल चल कर गांव लौट रहे प्रवासी मजदूरों को देख कर सरकार का दिल नहीं पसीजा, आक्सीजन से तड़प कर लोगों के मरने और गंगा में तैरती लाशों को देखने के बाद भी उसे अपनी छवि की ही चिंता सता रही है।   

अगर 2020 में कोरोना की महामारी के पसरने के बाद हम सरकार की नीतियों और रवैये पर नजर डालें तो पता चलेगा कि आक्सीजन, वेंटिलेटर्स और वैक्सीन से लेकर जरूरी दवाइयों के इंतजाम में सरकार लालफीताशाही के कारण नहीं फेल हुई है। यह भी नहीं है कि समय रहते उसने फैसले नहीं लिए। सच्चाई यह है कि यह सरकार समय पर सचेत हो जाने के बाद भी कोई इंतजाम नहीं कर पाती। वह चाहती तो नौकरशाही खामोशी से उसके पीछे खड़ी हो जाती। लेकिन बात इससे भी नहीं बनने वाली थी क्योंकि हिंदुत्व और कारपोरेट का एजेंडा उसे जनता के प़क्ष में काम नहीं करने देता। दोनों ही लोगों को राहत पहुंचाने के किसी सच्चे एजेंडे के खिलाफ हैं। अगर थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह तथा भाजपा चाहती कि वह लोगों की जान बचाने को प्राथमिकता दे तो ऐसा संभव नहीं था। आरएसएस उसे हिंदुत्व के एजेंडे से हटने नहीं देती और कारपोरेट उसे ऐसा कोई फैसला नहीं करने देता जो उसे आर्थिक नुकसान पहुंचाए। 

आक्सफैम की आर्थिक विषमता पर अपनी रिपोर्ट में जानकारी दी है कि महामारी के दौरान भारत के अरबपतियों ने 35 प्रतिशत ज्यादा कमाई की। देश के 11 सबसे बड़े उद्योगपतियों ने जो ज्यादा कमाई कोरोना के दौरान की, उससे मनरेगा का दस साल का खर्च उठाया जा सकता है। इन 11 अरबपतियों की संपत्ति में कोरोना काल में जो बढ़ोत्तरी हुई है उस पर एक प्रतिशत का टैक्स लगाने से सस्ती कीमत पर दवाई बेचने की जन औषधि स्कीम पर सरकार की ओर से किया जाने वाला खर्च 140 गुना बढ़ाया जा सकता है। यानि देश का कोई भी आदमी दवा के बिना नहीं मरेगा। 

लेकिन इन अमीरों को फायदा पहुंचाने में जुटी मोदी सरकार ने कोरोना काल में भी ऐसी नीतियां बनाई जिससे उनकी आमदनी नही रूके। लॉकडाउन के दौरान भी उसने उनका ध्यान रखा। रोज कमाने, रोज खाने वालों की हालत खरब हो गई। पिछले एक साल में 12 करोड़ से ज्यादा लोगों की नौकरी चली गई, लेकिन अमीरों की आमदनी बढ़ती रही। कमाई करने वालों में अमीरों में मोदी-शाह के चहेते आगे हैं। इनमें वैक्सीन बनाने वाली कंपनी के मालिक सायरस पूनावाला भी शामिल हैं। 

दिल्ली की सीमा पर देश के किसान अपनी जान की परवाह किए बगैर इसलिए बैठे हैं कि कोरोना काल में मोदी ने खेती को कॉरपोरेट के हाथों में सौंपने का कानून बना दिया। इससे सबसे ज्यादा फायदा अडानी तथा अंबानी जैसे उद्योगपतियों को होने वाला है। छह महीने से बैठे किसानों की सरकार सुन नहीं रही है क्योंकि कारपोरेट को फायदा पहुंचाने के इस फैसले से वह हट नहीं सकती है। 

यही हाल उसकी बाकी नीतियों के साथ है। कोरोना में लोग भले ही मरें, लेकिन मोदी ने वैक्सीन कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए ऐसी नीति अपनाई कि देश आज वैक्सीन के अभाव के संकट से जूझ रहा है। इन कंपनियों से समय पर सौदा नहीं किया। एक तो इस पर केंद्र सरकार को अपना पैसा खर्च करना पड़ता और दूसरा, कंपनियों को सस्ती कीमत पर वैक्सीन देनी होती। इससे उन्हें कम लाभ होता। अब राज्य सरकार को सीधी खरीद करने के लिए कहा गया है और कंपनियों को मनमानी कीमत वसूलने की छूट मिल गई है।  

सवाल उठता है कि केंद्र सरकार पैसा क्यों नहीं खर्च कर रही है? असली बात है कि इसके पास पैसा ही नहीं है क्योंकि इसने उद्योगपतियों को टैक्स की लाखों करोड़ की छूट देकर अपनी आमदनी घटा ली है। यह सालों की मेहनत से खड़ी की गई सरकारी कंपनियों को बेच कर अपना काम चलाने की कोशिश कर रही है। कोरेाना काल में कारपोरेट ने जो बढ़ी कमाई की, उस पर भी टैक्स लगाने की उसकी हिम्मत नहीं है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि कारपोरेट की आमदनी सरकार की मदद से दिन दूना रात चैगुनी हो रही है और देश के लोग दवा और आक्सीजन के अभाव में मर रहे हैं। निजी अस्पताल लोगों को लूट कर मालामाल हो रहे हैं। स्पेन जैसे देश ने भी निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण कर दिया है। अमेरिका समेत ज्यादातर विकसित देशों में कोरोना के मरीजों का मुफ्त इलाज हो रहा है और टीका भी मुफ्त लगाया जा रहा है।  

एक और महत्वपूर्ण बात की ओर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है कि कोरोना काल में भी हिंदुत्व का अभियान पूरी ताकत से जारी रहा। राम मंदिर के शिलान्यास से लेकर अयोध्या में दीप जलाने के कार्यक्रम बिना रुकावट के चलते रहे। दूसरी लहर के तेज होने के बाद भी कुंभ स्नान जारी रहने दिया गया। हिंदुत्व का एजेंडा कोरोना फैलाने में मदद करने वाले इन कार्यक्रमों तक ही सीमित नहीं था। इस विचारधारा ने कोरोना की लड़ाई के लिए जरूरी वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने में भी बाधा खड़ी की। थाली बजाने तथा रोशनी करने के अलावा बाबा रामदेव की बिना जांच वाली कोरोनिल दवा लांच करने में देश का स्वास्थ्य मंत्री का उपस्थित होना यही दिखाता है कि कोरोना के इलाज को लेकर सरकार का दृष्टिकोण पूरी तरह अवैज्ञानिक है। हिंदुत्ववादियों की ओर से गोमूत्र से इलाज के दावे से हम परिचित ही हैं।  

जाहिर है कि कोरोना से मुकाबले में हम इसीलिए नाकामयाब रहे कि देश में हिंदुत्व तथा कारपोरेट के लिए काम करने वाली सरकार है। हिंदुत्व ने इसे कोरोना के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से रोका और कॉरपोरेट ने उसे मु्फ्त इलाज और टीकाकरण जैसे कदम उठाने नहीं दिया। इसके लिए उसे उनके खिलाफ सख्त कदम उठाने होते।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

अनिल सिन्हा
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