अभी तो मश्के सितम कर रहे हैं अहले सितम, अभी तो देख रहे हैं वो आजमा के मुझे

इतवार के दिन (ऐसे मामलों में हमारी पुलिस इतवार को भी काम करती है) दिल्ली दंगों के मामले में मोदी और अमित शाह की दिल्ली पुलिस ने एक सप्लीमेंट्री चार्जशीट पेश करके सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी को भी नामजद कर लिया। उनके साथ प्रख्यात अर्थशास्त्री जयति घोष, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद तथा स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव और फिल्मकार राहुल रॉय भी इस पूरक आरोप पत्र में नामजद किये गए हैं। इन पर आरोप है कि “इन्होंने लोगों को उकसाया और दंगों के लिए भड़काया। उकसाने के लिए इन्होंने नागरिकता क़ानून, नागरिकता रजिस्टर विरोधी प्रदर्शनों को संगठित तथा प्रोत्साहित किया।” उकसाने के इस कथित आरोप के लिए सीएए और एनआरसी के खिलाफ देश भर में चले नागरिक आंदोलन में सीताराम येचुरी तथा अन्यों की हिस्सेदारी को आधार बनाया गया है।  

ज्ञातव्य है कि इसी साल फरवरी में उत्तर-पश्चिम दिल्ली में हुआ दंगा तीन दिन तक चला था। इसमें आधा सैकड़ा से ज्यादा दिल्ली वासी हलाक़ हुए थे और 400 से अधिक घायल हुए थे। कपिल मिश्रा सहित इन दंगों को भड़काने वाले भाजपाई नेताओं के वीडियो सबूत मौजूद होने के बावजूद उनका जिक्र तक न होना दिल्ली पुलिस का एक अलग अपराध था, अब उसे छुपाने और बचाने के लिए एक नयी थीसिस लाई जा रही है और सीएए और एनआरसी के खिलाफ शाहीन बाग़ जैसे ऐतिहासिक, संवैधानिक-लोकतांत्रिक प्रतिरोध को दंगों का जिम्मेदार ठहराने की कपोल कथा गढ़ी जा रही है।  

जितना बेहूदा यह फर्जीवाड़ा है उतनी ही बेहूदा दिल्ली पुलिस की वह चतुर सफाई है, जो पुलिस के इस असीमित राजनीतिक दुरुपयोग के खिलाफ सवाल उठने के बाद आई कि “अभी तक किसी के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया गया है। जांच में जो नाम आये हैं, वे बताये गए हैं।” इस सफाई की असलियत सोमवार को ही उजागर हो गयी, जब “जांच में आये नामों” में से एक फिल्मकार राहुल रॉय को दिल्ली पुलिस ने पूछताछ के लिए हाजिर होने का सम्मन थमा दिया। जेएनयू के पूर्व छात्रनेता उमर खालिद को बीच पूछताछ में से ही उठाकर दिल्ली दंगे में एक ‘साज़िशकर्ता’ क़रार दे कर गिरफ़्तार करके 10 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया गया। 

पहले आरोप-पत्र में नाम जोड़ना, उसके बाद कभी हाँ – कभी ना करना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आजमाई हुयी रणनीति है, जिसे दिल्ली पुलिस हूबहू अमल में ला रही है। वे इस तरह की आजमाईश लगातार करते रहते हैं। इसे दो तरह से आजमाते हैं। पहले वे पानी में कंकड़ फेंककर उसकी प्रतिक्रिया देखते हैं। फिर बार-बार कभी हां-कभी ना, कभी ना-कभी हां करके अपनी महादुष्टता का जो क्षोभ, आक्रोश और स्तब्धकारी विक्षोभ होता है, उसके असर और उबाल को धीरे-धीरे करके निकलने देते हैं। गांधी की हत्या के समय से लेकर आज तक संघ ने यही रणनीति अपनाई है। दिल्ली पुलिस बाकी मामलों में कारगर हो, न हो – इस तरह की हरकतों में पूरी तरह निपुण संघ-दक्ष साबित हुआ है। 

यही साजिश उन्होंने जेएनयू के छात्र आंदोलन के साथ की, उसी को जामिया और एएमयू के साथ दोहराया, यही हरकत उन्होंने भीमा-कोरेगांव के मामले में आजमाई।  

जिस दिन सीताराम येचुरी सहित बाकी नाम इस फर्जीवाड़े में जोड़े जा रहे थे, उसी दिन देश के विषाणु विशेषज्ञ वैज्ञानिक – वायरोलॉजिस्ट – कोलकाता-स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) के प्रोफ़ेसर पार्थो सारथी राय, हैदराबाद-स्थित अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर के. सत्यनारायण और हैदराबाद के वरिष्ठ पत्रकार के वी कुरमनथ को भीमा-कोरेगांव मामले में एनआईए के मुम्बई दफ्तर में हाजिर होने के सम्मन थमाए जा रहे थे। सत्यनारायण और कुरमनथ जेल में बंद कवि वरवर राव के दामाद हैं। वरवर राव को दो साल पहले इस मामले में गिरफ़्तार कर लिया गया था।

इसी एनआईए ने 7 व 8 सितंबर, 2020 को सांस्कृतिक संगठन कबीर कला मंच से जुड़े तीन युवा कलाकारों-लोकगायकों-सागर तात्याराम गोरखे, रमेश गायचोर और ज्योति जगतप- को गिरफ़्तार कर लिया। दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए लड़ने वाले ये तीनों कलाकार- एक्टिविस्ट पुणे के निवासी हैं। इस भीमा-कोरेगांव के भी एक कपिल मिश्रा हैं, जिनका नाम भैया जी भिड़े है। सब कुछ करने के बाद भी वे हिंदुत्व के नायक हैं और कुछ भी न करने के बाद भी देश के 15 संस्कृतिकर्मी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वैज्ञानिक, पत्रकार, दलित अधिकार आंदोलन के एक्टिविस्ट बिना जमानत के जेल में बंद हैं।  

डॉ. कफील अहमद की गिरफ्तारी पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में की गयी सख्त टिप्पणियों और उनके भाषण पर उत्तर प्रदेश पुलिस के झूठ की भर्त्सना किये जाने के ताजे-ताजे फैसले के बाद भी इन कार्यवाहियों का जारी रहना और अब सीताराम येचुरी जैसी हस्ती सहित देश के नामी व्यक्तित्वों को नामजद करना लोकतंत्र और संविधान की विदाई कर देश को उस भयानक अन्धकार में धकेलना है, जिसका नाम हिन्दुत्व के नाम पर बनाया जाने वाला हिन्दू राष्ट्र है। इसके निशाने पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता या आन्दोलन करने का अधिकार भर नहीं है। पिछले छह महीनों- कोरोनाकाल- में उठाये कदमों से जिनकी थोड़ी-बहुत गलतफहमी बची थी, वह भी दूर कर दी गयी है। इसके ध्वंसकारी लक्ष्य में महिला, मजदूर, किसान, नौजवान, विद्यार्थी, कवि, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक और इस तरह पूरा हिन्दुस्तान है। 

यह सिर्फ अपनी चौतरफा विफलताओं को छुपाने या उनसे ध्यान बंटाने भर का मामला नहीं है। वह तो है ही। यह उससे भी आगे जाने की कुटिल योजना है – वर्चस्व को पूर्ण और सर्वग्रासी बनाने, सारी लाज-शरम और परदे-मुखौटे उतारकर कारपोरेटी लूट के उस बर्बरतम निज़ाम की कायमी है, जिसे आम बोलचाल में फासीवाद कहा जाता है। मगर यह उससे भी भिन्न और ज्यादा सांघातिक हिंदुत्व है, जिसकी मुख्य दुश्मनी भारत के उसी विराट बहुमत से है, जिसे हिन्दू कहा जाता है और जिसके नाम पर हिन्दू राष्ट्र कायम करने का दावा किया जाता है। यह 27 फरवरी, 1933 को खुद अपने तूफानी दस्तों के द्वारा राइख़स्टाग (जर्मनी की संसद) में आग लगवाने की हिटलरी धूर्तता का किंचित कम तीव्रता के साथ अनुसरण है। 

अमरीका के हितों को ऊपर रखते हुए बनाई जा रही विदेश नीति और चीन के साथ सीमा पर तनाव के बहाने और अपनी कूटनीतिक असफलताओं से ध्यान बंटाने के लिए जनता में भड़काया जा रहा युद्धोन्माद, उसके बहाने वाम के विरुद्ध छेड़ी जा रही नफरती मुहिम भी इसी ग्रांड-प्लान का एक अध्याय है।  

सीताराम येचुरी ने ठीक कहा है कि “हमने इमरजेंसी को हराया था, इस अघोषित इमरजेंसी को भी हराएंगे।” उनकी इस आश्वस्ति के पीछे देश की मेहनतकश जनता के तेज से तेज तर होते आंदोलन हैं, जिनके संघर्ष में बदलने में देर नहीं लगेगी। इस भरोसे का आधार है जनता और उसकी प्रतिरोध की ताकत में विश्वास, जिसके बारे में मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि “आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस निकालने से यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं हैं! हमें अपने हार न मानने वाले स्वाभिमान का प्रमाण देना था! हमें यह दिखाना है कि हम गोलियों और अत्याचारों से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अंत करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थीपन और खून पर है!”  अंधियारे से बचने का बीजक यही है। हिन्दुस्तानी अवाम इसे जानता है। 

इस टिप्पणी का शीर्षक हमने इसी इमरजेंसी में मीसा की जेल में बंद रहे मशहूर जनवादी शायर वक़ार सिद्दीक़ी साब की गजल के एक शेर को बनाया है। इसी ग़ज़ल का अगला शेर है :

“मैं अपने अहद की आवाज हूँ ये ध्यान रहे 

खामोश कर नहीं सकता कोई दबाकर मुझे।” 

(बादल सरोज लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और पाक्षिक लोकजतन के संपादक हैं।)

बादल सरोज
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