जजों की ट्रांसफर पॉलसी में सर्वमान्य सिद्धांत नहीं पिक एंड चूज की नीति चलती है

बेहतर न्याय प्रशासन के नाम पर उच्चतम न्यायालय ने 75 न्यायाधीशों वाले मद्रास हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस विजया के ताहिलरमानी को चार न्यायाधीशों वाले मेघालय हाईकोर्ट में स्थानांतरण कर दिया और मेघालय हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अरुण कुमार मित्तल को मद्रास हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त कर दिया है। मगर बिट्वीन्स द लाइन्स यह हक़ीक़त है कि जस्टिस अजय कुमार मित्तल उच्चतम न्यायालय की इसी कॉलेजियम ने उस समय हिमाचल प्रदेश का चीफ जस्टिस बनने लायक नहीं समझा जबकि जस्टिस मित्तल पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में वरिष्ठता में नंबर दो जज थे और तीसरे नंबर के जज जस्टिस सूर्यकान्त को प्रोन्नति देकर हिमाचल हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बना दिया था। बाद में जून 2019 में जस्टिस मित्तल को चीफ़ जस्टिस के रूप में नार्थ ईस्ट के एक छोटे राज्य मेघालय हाईकोर्ट भेजा गया। वैसे भी नार्थ ईस्ट में जजों की पोस्टिंग को पनिशमेंट पोस्टिंग की संज्ञा से नवाजा जाता रहा है। आज जस्टिस मित्तल को मद्रास हाईकोर्ट भेजा गया है जबकि जस्टिस सूर्यकान्त उच्चतम न्यायालय में एलिवेट हो चुके हैं।

इसी तरह अमित शाह को हिरासत में भेजने वाले जस्टिस क़ुरैशी की पदोन्नति रोकी जा रही है। केंद्र द्वारा जस्टिस कुरैशी को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पदोन्नति देने के मामले में अब उच्चतम न्यायालय 16 सितंबर को सुनवाई करेगा।

दरअसल, उच्च न्यायालय के जजों की स्थानांतरण और उच्चतम न्यायालय में एलिवेशन के लिहाज से पिक एंड चूज पालिसी अपनायी जाती है और जिस वरिष्ठ जज को चीफ जस्टिस या कार्यवाहक चीफ जस्टिस नहीं बनने देना है या जिसे उच्चतम न्यायालय में एलिवेट नहीं करना है उसे उठाकर ऐसे हाईकोर्ट में ट्रांसफर किया जाता रहा है जहां उसकी वरिष्ठता ही अन्य जजों से नीचे चली जाती है और उसका कैरियर लगभग तबाह हो जाता है। ट्रांसफर पॉलसी का इस्तेमाल व्यक्ति विशेष को अवमानित पोस्टिंग देकर सत्ता पक्ष के राजनितिक हिसाब किताब को बराबर करने और भ्रष्ट जजों को पनिशमेंट पोस्टिंग में भी किया जाता रहा है।

न्यायपालिका और विधिक क्षेत्रों में इसे लेकर काफी दिनों से बहस चलती रही है। ताजा घटनाक्रम से यह बहस एक बार फिर तेज हो गयी है। सवाल है कि क्या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को नौकरशाहों  की तरह एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किया जाना चाहिए?  क्या वे न्यायाधीशों के अखिल भारतीय कैडर का हिस्सा हैं? इसका एक ही जवाब है नहीं, नहीं, नहीं। लेकिन आज के इस ट्रांसफर पोस्टिंग के वास्तविक जनक कौन हैं तो इसका जवाब है कांग्रेस पार्टी और उसके सामने नतमस्तक तत्कालीन न्यायपालिका। हां तब कालेजियम सिस्टम नहीं था लेकिन आज है जो सरकार को अपनी रीढ़ दिखा सकता है,  लेकिन रीढ़ दिखाना कौन कहे राष्ट्रवादी मोड में है और संविधान और कानून के शासन की ही अनदेखी हो रही है।

अनुच्छेद 222 में संवैधानिक प्रावधान है जिनमें कहा गया है कि राष्ट्रपति,  भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद,  किसी न्यायाधीश को एक उच्च न्यायालय से किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है। जस्टिस जयंत पटेल विवाद ऐसे कई सवालों को उठाता है। गुजरात के न्यायमूर्ति जयंत पटेल 13 अगस्त, 2016 से गुजरात के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य कर रहे थे। उसके पहले वे वर्ष 2004 से न्यायाधीश पद पर थे। उन्हें 9अक्टूबर को तत्कालीन चीफ जस्टिस के सेवानिवृत्त होने के बाद मुख्य न्यायाधीश बनना चाहिए था। लेकिन जस्टिस पटेल को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इसलिए स्थानांतरित किया गया था,  जहां उनकी रैंकिंग नंबर 3 की होती और वे बिना प्रोन्नति के सेवानिवृत्त हो जाते। उनके मुख्य न्यायाधीश होने या उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत होने की संभावना व्यावहारिक रूप से नष्ट कर दी गयी। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जयंत एम पटेल ने रिटायरमेंट से 10 महीने पहले ही इस्तीफा दे दिया। जयंत पटेल वही जज हैं जिन्होंने इशरत जहां मुठभेड़ की जांच सीबीआई से कराने का आदेश दिया था। जस्टिस जयंत पटेल के कार्यकाल के 10 महीने बाक़ी थे और माना जा रहा था कि उनको कर्नाटक हाइकोर्ट के कार्यकारी चीफ जस्टिस का ओहदा मिल सकता है, लेकिन अचानक इलाहाबाद हाइकोर्ट में अपने तबादले की बात देख उन्होंने इस्तीफा दे दिया है।

जस्टिस पटेल का मामला अकेला नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश राजीव शकधर को मद्रास स्थानांतरित कर दिया गया। शकधर ने ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई को राहत दी थी, जिसे 2015 में विमान से उतार दिया गया था ताकि उसे लंदन में गवाही देने से रोका जा सके। बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस अभय थिप्से को भी इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया था। क्या इसलिए कि उसने बेस्ट बेकरी मामले में 21 आरोपियों में से नौ को उम्रकैद की सजा सुनाई थी?

इसी तरह 1982, 1983, 1998 और 2015 के न्यायाधीशों की नियुक्तियों और स्थानांतरण पर उच्चतम न्यायालय के निर्णयों के बाद, सरकार को इस संबंध में निर्णायक निर्णय लेने से वंचित कर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के कॉलेजियम ने यह अधिकार हासिल कर लिया था। कोई भी इन न्यायाधीशों के प्रति सरकार की असहमति को समझ सकता है। लेकिन अपने स्वयं के वर्चस्व के लिए लड़ने के बाद, क्या कॉलेजियम भारत सरकार के दबाव के आगे झुक गया है ?  या यह महज एक बड़ा संयोग है? यदि कॉलेजियम सरकार के सामने नहीं खड़ा हो सकता है, तो कानून का शासन खतरे में है।

संविधान में स्थानान्तरण के प्रावधान,  जहां आवश्यक हो, सहमति से स्थानांतरण के लिए थे। यूनियन ऑफ इंडिया बनाम संकल्प चंद सेठ मामले (1977) में, वास्तविक स्थानांतरण वापस ले लिया गया था। लेकिन न्यायमूर्ति वाई वी चंद्रचूड़ ने ‘सहमति’ सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। न्यायमूर्ति पीएन भगवती ने हालांकि कहा कि सहमति के बिना स्थानांतरण न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए प्रतिकूल था।

एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ मामले (1982) में, जस्टिस भगवती का विचार असहमति का था। यह दुर्भाग्य से भुला दिया गया है। ऐसा कांग्रेस की नीति के कारण हुआ था जो कि  मानती थी कि इस तरह के ‘स्थानांतरण’ राष्ट्रीय एकीकरण के हित में थे। यह राष्ट्रीय एकीकरण ‘बहाना’ हॉगवॉश था। यह बस सरकार को न्यायाधीशों के साथ मिलकर उन व्यक्तियों को चुनने या न चुनने के लिए जिन्हें वह पुरस्कृत या दंडित करना चाहती थी , कहने की अनुमति है। हमीदुल्ला बेग और आरएस पाठक के रूप में कुछ न्यायाधीशों को भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की उनकी संभावनाओं में तेजी लाने के लिए स्थानांतरित किया गया था, जो वे बन भी गए।

इसी तरह जस्टिस चिनप्पा रेड्डी को पंजाब भेजा गया। आपातकाल के बाद उन्हें उच्चतम न्यायालय में ले जाया गया। इलाहाबाद के न्यायमूर्ति शिवाकांत शुक्ला, जिन्होंने आपातकाल के दौरान नज़रबंदी के खिलाफ फैसले  दिये थे,  की उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति लगभग हो गयी थी , लेकिन न्यायिक रिपोर्ट ने उनकी नियुक्ति को रोक दिया। यह भी सत्य है कि ट्रांसफर पॉलिसी का इस्तेमाल भ्रष्ट या संदिग्ध न्यायाधीशों को स्थानांतरित करने के लिए दंडात्मक रूप से किया गया। न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन को पहले उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त करने की घोषणा हो गयी लेकिन भृष्टाचार के मामले सामने आने के बाद उनकी नियुक्ति रद्द कर दी गयी। लेकिन बाद में उन्होंने छुट्टी पर जाने से इनकार कर दिया और उन्हें सिक्किम भेज दिया गया। पहले सिक्किम और नॉर्थ ईस्ट बार ने दागी जजों को ‘सजा पोस्टिंग’ के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है की इस तरह की न्यायिक व्यवस्था में सुधार कैसे होगा?क्या ट्रांसफर पोस्टिंग और न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए?

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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