न्याय को कभी बदले का रूप नहीं लेना चाहिए: चीफ जस्टिस बोबडे

नई दिल्ली। हैदराबाद गैंगरेप कांड के आरोपियों के एनकाउंटर में मारे जाने के एक दिन बाद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने कहा है कि “जस्टिस को कभी भी बदले का रूप नहीं लेना चाहिए”।

राजस्थान के जोधपुर में बोलते हुए बोबडे ने कहा कि देश में हाल की घटनाओं ने पुरानी बहस को एक नयी ताकत के साथ खड़ा कर दिया है। इस बात में कोई शक नहीं कि आपराधिक न्याय प्रणाली को अपनी स्थिति पर फिर से विचार करना चाहिए और आपराधिक मामलों को निपटाने की दिशा में लगने वाले समय और उसमें होने वाली कमियों पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि “लेकिन मैं नहीं सोचता हूं कि न्याय कभी भी तुरंत हो सकता है। और न्याय को कभी भी बदले का रूप नहीं लेना चाहिए। और मेरा मानना है कि न्याय अपने न्याय होने की विशेषता उसी दिन खो देता है जिस दिन वह बदले का रूप ले लेता है”।

इस बीच, यूपी की योगी सरकार ने आज उन्नाव बलात्कार मामले की सुनवाई अतिशीघ्र करने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने की घोषणा की है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पीड़िता की मौत पर गहरा दुख जाहिर किया है।

एक बयान में योगी ने कहा कि “सभी आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। केस को फास्ट ट्रैक कोर्ट में ले जाया जाएगा और सजा दी जाएगी।”

उन्नाव की रेप पीड़िता पर वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की टिप्पणी:

उन्नाव की पीड़िता का निधन हो गया। कोर्ट जाने के रास्ते उसे जला दिया गया। वो जीना चाहती थी लेकिन नहीं जी सकी।

व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी और सोशल मीडिया के इस कथित पब्लिक ओपिनियन का दोहरापन चौबीस घंटे में ही खुल गया।

हैदराबाद की पीड़िता के आरोपियों को मुसलमान बताकर व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में ख़तरनाक खेल खेला गया। एक न्यूज़ एंकर ने तो ट्विट किया कि चारों मुसलमान हैं। जबकि नहीं थे।

क्या उस तथाकथित ‘पब्लिक ओपिनियन’ के पीछे यह भी कारण रहा होगा?

क्या आपने व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में उन्नाव की पीड़िता के आरोपियों के नाम के मीम देखे हैं ? जिनमें त्रिवेदी लिखा हो? उनकी शक्लें देखी हैं ? इसी केस को लेकर आप न्यूज़ चैनलों की उग्रता को भी जाँच सकते हैं ? झारखंड में चुनाव है। वहां एक छात्रा को दर्जन भर लड़के उठा ले गए। कोई हंगामा नहीं क्योंकि हंगामा होता तो चैनल जिनके ग़ुलाम हैं उन्हें तकलीफ़ हो जाती।
अब उन्नाव की पीड़िता के लिए वैसा पब्लिक ओपिनियन नहीं है।

देश में क़ानून का सिस्टम नहीं है तो उसे बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वो नहीं है। इंसाफ में सालों लगते हैं। हताशा होती है लेकिन ठीक तो इसी को करना है। दूसरा कोई भरोसेमंद रास्ता नहीं।

पब्लिक ओपिनियन अदालत से ज़्यादा भेदभाव करता है। पब्लिक ओपिनियन बलात्कार के हर केस में नहीं बनता है। कभी कभी अदालतें भी पब्लिक ओपिनियन के हिसाब से ऐसा कर जाती हैं मगर क़ानून का प्रोफेशनल सिस्टम होगा तो यह सबके हक़ में होगा।

थोड़ा सोचिए। थोड़ा व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में चेक कीजिए। अगला पब्लिक ओपिनियन कब बनेगा?

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