जयंती पर विशेष: खुमार बाराबंकवी, जिनकी शायरी का खुमार आज भी दिल से उतारे नहीं उतरता

खुमार बाराबंकवी का शुमार मुल्क के उन आलातरीन शायरों में होता है, जिनकी शानदार शायरी का खुमार एक लंबे अरसे के बाद भी उतारे नहीं उतरता है। एक दौर था जब खुमार की शायरी का नशा, उनके चाहने वालों के सिर चढ़कर बोलता था। जिन लोगों ने मुशायरों में उन्हें रु-ब-रु देखा-सुना है या उनके पुराने यूट्यूब वीडियो देखे हैं, वे जानते हैं कि वे किस आला दर्जे के शायर थे। मुल्क की आज़ादी के ठीक पहले और उसके बाद जिन शायरों ने मुशायरे को आलमी तौर पर मकबूल किया, उसमें भी खुमार बाराबंकवी का नाम अव्वल नंबर पर लिया जाता है। मुशायरों की तो वे जीनत थे और उन्हें आबरु-ए-ग़ज़ल तक कहा जाता था।

15 सितंबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में पैदा हुए ख़ुमार बाराबंकवी का असल नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था। घर में शेर-ओ-सुखन का माहौल था। उनके वालिद डॉक्टर ग़ुलाम मोहम्मद ‘बहर’ के तख़ल्लुस से शायरी करते थे, तो उनके चचा ’क़रार बराबंकवी’ भी नामी शायर थे। जाहिर है कि घर के अदबी माहौल का असर हैदर खान पर भी पड़ा। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ बचपन से ही वे भी शायरी करने लगे। खुमार के उस्ताद ’क़रार बराबंकवी’ बने और उनके शुरुआती शेरों में उन्हें ’इस्लाह’ (सुधार) भी दी। लेकिन कुछ ही अरसे में उन्होंने शायरी पर पूरी तरह से कमांड हासिल कर ली। साल 1938 में महज उन्नीस साल की उम्र में मोहम्मद हैदर ख़ान ने ख़ुमार बाराबंकवी के नाम से बरेली में अपना पहला मुशायरा पढ़ा। पहले ही मुशायरे में उन्होंने अपनी छाप छोड़ दी।

मुशायरे में जब उन्होंने अपना पहला शेर ‘वाक़िफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से/इस राज़ को पूछो किसी बर्बाद नजर से।’ पढ़ा, तो इस शे’र को स्टेज पर बैठे उस्ताद शायरों के साथ-साथ सामयीन की भी भरपूर दाद मिली। ये तो महज एक शुरूआत भर थी, बाद में मुशायरों में उन्हें जो शोहरत मिली उसे उर्दू अदब की दुनिया से वाकिफ सब लोग जानते हैं। ’ख़ुमार’ उनका तख़ल्लुस था। जिसके हिंदी मायने ’नशा’ होता है और उन्होंने अपने इस नाम को हमेशा चरितार्थ किया। उस दौर में रिवायत थी, हर शायर अपने नाम या तखल्लुस के साथ अपने शहर का नाम भी जोड़ लेते थे। लिहाजा मोहम्मद हैदर ख़ान का पूरा नाम हुआ, ख़ुमार बाराबंकवी। फिर आगे वे इसी नाम से पूरे देश-दुनिया में जाने-पहचाने गए।

ख़ुमार बाराबंकवी मुशायरों में अपनी गजलें तहत की बजाए तरन्नुम में पढ़ते थे। जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी से लेकर मजरूह सुल्तानपुरी तक उस दौर के ज्यादातर शायर, मुशायरों के अंदर तरन्नुम में ही अपनी गजलें पढ़ा करते थे। यह एक आम रिवाज था, जो सामयीन को भी काफी पसंद आता था। ख़ुमार बाराबंकवी भी उसी राह चले। उनकी आवाज और तरन्नुम गजब का था। जिस पर ग़ज़ल पढ़ने का उनका एक जुदा अंदाज़, हर मिसरे के बाद आदाब कहने की उनकी दिलफरेब अदा, उन्हें दूसरे शायरों से अलग करती थी। शुरुआती दौर में ख़ुमार बाराबंकवी ने अपने दौर के सभी बड़े शायरों के साथ मंच साझा किया। जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ जब वे मुशायरों में अपनी गजलें पढ़ते, तो एक समां बंध जाता।

अपने कलाम से वे लोगों को अपना दीवाना बना लेते। इश्क-मोहब्बत, मिलन-जुदाई के नाजुक एहसास में डूबी खुमार बाराबंकवी की गजलें सामयीन पर गहरा जादू सा करतीं। अपनी सादा जबान की वजह से भी वे आम जन में बेहद मकबूल हुए। खुमार बाराबंकवी का समूचा कलाम यदि देखें, तो वे अपनी गजलों में अरबी, फारसी के कठिन अल्फाजों का न के बराबर इस्तेमाल करते थे। मिसाल के तौर पर उनकी ग़ज़लों के ऐसे कई शे’र मिल जाएंगे, जो अपनी सादा जबान की वजह से ही लोगों में मशहूर हुए और आज भी उतने ही मकबूल हैं। ‘न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है/दिया जल रहा है हवा चल रही है।’, ‘कोई धोखा न खा जाए मेरी तरह/ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिए।’ इस तरह के अशआर आसानी से सामयीन के कानों से होते हुए, उनकी रूह तक उतर जाते हैं।

बहरहाल ख़ुमार बाराबंकवी थोड़े से ही अरसे में पूरे मुल्क में मशहूर हो गये। मुशायरे में उन्हें और उनकी शायरी को तवज्जो दी जाने लगी। यह वह दौर था, जब जिगर मुरादाबादी और ख़ुमार बाराबंकवी का किसी भी मुशायरे में होना, मुशायरे की कामयाबी की गारंटी माना जाता था। लोग इन्हें ही मुशायरे में सुनने आया करते थे। ख़ुमार बाराबंकवी की यह शोहरत, फिल्मी दुनिया तक पहुंची। फिल्मी दुनिया में उस वक्त उर्दू जबान और उसके अदीबों का बड़ा बोलबाला था। फिल्म निर्माता-निर्देशकों और संगीतकारों को अच्छी शायरी की समझ थी। लिहाजा वे अपनी फिल्मों से कोशिश करते कि उम्दा गीत-संगीत अवाम तक पहुंचे। जब भी अदबी फलक पर कोई बेहतरीन शायर चमकता, उसे फिल्मों के लिए दावत दी जाती।

ताकि उसकी मकबूलियत का फायदा फिल्मों को भी मिले। जोश मलीहाबादी, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, असद भोपाली से लेकर खुमार बाराबंकवी तक इसी तरह फिल्मी दुनिया में पहुंचे। साल 1945 में एक मुशायरे के सिलसिले में ख़ुमार बाराबंकवी का बंबई जाना हुआ। मुशायरे की इस रंगीन महफ़िल में मशहूर निर्देशक ए. आर. कारदार और मौसिकार नौशाद भी मौजूद थे। इन दोनों ने जब खुमार के कलाम को सुना, तो बेहद मुतास्सिर हुए और इन्हें फिल्म ‘शाहजहां’ के लिए साइन कर लिया। इस फिल्म के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को पहले ही साइन कर लिया गया था। ‘शाहजहां’, मजरूह सुल्तानपुरी की भी पहली फिल्म थी। डायरेक्टर और मौसिकार को एक और गीतकार की तलाश थी, जो ख़ुमार बाराबंकवी पर जाकर खत्म हुई।

इस तरह ख़ुमार बाराबंकवी का फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ। साल 1946 में आई फिल्म ‘शाहजहां’ अपने गीत-संगीत की वजह से उस दौर में बड़ी हिट साबित हुई। इस फिल्म के ये नगमे ‘चाह बरबाद करेगी’ और ‘ये दिल-ए-बेकरार झूम कोई आया है’ को खुमार बाराबंकवी ने ही लिखा था। इस फिल्म के बाद ‘रूपलेखा’, हलचल’, ‘जवाब’, ‘जल्लाद’ ‘दरवाजा’, ‘जरा बच के’ ‘बारादरी’, ‘दिल की बस्ती’, ‘आधी रात’, ‘मेहरबानी’, ‘मेहंदी’, ‘महफिल’, ‘शहजादा’, ‘कातिल’, ‘साज और आवाज़’ और ‘लव एंड गॉड’ वगैरह फिल्मों में उन्होंने गीत लिखे। जिसमें से ज्यादातर गाने बेहद मकबूल हुए। खास तौर से फिल्म ‘बारादरी’ के इन गानों ‘भुला नहीं देना, ज़माना ख़राब है’, ‘तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती’, ’दर्द भरा दिल भर-भर आए’, ’आग लग जाए इस ज़िन्दगी को’, ‘मोहब्बत की बस इतनी दास्ताँ है’ और ’आई बैरन बयार, कियो सोलह सिंगार’ ने तो उस वक्त जैसे धूम ही मचाकर रख दी थी।

इन गानों के अलावा ‘तुम हो जाओ हमारे, हम हो जायें तुम्हारे’ (फ़िल्म रूपलेखा), ‘लूट लिया मेरा करार फिर दिले बेकरार ने’ (फिल्म हलचल), ’अपने किये पे कोई परेशान हो गया’ (फ़िल्म मेहंदी), ‘सो जा तू मेरे राज दुलारे’, ‘आज गम कल खुशी है’ (फिल्म जवाब) ’एक दिल और तलबगार है बहुत’, ’दिल की महफ़िल सजी है चले आइए’, ’साज हो तुम आवाज़ हूँ मैं’ (फिल्म साज और आवाज), ‘इधर ढूढ़ता उधर ढूढ़ता हूँ..’ (फिल्म लव एंड गॉड) आदि उनके लिखे गीतों की भी कोई दूसरी मिसाल नहीं। अपनी बेजोड़ शायरी की वजह से ये गाने पूरे देश में खूब लोकप्रिय हुए।

फिल्मों में इतनी मकबूलियत के बावजूद ख़ुमार बाराबंकवी को फ़िल्मी दुनिया और उसका माहौल ज्यादा रास नहीं आया। जल्द ही उन्होंने फिल्मों से किनारा कर लिया और पूरी तरह से फिर मुशायरों की दुनिया में आबाद हो गए। ‘फिल्मों से वे क्यों दूर हुए ?’ अपने एक इंटरव्यू में इस सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था,‘‘मैं लिखता तब हूं, जब ऊपर वाला दिल से रू-ब-रू होता है। जबकि फ़िल्मों में ज़रूरत के हिसाब से लिखना पड़ता है, जो मुझसे नहीं हो पाया।’’ गीत, शायरी, नज्म और तमाम ऐसे रचनात्मक लेखन का सृजन इसी तरह से होता है। जो शायर-गीतकार फिल्मी दुनिया के इस सिस्टम में पूरी तरह से ढल गए, वे उसी के हो गए। जो नहीं ढल पाए, वे खुद ही उससे दूर हो गए। मुशायरे का माहौल खुमार बाराबंकवी में एक नया जोश भरता था। जो उन्हें और बेहतर रचने के लिए प्रेरित करता था। जबकि फिल्मों में नगमानिगारों को मौसिकार की धुन पर नगमों को लिखना पड़ता है।

यह एक अलग ही तरह ही रचना प्रक्रिया है, जिसमें खुमार बाराबंकवी फिट नहीं बैठे। खुमार बाराबंकवी के कलाम में ज्यादातर गजलें हैं। वे बुनियादी तौर पर गजलगो ही थे। जिनकी गजलगोई का कोई सानी नहीं था। उन्होंने नज्में न के बराबर लिखीं। मुल्क में जब तरक्की पसंद तहरीक अपने उरूज पर थी और ज्यादातर बड़े शायर फैज अहमद फैज, जोश मलीहाबादी, फिराक गोरखपुरी, मख्दूम नज्म लिख रहे थे, तब भी खुमार बाराबंकवी ने गजल का दामन नहीं छोड़ा। हसरत मोहानी, जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुल्तानपुरी की तरह उनका अकीदा गजल में ही रहा। अपने शानदार अशआर से उन्होंने गजल को अज्मत बख्शी। वे मुशायरें में शायरी इस अंदाज में पढ़ते, जैसे सामयीन से गुफ्तगू कर रहे हों। अपनी शायरी और ख़ूबसूरत तरन्नुम से खुमार बाराबंकवी मुशायरे को नई ऊंचाईयों पर पहुंचा देते थे। सामयीन उन्हें घंटों सुनते, मगर उनका जी नहीं भरता। मुशायरों में इस तरह की मकबूलियत बहुत कम शायरों को हासिल होती है।

ख़ुमार बाराबंकवी की एक नहीं, कई ऐसी गजलें हैं, जो आज भी उसी तरह से गुनगुनाई जाती हैं। इन गजलों की सादा बयानी, उन्हें बाकी शायरों से अलग करती है। मिसाल के तौर पर उनकी मशहूर गजलों के कुछ अशआर हैं, ‘तेरे दर से जब उठके जाना पड़ेगा/खुद अपना जनाज़ा उठाना पड़ेगा/अब आँखों को दरिया बनाना पड़ेगा/तबस्सुम का क़र्ज़ा चुकाना पड़ेगा/‘खुमार’ उनके घर जा रहे हो तो जाओ/मगर रास्ते में ज़माना पड़ेगा।’, ‘वही फिर मुझे याद आने लगे हैं/जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं/सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं/तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं/……क़यामत यकीनन क़रीब आ गयी है/‘ख़ुमार’ अब तो मस्जिद जाने लगे हैं।’, ‘बुझ गया दिल हयात बाक़ी है/छुप गया चाँद रात बाक़ी है /हाल-ए-दिल उन से कह चुके सौ बार/अब भी कहने की बात बाक़ी है/न वो दिल है न वो शबाब ‘ख़ुमार’/किस लिए अब हयात बाक़ी है।’, ‘इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए/दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए/भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम/क़िस्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हम से पूछिए/आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए/अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए/हम तौबा कर के मर गए बे-मौत ऐ ‘ख़ुमार’/तौहीन-ए-मय-कशी का मज़ा हम से पूछिए।’

मुशायरों और फिल्मों में मशरुफियत के चलते ख़ुमार बाराबंकवी ने अपनी किताबों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। बावजूद इसके उनकी जिंदगी में ही चार किताबें ‘शब-ए-ताब’, ‘हदीस-ए-दीगरां’, ‘आतिश-ए-तर’ और ‘रक्स-ए-मय’ शाया हो गईं थीं। इन किताबों को भले ही कोई बड़ा अदबी अवार्ड न मिला हो, पर अवाम में ये खूब मकबूल रहीं और आज भी ये किताबें उसी तरह से बिकती हैं। कई यूनिवर्सिटी के सिलेबस में खुमार बाराबंकवी की किताबें पढ़ाई जाती हैं। जहां तक इनाम-ओ-इकराम और एजाज का सवाल है, तो उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, जिगर मुरादाबादी उर्दू अवार्ड, उर्दू सेंटर कीनिया, अकादमी नवाये मीर उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद, मल्टी कल्चरल सेंटर ओसो कनाडा, अदबी संगम न्यूयार्क, दीन दयाल जालान सम्मान वाराणसी, कमर जलालवी एलाइड्स कालेज पाकिस्तान वगैरह एजाजों से नवाजा गया है। अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में ख़ुमार बाराबंकवी काफी तकलीफ में रहे। माली तौर पर भी और जिस्मानी तौर पर भी। लंबी बीमारी के बाद 19 फरवरी, 1999 को उन्होंने इस जहान-ए-फानी को यह कह कर हमेशा के लिए अलविदा कह दिया, ‘अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई ‘ख़ुमार’/अब मुझ को ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही।’

ज़ाहिद खान
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