किसान आंदोलनः हिंदुत्व के महाख्वाब से बाहर आकर अपनी जड़ों की तरफ लौटने को तत्पर गांव

हां, दिल के करीब है खेती-किसानी। और, दिमाग के? ढेरों सवाल उमड़ पड़ते हैं। खेती करना घाटे का सौदा है; यहां तो बस जिंदगी थमी सी रहती है; काम करते जाओ बैल की तरह और बस उस जैसा ही हो जाओ! फिर भी किसान जमीन से चिपटा हुआ है। छोड़ ही नहीं पा रहा है। सरकार है कि उसे उस चिपटी हुई जमीन को छुड़ा लेना चाहती है। बता रही है कि यह जो तुम्हारे दिल से चिपटा हुआ है कमजोर हो चुका है, मर रहा है, …इसे छोड़ो और आगे बढ़ो! लेकिन, किसान हैं कि नहीं छोड़ रहे हैं। सरकार किसान के दिल से चिपटी हुई जमीन को जुदा करने के लिए कानून ले आई। किसान ने मानने से इंकार कर दिया। सरकार ने तर्क दिया, तुमने हमें चुना है तो हमारा हक है कि इस सिलसिले में कानून लाएं और तुम्हें इस मरती अर्थव्यवस्था से मुक्त कर सकें। किसान ने कहा, तुमने तो हमसे पूछा नहीं और हमारे भविष्य पर क्यों लाद दी पहरेदारी। नहीं चाहिए यह कानून वापस ले जाओ।

कोर्ट ने कहा, फिलहाल हम इस कानून पर रोक लगाते हैं और कमेटी बनाकर बात करते हैं। किसानों ने कहा, तुम कौन हो बीच में कूद मारने वाले। एक बढ़कर बोलने वाले अर्थशास्त्री ने ललकारा, क्या सरकार हर किसान से पूछकर कानून बनाएगी, क्या ऐसे बनता है कानून और चलता है देश? बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने सरकार से पूछा किन-किन किसानों से बात किए हो? सरकार ने चुप्पी साधना बेहतर समझा। विपक्ष ने सरकार से किसानों के साथ एक पुल बनाने का प्रस्ताव दिया, जिस पर बात हो सके। सरकार ने राहों में कीलें और कटीलें तारें जड़ दीं।

सरकार जितना ही किसानों की जमीन को छीनने के करीब गई वह किसानों से उतना ही दूर होती गई। यह सब युद्ध के नजारे जैसा हो गया। जो लोग किसानों के करीब गए, सरकार की नजर में खतरनाक लोगों में बदल गए। शक और सुबहे का गुबार बन गया। सरकार के नुमाइंदों से लेकर सरकार समर्थक पार्टी और कुछ अर्थशास्त्री-बुद्धिजीवियों ने इन विरोध करते किसानों को किसान मानने से इंकार कर दिया और विरोध में डटे किसानों को बहकाए हुए किसान का तमगा दे दिया गया। सरकार ने अपने पक्ष में बहस का सिलसिला चला दिया लेकिन बात बनी नहीं।

सरकार के तर्क से सहमत अर्थशास्त्री भी बोलने लगे, किसानों के साथ वार्ता करने के लिए कुछ बेहतर रास्ता तो अख्तियार करना ही पड़ेगा तभी समस्या का हल निकलेगा, लेकिन, बहकाए हुए किसानों का तर्क चलता रहा। लाल किले पर निशान साहिब का झंडा फहराने की घटना को ‘देश का स्तब्ध करने’ से जोड़ दिया गया। तिरंगा की इज्जत का सवाल किसानों के सिर दे मारा गया, लेकिन तब तक मसला तेजी के साथ अंतरराष्ट्रीय होने की ओर बढ़ गया। किसान का सवाल मानवता के सवाल से जा जुड़ा।

राष्ट्रीयता बनाम अंतरराष्ट्रीयता का यह विभाजन देश की सीमा से अधिक जन के अस्मिता और अस्तित्व से ज्यादा जुड़ाव के साथ आया। निश्चय कीलें और कटीलें तार दो देशों की सीमा पर उतनी नहीं चुभतीं जितनी देश के भीतर बनाई गई बाड़ेबंदी से। हालांकि, इस बात को कौन भूल सकता है कि जिस गांव-समाज को आदर्श बताया जाता है, वहां जाति और धर्म की बाड़ेबंदी है। कई बार यह दिखता है और कई बार नहीं, लेकिन, यह बाहर दृश्य के तौर पर कम और दिमाग, जबान और व्यहार में अधिक दिखता है।

और, जब यह जेहन से फूटकर बाहर निकलता है तो यह विभाजन पूरी गजालत के साथ दिखने लगती है। तो, इस आदर्श लोकतंत्र में यह बाड़ेबंदी जितनी आसानी से कर दी गई उसके पीछे यह ग्राम-समाज का ही तर्क है। शहर और गांव का विभाजन में गांव तो गंवार ही है। शासक तो हमेशा ही शहरी होता है या शहर में जाकर बसता है। तो, क्या शहर गांव की अर्थव्यवस्था पर दावा कर रहा है? शायद, यही सही है।

भूमि अधिग्रहण की नीति को किसानों ने तभी तक स्वीकार किया जब तक उसके एक हिस्से की जमीन को कब्जा किया गया और मुआवजे के तौर पर इतना पैसा दिया गया जितना उसने किसानी जिंदगी में सोचा भी नहीं था। हां, मैं दिल्ली एनसीआर और हाइवे के किनारों की जमीनों के बारे में बात कर रहा हूं। उन किसानों की नहीं जो झारखंड, उड़ीसा, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बसते हैं। भारत में बीसवीं सदी का अंत उपभोक्ता समूह के पैदा होने और उपभोग की असीम आकांक्षा में ‘तर्कवादी’ हो गया था।

मुझे अरविंद अडिगा का व्हाइट टाइगर की याद आ रही है, जिसमें व्यक्तिगत आकांक्षा, जातीय जकड़न को तोड़ने की ओर नायक को ले जाती है, जबकि जान रहा है कि इस प्रक्रिया में उसका पूरा परिवार खत्म हो जाएगा, लेकिन वह इसके बावजूद बढ़ता है। सामूहिक हिंसा का प्रतिकार एक ऐसे व्यक्तिगत निर्णय में होता है, जिसमें मुक्ति का अभास छिपा हुआ है। इस पर बनी हुई फिल्म भी देखी जा सकती है।

क्या भूमि अधिग्रहण ने जमीन की जोत का पैटर्न बदल दिया? नहीं। हां, फिक्स्ड कैपिटल और पूंजी निर्माण के वाल्यूम को बढ़ा होते हुए जरूर दिखा दिया। दूसरी बात यह भी हुई कि बड़े पूंजीपतियों में जमीन की भूख को बढ़ा दिया। इस भूख को कैसे पूरा किया जाए? जब सरकारों ने भारत में जमीन की जोत के पैटर्न को बदलने में 1947 के बाद से इस कदर धीमा रखा कि 1985 तक बहुत बढ़ाकर भी आंकड़ा पेश किया जाए तो यह महज कुल कूती हुई जमीन का ढाई से तीन प्रतिशत हो गया। 1985 के बाद तो जमीन जोतने वाले को और जमीन जोत सुधार को ही दरकिनार कर जमीनों के अधिग्रहण कर बड़ी जमीन बनाने के सिलसिले को सशर्त मंजूरी दे दी गई।

1990-95 के बाद के दौर में गैट और विश्व-व्यापार संगठन के साथ भारत जुड़कर मानो इस सवाल को सदा के लिए छोड़ दिया गया। ऐसे में जब जमीन की जोत को बदलने के लिए सरकारों ने हिम्मत नहीं जुटाई या यूं कहें कि जमीन की जोत पर काबिज लोगों के पक्ष में भारत की कृषि और अर्थव्यवस्था को बनाए रखे। तब जमीन के जोत को कैसे बदला जाए? सरकार ने यह काम ‘बाजार के नियमों’ पर छोड़ दिया। इसके लिए वह तीन खेती कानून ले आई।

हम सभी जानते हैं कि 1990 के बाद किसानों की मौत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक खत्म नहीं हुआ। आत्महत्या करने वाले किसानों की अधिकतम संख्या उनकी ही है जो कर्ज के आधार पर बाजार के लिए खेती कर रहे थे। ये कर्ज बैंक, निजी मुद्रा व्यापारी और सूदखोरों से लिए और उत्पाद बाजार के खरीददारों के लिए किया जा रहा था। आज, जब एक बार फिर बाजार का हवाला देकर मध्यम और छोटे किसानों की घाटे की खेती का हवाला दिया जा रहा है, तब सरकार किन सुरक्षाओं का वादा कर रही है? किसान अपनी जिंदगी के अनुभवों से जानते हैं ये वादे हैं और वादों का क्या? उन्हें उनके अपने अनुभव बता रहे हैं कि बाजार उनके दरवाजों पर मौत का फरमान लिए दस्तक देगी। ऐसी स्थिति में वे किसके पास जाएंगे।

मुद्रा व्यापारियों के पास, सूदखोरों के पास, सरकार के पास, …किसके पास। बाजार में रोजगार के लिए किसके पास जाएंगे? वे जिस जकड़न में फंसेंगे, उसमें जमीन अधिग्रहण जैसी रकम भी नहीं मिलेगी बल्कि वे खेत कर्ज चुकाने की भेंट चढ़ जाएंगे। बड़े पूंजीपतियों की जमीनों पर कब्जेदारी मुआवजे की रकम से नहीं सूदखोरी की उसी नीति पर अमल कर करेंगे, जिसके बारे में प्रेमचंद अपने उपन्यासों में लिख चुके हैं।

आज, जब हम कोविड की लॉकडाउन पॉलिसी से गरीब, भूमिहीन, निम्न खेतिहर समुदायों और मजदूरों को रोजगार खोकर जीवन की तलाश में शहर से गांव जाते हुए विहंगम दृश्य को देख चुके हैं तब भी बिना विकल्प दिए गरीब, मध्यम और धनी किसानों को बाजार का सब्जबाग दिखाना सचमुच भारतीय अर्थव्यवस्था के असल मालिकों की धृष्टता, धूर्तता और क्रूरता के चरित्र को ही दिखाता है। आज गांव का जीवन कठिन हो चुका है, लेकिन क्या शहर की जिंदगी बेहतर हो गई है।

गांव में बैल की तरह अभी भी खटना पड़ रहा है और बदले में कुछ नहीं मिलता, लेकिन क्या शहर में जिंदगी जीने भर का पैसा मिल जाता है। आज भी गांव में देश की 70 से 75 प्रतिशत आबादी रहती है। क्या शहर इस आबादी के आधे हिस्से को संभाल पाएगा। गांव का समाज अब भी जाति और धर्म की विषमताओं के साथ ‘नर्क’ में डूबा हुआ है। क्या शहर में ये ‘नर्क’ खत्म हो गए हैं और लोग ‘नागरिक’ हो गए हैं।

गांव में अब देसी भाषा और धीमी गति के साथ जिंदगी चल रही है, कई बार लगता है कि बस ठहर गई है और संड़ाध सी है। क्या शहर में एक भाषा और सामूहिक जिंदगी इतनी गतिमान हो गई है कि हर तरफ सिर्फ जिंदगी दिखाई दे। शहर और गांव के बीच विभाजनों के तुलनात्मक सवाल और भी हैं। वैश्वीकरण का दौर लगभग तीस साल पूरा कर चुका है। इससे भारत को क्या मिला? बाजार का तर्क बस एक सब्जबाग की तरह चलता जा रहा है। जो मैट्रोपॉलिटन देशों से शहर में उतरता हुआ हमारे कस्बों तक जाता है और हमारी असल जिंदगी की हकीकत को नजरों के सामने रहते हुए भी ओझल बनाए रखता है।

किसान नेता राकेश टिकैत के आंसूओं ने कुछ हद तक इस सब्जबाग को धोया है। हिंदुत्व के महाख्वाब से बाहर आकर गांव एक बार फिर उसी पैटर्न पर गोलबंद हो रहा है जो उसे परंपरा, विरासत में मिला है। जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र, …के आधार पर होती गोलबंदी में संभव है कुछ लोग प्रतिक्रियावाद को ढूंढ़ निकालें, …लेकिन निश्चय ही यह हिंदुत्ववाद से कम ही होगा। इससे इतर गोलबंदी के लिए निश्चय ही जोर लगाकर काम करना होगा। भारत की अर्थव्यवस्था के इस संकट और उससे निजात पाने के लिए दिए जा रहे तर्कों में भिड़ना होगा। यह सिर्फ गांव और शहर का मसला नहीं है। यह देश की अर्थव्यवस्था के संकट का मामला है। यह संकट बेहद गंभीर है।

  • जयंत कुमार
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