दैत्याकार चरण में महामारी: समन्वय का अभाव और निर्णयों का अक्षम क्रियान्वयन सबसे बड़ी समस्या

आज की ताजा स्थिति के अनुसार, कोरोना संक्रमण के पीड़ितों की वैश्विक स्थिति में भारत पांचवें नम्बर पर आ गया है। कुल 2,45,670 मामले सामने आए हैं और 6,913 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। इसी के साथ यह भी खबर है कि अब तालाबंदी लगभग खत्म की जा चुकी है और धीरे-धीरे सभी सार्वजनिक प्रतिष्ठान खोले जा रहे हैं। लॉकडाउन में सरकार, अब क्या करे क्या न करे, क्या खोले, क्या बंद करे, इस पर वह कुछ तय ही नहीं कर पा रही है। जबकि कोरोना का संक्रमण बढ़ता ही जा रहा है। क्या सरकार कुछ विषम और उहापोह परिस्थितियों में खुद को, घिरी पा रही है और निर्णय धुंधता की स्थिति में भटक गयी है ?

ऐसी विषम स्थिति में देश का हेल्थ केयर इंफ्रास्ट्रक्चर जो पहले से ही बहुत सुदृढ़ नहीं था, अब इस बिगड़ती हुई स्थिति में महामारी के इस दैत्याकार प्रसार को कहां तक झेल लेगा, यह सोचने की बात है। एक तरफ लॉक डाउन अगर बरकरार रखा जाता है तो यह स्थिति कब तक रहेगी और इस बंदी की स्थिति का क्या और कैसे लाभ उठाया जा सकेगा ? आर्थिक स्थिति की जो खबरें आ रही हैं वह तो और भी भयावह हैं। एक तरफ कुआं है और दूसरी तरफ खाईं। पब्लिक हेल्थ और देश की अर्थव्यवस्था दोनों ही स्तर पर जो चुनौतियां सामने खड़ी हैं आखिर उसका समाधान क्या है ?

देश के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जो ताजा आदेश निकाला है उसके अनुसार ‘कोरोना संक्रमित जिन मरीजों में बीमारी के लक्षण नहीं हैं या बेहद ही कम लक्षण हैं, उन्हें अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत नहीं है। यदि फिर भी कोई मरीज बिना संक्रमण के लक्षण के अस्पताल में भर्ती होता है तो उसे अस्पताल में भर्ती करने के 24 घंटे के भीतर डिस्चार्ज कर दिया जाना चाहिए।

यह आदेश सरकार की कोरोना से लड़ने की पुरानी नीतियों के बिल्कुल ही विपरीत है। इसका अर्थ यह है कि लक्षण विहीन या कम लक्षण वाले मरीज के कोरोना पॉजिटिव होने पर भी अब उसे अस्पताल में भर्ती किये जाने से मना किया जा सकता है। और यदि वह भर्ती हो भी गया है तो उसे 24 घण्टे के भीतर अस्पताल से डिस्चार्ज किया सकता है।  यह एक खतरनाक स्थिति हो सकती है।

इस नये निर्देश से यह सवाल उठता है कि.अगर कोरोना संक्रमित मरीज को घर पर ही रहने देना था तो, फिर क्वारंटाइन सेंटर बनवाये ही क्यो गए थे ? यदि क्वारंटाइन सेंटर बनवाना सही था तो आज इस नयी गाइडलाइंस की ज़रूरत कैसे पड़ी ? एक तरफ तो देश की तालाबंदी खोली जा रही है और दूसरी तरफ ऐसे निर्देश जारी किये जा रहे हैं, जिससे संक्रमण के औऱ फैलने की आशंका बढ़ती जा रही है।

यह बदलते निर्देश, जो कहा जा रहा है और जो लाखों रुपये खर्च कर विज्ञापनों के माध्यम से प्रचारित किया जा रहा है, वह धरातल पर नहीं दिखता है। दिल्ली सरकार कह रही है कि उसके पास अतिरिक्त बेड की कमी नहीं है। उसके अस्पताल समृद्ध हैं। पर यह भी खबरें आ रही हैं कि अस्पताल दर अस्पताल भटकते हुए लोग अपने मरीजों को अपने सामने ही दम तोड़ते देख रहे हैं। निजी अस्पताल अमूमन, मरीज़ लेने से मना कर रहे हैं। या तो सरकार की व्यवस्था दुरुस्त नहीं है या न तो निजी अस्पताल और न ही सरकारी अस्पताल, कोई भी सरकार की सुन रहा है।

आज जब इस घातक महामारी का असर, लोगों की जेब, नौकरी, आय और जीवन पर पड़ रहा है तो निजी अस्पतालों ने कोविड के इलाज के लिये जो रेट तय किये गए हैं, उन्हें भी एक नज़र देख लीजिए। एसोसिएशन ऑफ हेल्थ केयर प्रोवाइडर्स (इंडिया) ने 21 राज्यों के अस्पतालों से चर्चा करने के बाद कोविड उपचार राशि को तय किया है। जिसके तहत प्रतिदिन अधिकतम 35 हजार रुपये की फीस शामिल है। कोविड उपचार को चार चरण में बांटते हुए फीस को तय किया है।

● अगर कोई मरीज सामान्य वार्ड में भर्ती होता है तो 15 हजार रुपये से ज्यादा नहीं लिए जा सकेंगे। 

● अगर कोई मरीज ऑक्सीजन के साथ वार्ड में है तो 20 और आइसोलेशन आईसीयू में तो 25 हजार रुपये अधिकतम शुल्क तय किया गया है। 

● अगर मरीज आईसोलेशन आईसीयू में है और वह वेंटिलेटर की स्थिति में है तो 35 हजार रुपये अधिकतम फीस तय की है। 

● इनमें इम्युनोग्लोबुलिन, टोसिलिजुमाब, प्लाज्मा थेरेपी जैसी दवाओं का खर्च शामिल नहीं है।

एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. अलेक्जेंडर थॉमस ने बताया कि कोविड मरीजों की वृद्धि के अलावा निजी अस्पतालों में उपचार लागत में पारदर्शिता न होने से जुड़ी शिकायतें मिल रही थीं। ऐसे में यह विचार आया कि कोविड महामारी के इस दौर में अस्पतालों में फीस एक जैसी तय होनी चाहिए। इसीलिए एसोसिएशन से जुड़े देश भर के सभी निजी अस्पतालों के संचालकों की आपसी रजामंदी के बाद फीस का निर्धारण किया गया है।

अब इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट का भी एक निर्देश पढ़ लीजिए। सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि, जब इन अस्पतालों को सस्ती दर पर सरकार ने ज़मीनें दी हैं तो, फिर ये कोविड 19 का इलाज मुफ्त क्यों नहीं कर सकते हैं ? इस महामारी से पीड़ित जनता का इलाज सरकारी अस्पताल में हो या निजी अस्पताल में उसका इलाज कम से कम पैसे में होना चाहिए, क्योंकि यह एक असामान्य परिस्थिति है। सामान्य परिस्थितियों में निजी अस्पताल तो महंगे इलाज करते ही हैं और कोई आपत्ति करता भी नहीं है। क्या यह विशेष सुविधा, केवल कोविड 19 के मरीजों के लिये जब तक यह आपदा  है, तब तक के लिये नहीं उपलब्ध करायी जा सकती है।

मरीज़ों में बहुत से लोगों ने अपना मेडिक्लेम कराया होगा या, उन्हें सरकारी रूप से इलाज का खर्च भी मिल जाता होगा, वे यह व्यय सहन करने में भले ही सक्षम हों, पर असल समस्या उनकी है जिनके पास न तो, मेडिक्लेम है और न ही सरकार से इलाज का व्यय पाने का कोई अधिकार।

सरकार, इस महामारी आपदा में अपने विशेषज्ञों, चिकित्सा वैज्ञानिकों और तकनीकी जानकारों से भी उचित समन्वय नहीं रख पा रही है। ऐसा दृष्टिकोण है देश के सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा विज्ञान के केंद्र एम्स के एक प्रोफेसर का। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक डॉक्टर ने सरकार की कोविड नीति के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा है कि

” सरकार की कोरोना से निपटने की जो नीतियां हैं वह किसी प्रोफेशनल द्वारा नहीं, बल्कि सामान्य चिकित्सकों क्लीनिसियन्स और सचिवालय के अफसरों द्वारा बनायी गयी हैं। जबकि यह नीतियां, बजाय नौकरशाहों के महामारी के विशेषज्ञ, एपिडोमोलाजिस्ट और जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञों द्वारा बनायी जानी चाहिए थीं। 

नौकरशाहों और सामान्य चिकित्सकों के अनुभव के आधार पर इतनी घातक और बड़ी महामारी के संबंध में कोई कारगर कार्य योजना नहीं लागू की जा सकती है।”

इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में संपादक के नाम लिखे एक पत्र में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के गैस्ट्रोइंटेरोलॉजी के विभागाध्यक्ष डॉ. अनूप सराया ने यह बात कही है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि, 

” किसी भी वैज्ञानिक और विशेषज्ञ के सलाहकार पैनल का लाभ तभी मिल सकता है जब वह सलाहकार समूह हर समस्या पर खुले मन से स्वतंत्र होकर समस्त विचारों को साथ लेकर विचार करे और तब निष्कर्ष पर पहुंचे। प्रोफेशनलिज़्म का मूल मंत्र ही है कि हर समस्या और बिंदु पर सूक्ष्मता पूर्वक विचार कर एक निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। “

डॉ. सराया कहते हैं कि, 

” दुर्भाग्य से खुलेपन से विचार-विमर्श की यह संस्कृति, तब भुला दी जाती है जब सरकार की वैज्ञानिक मामलों की सलाहकार परिषद, में बजाय महामारी की रोकथाम और चिकित्सा से जुड़े प्रोफेशनल और विशेषज्ञों के, सामान्य नौकरशाह अधिक स्थान पा जाते हैं जो अक्सर प्रोफेशनल और विशेषज्ञों के राय मशविरे पर बहुत ध्यान नहीं देते हैं। “

डॉ. सराया आगे अपने पत्र में लिखते हैं,

” विचार विमर्श में अगर पारदर्शिता रहती है और उन विचार विमर्शों पर अगर अन्य  प्रोफेशनल विशेषज्ञों के बीच खुल कर बहस होती है तो कई समस्याओं के बारे में न केवल नए समाधान सूझते हैं बल्कि उनके सफल क्रियान्वयन में भी मदद मिलती है। इससे नीतियों में अगर खामियां हैं तो उन खामियों को दूर कर एक त्रुटि रहित परामर्श पर पहुंचा जा सकता है। “

कोई भी अध्ययन, उपलब्ध आंकड़ों के ही आधार पर किया जाता है और अगर आंकड़े ही त्रुटिपूर्ण रहें तो उस अध्ययन का त्रुटिरहित निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है ? अतः पारदर्शिता के साथ सभी आंकड़ों को एकत्र कर के उसे वैज्ञानिकों और जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञों से अध्ययन के लिये साझा करना होगा और जनता को भी वास्तविक आंकड़े से परिस्थितियों और समस्याओं के बारे में जागरूक करना होगा। इससे न केवल जन जागरूकता में वृद्धि होगी बल्कि इन समस्याओं के समाधान की ओर भी हम दृढ़ कदमों से बढ़ सकते हैं।

डॉ. सराया जन स्वास्थ्य के कई बिन्दुओं पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मेडिकल शोध जर्नलों में अपने शोध निष्कर्ष लिखते रहते हैं और जनस्वास्थ्य के मुद्दे को जन जागरूकता के माध्यम से हल करने की बात कहते हैं। वे कोविड 19 का क्या असर समाज के जन स्वास्थ्य पर पड़ेगा, इस विषय पर भी अध्ययन कर रहे हैं। साथ ही इस भयानक वैश्विक आपदा में पेशेवर हेल्थ केयर विशेषज्ञों और नीति नियंताओं की क्या भूमिका होनी चाहिए, इस विषय पर भी वे काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि, महामारी की इस आपदा में केवल सरकार के नीति नियंताओं और मेडिकल विशेषज्ञों के ही भरोसे नहीं रहा जा सकता है, जनता को स्व स्वास्थ्य के लिये भी जागरूक होना पड़ेगा।

सभी नागरिकों, सरकार के सभी विभागों, तथा विभिन्न संगठनों और निजी रूप से सबको, महामारी की आपदा से लड़ने के लिये सन्नद्ध होना पड़ेगा। यह जुड़ाव, नीति बनाने के लिये सरकार और विशेषज्ञों को जमीनी हकीकत से रूबरू कराने और फिर उसे समाज के हर तबके तक पहुंचाने की कोशिश होनी चाहिए। डॉ. सराया ने पत्र में लिखा है कि,

” सरकार के नेतृत्व समूह में समाज वैज्ञानिकों और जनता की बात इस महामारी के संबंध में जो लोग पहुंचा सकें, उनका अभाव है। “

राष्ट्रीय तालाबंदी के समय में भी सरकार और मीडिया के आंकड़ों में शुरू में अंतर रहा। यहां तक कि सरकार के अधिकृत आंकड़ों और अस्पतालों के आंकड़ों में भी अंतर रहा। सरकार यह कहती रही कि, आंकड़े से ग्राफ का उभार कम होगा और ग्राफ सीधी रेखा में जिसे फ्लैटन द कर्व कहते हैं, हो जाएगा। सरकार ने यह कहा कि कोरोना से आसानी से 21 दिन में कंट्रोल किया जा सकेगा, लेकिन जब न तो लॉक डाउन प्रभावी रूप से लागू किया जा सका और न ही कोरोना के संक्रमण पर ही कोई नियंत्रण हो सका तो अब सरकार खुद को एक उहापोह की स्थिति में पा रही है। इस आपदा को लेकर, सरकार का एक भी दावा सही नहीं हो पा रहा है। अब चिकित्सा विशेषज्ञों का यह आकलन है कि, अगले एक दो महीनों में, हम इस आपदा के संक्रमण के मामले में शिखर पर पहुंचेंगे।

नीतियां बनाना और उन नीतियों को लागू करना यह मूल रूप से सरकार का ही दायित्व है। सरकार का यह भी काम है कि, वह महत्वपूर्ण रणनीतिक निर्णय करे और विभिन्न विभागों में समन्वय के साथ, एक लक्ष्यभेदी योजना पर काम करे। जनता को इन सब योजनाओं और उनके हालात से भी अवगत कराए। लेकिन ऐसी योजनाओं की रणनीति, नीति और क्रियान्वयन योजनाओं के गठन में तकनीकी विशेषज्ञों की एक प्रमुख भूमिका होनी चाहिए।

अपने इस पत्र में डॉ. सराया ने यह भी लिखा है कि, एम्स के दो डॉक्टर और आईसीएमआर यानि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के दो सदस्यों ने, कोविड 19 के संक्रमण के नियंत्रण के संबंध में बनायी जा रही योजनाओं को लेकर उनकी सफलता पर संदेह व्यक्त किया था। क्योंकि न तो योजनाएं उचित रूप से बनायी गयी थीं और न ही उनके कार्यान्वयन के बारे में गंभीरता से सोचा गया था। इन चार सदस्यों ने बेहतर योजनाओं और उसके बेहतर तरीके से क्रियान्वयन के लिये अपने सुझाव भी दिए थे।

पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन और इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेन्टिव एंड सोशल मेडिसिन जो जन स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का एक बड़ा संगठन है जिसमें हेल्थ अकादमिक विद्वान, चिकित्सक, और शोधकर्ता भी हैं ने एक संयुक्त बयान जारी करके, एक पब्लिक हेल्थ कमीशन, जन स्वास्थ्य आयोग के गठन का सुझाव दिया है। यह आयोग, जन स्वास्थ्य के विभिन्न मुद्दों पर एक विशिष्ट कार्यबल के रूप में जन स्वास्थ्य से जुड़े मामलों का अध्ययन करेगा और उसके निवारण के लिये समाधान सुझाएगा।

डॉ. सराया जो कह रहे हैं वही बात देश की अर्थव्यवस्था के संबंध में भाजपा के ही सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी भी कह चुके हैं। उन्होंने इसी भ्रम और अर्थव्यवस्था में सुधारात्मक कदम न उठाने के लिये सरकार में प्रतिभा के अभाव की बात कही है। सरकार के निर्णय तो जैसे होते हैं, वैसे होते ही हैं, सरकार अपने ही निर्णय को कुशलता पूर्वक लागू भी नहीं करा पाती है। चाहे मामला नोटबंदी का हो, या जीएसटी का या लॉक डाउन का या अब अनलॉक करने का हर बिंदु पर सरकार असफल रही है और सरकार ने अपनी प्रशासनिक अक्षमता का ही परिचय दिया है।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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