कानून को बुल-डोज़ करके लागू नहीं किया जा सकता है

उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2022 के चुनाव में एक अजीबोगरीब मुद्दा उठ गया है, बुलडोजर का। यह मुद्दा उठाया है भारतीय जनता पार्टी ने और उनके अनुसार, यह मुद्दा यानी बुलडोजर, प्रतीक बन गया है गवर्नेंस का यानी शासन करने की कला के नए उपकरण के रूप में अब कानून के प्राविधान, अदालती प्रक्रिया नहीं बल्कि ठोक दो, तोड़ दो, फोड़ दो, का नेतृत्व करने वाला बुलडोजर अवतरित हो गया है। पर बुलडोजर तो मूलतः ध्वस्त करने वाली एक बड़ी मशीन है जो तोड़फोड़ करती है। दरअसल भाजपा के राज में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये जिस आक्रामक नीति की घोषणा 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा की गयी है वह थी ठोक दो नीति। यह अपराधियों और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने वालों के प्रति अपनाई जाने वाली एक आक्रामक नीति है, जो अपने नाम और सख्ती बरतने के लिये कुछ लोगों में लोकप्रिय और सरकार की छवि को एक सख्त प्रशासक के रूप में दिखाती थी। ठोंक दो की नीति, हालांकि इस नीति का कोई कानूनी आधार नहीं है और न ही कानून में ऐसे किसी कदम का प्राविधान है, के लागू करने से अपराधियों पर इसका असर भी पड़ा है और जनता ने इसकी सराहना भी की है।

कुछ हद तक यह बात सही भी है कि इस आक्रामक ठोंक दो नीति के अनुसार भू माफिया और संगठित आपराधिक गिरोह के लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने से न केवल कुछ संगठित आपराधिक गिरोहों का मनोबल गिरा बल्कि जनता को भी उनके आतंक से कुछ हद तक राहत मिली। पर इसी नीति और बुलडोजर पर पक्षपात के आरोप भी लगें। एक धर्म विशेष के माफिया सरगनाओं के खिलाफ जानबूझकर कार्यवाही करने के तो एक जाति विशेष के कुछ माफियाओं पर कार्यवाही न करने के आरोप भी सरकार पर लगे। कार्यवाही का आधार प्रतिशोध है, यह भी आरोपों में कहा गया और अब भी कहा जा रहा है। यहीं यह  सवाल भी उठता है कि क्या कानून व्यवस्था को लागू और अपराध नियंत्रण करने के लिये कानूनी प्राविधानों को बाईपास करके ऐसे रास्तों को अपनाया जा सकता है, जो कानून की नज़र में खुद ही एक अपराध है?

यह सवाल, उन सबके मन में उठता है जो कानून के राज के पक्षधर हैं और समाज में अमन चैन, कानूनी रास्ते से ही बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए विधिनुरूप शासन व्यवस्था में रहने के इच्छुक अधिकांश लोग चाहे बुलडोजर हो या ठोंक दो की नीति के अंतर्गत की जाने वाली इनकाउंटर की कार्यवाहियां, इन्हें लेकर अक्सर पुलिस पर सवाल उठाते रहे हैं और ऐसे एनकाउंटर्स की सरकार जो खुद भी, भले ही ठोंक दो नीति की समर्थक और प्रतिपादक हो न केवल जांच कराती है बल्कि दोषी पाए जाने पर दंडित भी करती है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर जिले स्तर तक गठित सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठन इस बात पर सतर्क निगाह रखते हैं कि कहीं सरकार की जबर नीति के कारण व्यक्ति को प्राप्त उसके संवैधानिक और नागरिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है। फिर बुलडोजर और ठोक दो नीति की बात करने वालों के निशाने पर पुलिस और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के वे अफसर ही रहते हैं जो सरकार की इन्ही नीतियों के अंतर्गत कानून और कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करके कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये कानून को बाईपास करके खुद ही एक गैर कानूनी रास्ता चुनते हैं जिसे कानून अपने प्राविधानों में अपराध की संज्ञा देता है।

अब कुछ आंकड़ों की बात करते हैं। मानवाधिकार संगठनों की माने तो उत्तर प्रदेश पिछले कुछ वर्षों से न्यायेतर हत्याओं यानी एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग यानी बुलडोजर या ठोंक दो की नीति की एक प्रयोगशाला जैसा रहा है। 2017 के मार्च के बाद से जब से भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता में आई है तब से एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याओं की संख्या में वृद्धि हुई है। एक आंकड़े के अनुसार 2017 से बाद 2020 तक के कालखंड में यूपी पुलिस ने कम से कम 3,302 कथित अपराधियों को गोली मारकर घायल किया है। मानवाधिकार आयोगों की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस फायरिंग की घटनाओं में मरने वालों की संख्या 146 है। यूपी पुलिस का दावा है कि ये 146 मौतें जवाबी फायरिंग के दौरान हुईं और सशस्त्र अपराधियों के खिलाफ आत्मरक्षा में की गयी हैं। लेकिन नागरिक संगठनों ने इन हत्याओं पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि ये सुनियोजित हैं और जानबूझकर कर की गयी न्यायेतर हत्याएं हैं।

राज्य सरकार द्वारा बार-बार कहा जाता है कि यह अपराध नियंत्रण के लिये की गई पुलिस कार्यवाही है, और इसे एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्यायें नहीं कहा जा सकता है। मानवाधिकार संगठनों ने उदाहरण के लिए, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आधिकारिक ट्विटर हैंडल का उल्लेख किया है, जिसमें राज्य में की गयीं 430 पुलिस मुठभेड़ों को एक उपलब्धि के रूप में बताया गया है। सरकार ने मुठभेड़ की इस नीति को सार्वजनिक रूप से अधिकारियों की मीटिंग में रखा और इसे अपराध नियंत्रण की मुख्य नीति के रूप में प्रस्तुत भी किया। मुख्यमंत्री की इस तथाकथित “मुठभेड़” नीति को सार्वजनिक भाषणों और प्रेस में भी प्रचारित किया गया। राज्य सरकार के आधिकारिक प्रकाशन जैसे कि सूचना और जनसंपर्क विभाग नियमित रूप से पुलिस हत्याओं की संख्या को उपलब्धियों के रूप में प्रचारित करता है, और इसे कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य सरकार की “शून्य सहनशीलता नीति” भी बताता है। मीडिया रिपोर्टों से यह भी संकेत मिलता है कि जुलाई 2020 तक 74 पुलिस इनकाउंटर की मजिस्ट्रियल जांचों को पूरा किया गया, जहां पुलिस फायरिंग के दौरान मौतें हुई थीं। इन सभी मामलों में क्लीन चिट दे दी गई है। इसके अलावा लगभग 61 मामलों को अंतिम आख्या से बंद कर दिया गया।

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और यूपी के डीजीपी रह चुके महानुभाव का मानना है कि यूपी पुलिस का रवैया लगातार योगी आदित्यनाथ सरकार की छवि को खराब कर रहा है। पुलिस हिरासत में हुई मौतों का मामला हो या फिर गोरखपुर में कानपुर के कारोबारी मनीष गुप्ता की पुलिसकर्मियों द्वारा हत्या का मामला हो इन मामलों में विपक्ष को योगी सरकार को घेरने का मौका मिला है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण मामला है, आगरा के जगदीशपुरा थाने का है। यहां पुलिस थाने के मालखाने से 25 लाख रुपए और 2 पिस्टल की चोरी पर शक के आधार पर पुलिस ने एक सफाई कर्मचारी को हिरासत में लिया गया था, उसकी मृत्यु संदिग्ध रूप से पुलिस कस्टडी में हो गयी और उस सफाई कर्मी की मौत से पुलिस की कार्यप्रणाली पर गम्भीर सवाल उठे।

अपराधियों के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा चलाये गए ‘मिशन क्लीन’ अभियान के दौरान पुलिस ज्यादतियों की बढ़ती शिकायतों ने सरकार की छवि पर भी असर डाला है। हाल ही में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिससे सरकार की छवि खराब हुई है। एनसीआरबी के आंकड़ो का विश्लेषण करें तो उत्तर प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ों के आरोप के अतिरिक्त हिरासत में मौत के मामलों की संख्या कम नहीं है। एक नज़र इन आंकड़ों पर डालते हैं। जनचौक वेबसाइट में छपे एक लेख के अनुसार, ” उत्तर प्रदेश में पिछले तीन साल में 1318 लोगों की हिरासत में मौत हुई, जो देश के कुल मामलों का करीब 23 प्रतिशत है। एनएचआरसी के अनुसार, 2018-19 में पुलिस हिरासत में 12 तो 452 की मौत न्यायिक हिरासत में हुई थी। जबकि 2019-20 में पुलिस हिरासत में 3 तो 400 की मौत न्यायिक हिरासत में हुई। जबकि 2020-21 में पुलिस हिरासत में 8 तो न्‍यायिक हिरासत में 443 मौत हो चुकी है।”

पुलिस हिरासत में हुयी मौतों को पुलिस विभाग में बेहद गम्भीरता से लिया जाता है। 1991 में जब प्रकाश सिंह उत्तर प्रदेश के डीजीपी थे तो उन्होंने एक सर्कुलर आदेश जारी कर तीन अत्यावश्यक कार्यवाही का निर्देश दिया था। वह तीन निर्देश थे कि,

● जिस भी थाने में पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु की घटना हो उस थाने के थाना प्रभारी को तत्काल निलंबित कर दिया जाय।

● इस संबंध में हत्या का मुकदमा दर्ज कराकर प्राथमिकता के आधार पर विवेचना कराई जाए।

● जिला मैजिस्ट्रेट से अनुरोध कर घटना की मैजिस्ट्रेटी जांच कराई जाए।

यह सर्कुलर आज भी प्रभावी है और इसका पालन किया जाता है। लेकिन कई बार ऐसा भी देखा गया है कि जिम्मेदार अधिकारी ही केस दबाने का प्रयास करते हैं। इसलिए पुलिस की कार्यप्रणाली या बेहतर हो यह कहा जाय कि उसकी मनोवृत्ति में काफी सुधार होना चाहिए। पुलिसकर्मियों को लोगों के प्रति अपना व्यवहार सुधारना चाहिए। इस बिंदु की ओर भी ध्यान दिया गया है और सुप्रीम कोर्ट ने सीसीटीवी कैमरे लगाने का परामर्श भी सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को दिया है।

सच तो यह है कि बुलडोजर कानून का प्रतीक नहीं है। यह विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने और सिस्टम की विफलता से उपजे फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है। सरकार विधिसम्मत राज्य की स्थापना के लिये गठित तंत्र है न कि आतंकित कर राज करने के लिये बनी कोई व्यवस्था। कानून की स्थापना कानूनी तरीके से ही होनी चाहिए न कि डरा धमका कर, भय दिखा कर। वह कानून का नहीं फिर डर का शासन होगा जो एक सभ्य समाज की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है। बुलडोजर का भी गवर्नेंस में प्रयोग हो सकता है, और होता भी है। पर वह भी किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत पारित आदेश के न्यायपूर्ण पालन के अंग के रूप में न कि एक्जीक्यूटिव के किसी अफसर की सनक और ज़िद से उपजे मध्यकालीन फरमान के रूप में। यदि कानून और निर्धारित विधिक प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के बुलडोजर ब्रांड ‘न्याय’ की परंपरा डाली गयी तो यह एक प्रकार से राज्य प्रायोजित अराजकता ही होगी।

अराजकता यानी ऐसा राज्य जिसमे राज्य व्यवस्था पंगु हो जाय, केवल जनता के द्वारा ही नहीं फैलाई जाती है ऐसा वातावरण राज्य द्वारा प्रायोजित भी हो सकते हैं। ऐसे राज्य को पुलिस स्टेट कहा गया है जहां शासन पुलिस या सेना के बल पर टिका होता है, न कि किसी तार्किक न्याय व्यवस्था पर। ऐसी कोशिश कभी कभी राज्य द्वारा सायास की जाती है, तो यह कभी अनायास भी हो जाता है। राज्य का मूल कर्तव्य और दायित्व है, जनता को निर्भीक रखना। उसे भयमुक्त रखना। अभयदान राज्य का प्रथम कर्तव्य है, इसीलिए इसे सबसे प्रमुख दान माना गया है। राज्य इस अभयदान के लिये एक कानूनी तंत्र विकसित करता है, जो विधायिका द्वारा पारित कानूनों पर आधारित होता है। इसमें पुलिस, मैजिस्ट्रेसी, ज्यूडिशियरी आदि विभिन्न अमले होते हैं। इसे समवेत रूप से, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के नाम से जाना जाता है। यह सिस्टम एक कानून के अंतर्गत काम करता है और अपराध तथा दंड को सुनिश्चित करने के लिये एक विधिक प्रक्रिया अपनाता है।

इस सिस्टम को भी यदि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अनुसार लागू नही किया जाता है तो इसका दोष सम्बंधित अधिकारी पर आता है और उसके खिलाफ कार्यवाही कर दंडित करने की भी प्रक्रिया कानून में हैं, जिसका पालन किया जाता है। कहने का आशय यह है कि कानून को कानूनी की तरह से ही लागू किया जाना चाहिये। यदि कानून को कानूनी प्राविधान को दरकिनार करके मनमर्जी से लागू किया जाएगा तो, उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होगा कि सिस्टम विधि केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा, और यदि उसे लागू करने वाला व्यक्ति अयोग्य, सनकी और जिद्दी रहा तो राज्य एक अराजक समाज में बदल जाएगा। यदि कानून को लागू करने वाले सिस्टम में कोई खामी है तो उसका समाधान किया जाना चाहिए नए कानून बनाये जा सकते हैं, पुराने कानून रद्द किए जा सकते हैं और विधायिकाएं ऐसा करती भी हैं। पर कानून का विकल्प बुलडोजर या सनक या ज़िद कदापि नही हो सकता है, इससे अराजकता ही बढ़ेगी।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं। )

विजय शंकर सिंह
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