क्रिकेट को खेल रहने दो, खेल का खेला मत करो!

45 दिन तक चले 48 मुकाबलों वाला आईसीसी क्रिकेट विश्वकप 19 नवम्बर को पूरा हो गया। पांच प्रदेशों में चुनाव की गहमागहमी के ठीक बीचों-बीच करोड़ों भारतीयों की हर शाम अपने नाम करवाने में कामयाब यह बड़ा खेल उत्सव जिस तरह से संपन्न हुआ वह चिंताजनक ही नहीं डरावना भी है। इसलिए नहीं कि पूरे मुकाबले में सभी 10 के 10 मैच जीत कर अविजित रहने वाली और लगभग ठीक ही अब तक की सबसे मजबूत बताई जाने वाली टीम इंडिया फाइनल मुकाबले में हार गई थी। 

खेल में हार जीत होती रहती है- जीतने पर ख़ुशी और हारने पर दुःख और अफ़सोस होना लाजिमी है मगर इससे सभ्य और मर्यादित व्यवहार खत्म हो जाए यह जरूरी नहीं। खेद की बात है कि उस शाम का नजारा ऐसा नहीं था। मैच के दौरान सामने वाली टीम के खिलाड़ियों के अच्छे खेल पर रस्मी तालियों की बात तो दूर रही, विजेता को कप और और उप विजेता को अवार्ड्स देने के समय सवा-लखिया बताया जाने वाला स्टेडियम लगभग पूरी तरह खाली हो चुका था।

विजेता टीम ऑस्ट्रेलिया को विश्वकप थमाने वाले प्रधानमंत्री मोदी इतने सरपट लौटे थे कि कप्तान पैट कमिंस कप थामे अकेले खड़े खड़े कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे के अंदाज वाली एक मानीखेज मुस्कान के साथ उन्हें देखते ही रह गए। इतना ही नहीं जब एम्पायर्स को सम्मानित किया जा रहा था तब बचे खुचे दर्शक उनकी हूटिंग कर रहे थे। 

यह चौंकाने वाला व्यवहार था। सिर्फ भारत ही नहीं क्रिकेट खेलने वाली पूरी दुनिया के दर्शकों को हतप्रभ करने वाला और खेल की भावना के ही एकदम खिलाफ आचरण था। क्रिकेट जिस ख़ास तरह की खेल भावना के लिए प्रसिद्ध है उसका एकदम साफ़ साफ़ नकार था। इसलिए और भी कि यह नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में हो रहा था।

हालांकि इस विकार की शुरुआत इसी स्टेडियम में 14 अक्टूबर को ही हो चुकी थी जब भारत-पाकिस्तान के लीग मैच के दौरान जयश्रीराम के नारे उन्मादी तरीके से लगाए गए। इतना ही नहीं, बावजूद इसके कि इन मुकाबलों में मोहम्मद शमी और मोहम्मद सिराज भारत की ताकत बनकर डटे थे, संसद में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी द्वारा बोले गए साम्प्रदायिक अपशब्दों का भी नारे की तरह इस्तेमाल किया गया। पाकिस्तानी टीम के कप्तान बाबर आजम को बोलने ही नहीं दिया गया। 

अपनी लोकप्रियता के चलते क्रिकेट जिस देश का धर्म कहा जाता है और जो अब तक साम्प्रदायिक होने से बचा रहा है उसके साथ वही किया गया जो भाजपा ने धर्म के साथ किया है। इसे नफरती उन्माद, विभाजनकारी और हिंसक बनाने के साथ इसका अपने राजनीतिक हितों के लिए दुरुपयोग किया गया। साहित्य, संस्कृति, कला, शिक्षा, इतिहास, फिल्में आदि इत्यादि और उनसे जुड़े संस्थानों पर कब्जा जमाने, नब्बे के दशक में धर्म को हड़पने के बाद से हर चीज को हड़पने की हवस में अब वे क्रिकेट को अपने रंग में रंगना चाहते हैं।

इसकी शुरुआत दुनिया के सबसे रईस क्रिकेट संस्थान- बीसीसीआई- पर कब्जा करने के साथ की गई। 2019 में जब मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बन कर आये तो सबसे पहला काम अपने एकमात्र विश्वस्त भाजपा नेता अमित शाह के बेटे जय शाह को भारतीय क्रिकेट की इस सर्वोच्च संस्था का सचिव बनवाकर किया गया। उस वक़्त अध्यक्ष सौरभ गांगुली जैसे ख्यात क्रिकेटर के होते हुए भी सब कुछ जय शाह के ही चंगुल में रहा।

इसके वर्तमान अध्यक्ष रोजर बिन्नी हैं, यह तो ज्यादातर क्रिकेट प्रेमियों को भी नहीं पता। जिस अनुराग ठाकुर ने बीसीसीआई में जय शाह की ताजपोशी करवाई उन्हें बाद में भारत का खेल मंत्री बना दिया गया और उनके भाई के हाथ में दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई वाली क्रिकेट लीग- आईपीएल – की चेयरमैनी सौंप दी गई। ध्यान रहे यह आईपीएल दुनिया की चौथे नम्बर की सबसे रईस खेल संस्था है- वर्ष 2023 में इसकी बिजनेस वैल्यू साढ़े पंद्रह अरब डॉलर है; और हर साल तेजी से बढ़ रही है। 

पूंजीवाद में खेल भी बाजार के नियमों से चलता है। बाजार उनका इस्तेमाल भी करता है और अपने मुनाफे के हिसाब से उन्हें लोकप्रिय भी करता है। दुनिया का सबसे पसंदीदा खेल फुटबॉल भी इससे नहीं बचा, हॉकी का देश माने जाने वाले भारत में पिछले चार पांच दशकों में सारे खेलों के ऊपर चढ़कर क्रिकेट के मौजूदा हैसियत में पहुंच जाने के पीछे भी इस बाजार की बड़ी भूमिका है। 

कमाई जितनी विराट है, भ्रष्टाचार भी उतनी ही इफरात में है। सट्टेबाजी सहित यह भ्रष्टाचार हर संभव असंभव रूपों में है। इसकी जाहिर वजह को पकड़ते हुए जस्टिस आर एम लोढा की जांच समिति 2015 में ही सिफारिश कर चुकी है कि बीसीसीआई और राज्यों के क्रिकेट एसोसिएशनों से राजनीतिक नेताओं को अलग रखा जाना चाहिए। मगर मोदी राज में इससे ठीक उलटा हुआ; सारी खेल संस्थाओं पर एक पार्टी का कब्जा करा दिया गया।

उन्होंने क्या और कैसा किया यह कुश्ती फेडरेशन के कुख्यात अध्यक्ष रहे भाजपा नेता बृजभूषण शरण सिंह के कारनामों के रूप में देश देख चुका है। क्रिकेट को हड़पने के पीछे इसकी अकूत कमाई में लूटपाट के अलावा इसके जरिये लोगों की भावनाओं को अपने हिसाब से इस्तेमाल करना और इसका राजनीतिक दुरुपयोग करना भी था। दिल्ली के नामी क्रिकेट स्टेडियम फिरोज़शाह कोटला मैदान का नाम बदल कर अरुण जेटली स्टेडियम कर दिया गया; अहमदाबाद में तो सारी हदें ही पार करते हुए सरदार पटेल  स्टेडियम का नाम बदल कर नरेंद्र मोदी स्टेडियम करने स्वयं नरेंद्र मोदी ही पहुंच गये। 

इसी का अगला चरण क्रिकेट विश्वकप के आयोजन को अपनी चुनावी राजनीति के लिए इस्तेमाल में लाने का था। फाइनल मैच के लिए मुम्बई के वानखेड़े, चेन्नई के एमए चिदंबरम, बंगलौर के एम चिन्नास्वामी स्टेडियम या कोलकता के ईडन गार्डन जैसे क्रिकेट प्रेमी दर्शकों के लिए जाने जाने वाले मैदान चुनने के बजाय अहमदाबाद के मोदी स्टेडियम का चयन इसी मकसद से किया गया था। खुद मोदी की उसमें हाजिरी थी।

अहमदाबाद में चुन चुनकर बाबे, बाबियां, हीरो, हीरोइन्स और सेलेब्रिटीज बुलाये गए थे। इन आमंत्रितों के चयन में पूरी सावधानी बरती गई थी कि गलती से भी कहीं कोई ऐसा न आ जाए जो राजा का बाजा बजाने के लिए तैयार न हो। 

यह पूर्वाग्रही मानसिकता इतनी दुराग्रही हो गई थी कि भारत के लिए पहला क्रिकेट विश्वकप लाने वाली टीम के कप्तान कपिल देव जैसे वरिष्ठतम क्रिकेटर को महज इसलिए नहीं बुलाया गया क्योंकि महिला कुश्ती खिलाड़ियों के आन्दोलन के समय उन्होंने महिला खिलाड़ियों का साथ दिया था। एक और विश्व कप जीतने वाले हाल के दौर के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटर मोहिंदर सिंह धोनी भी नहीं बुलाए गए, क्योंकि वे- अब तक- भाजपा के लिए चुनाव प्रचार करने के लिए राजी नहीं हुए हैं।

इन दोनों को इसलिए भी नहीं न्यौता गया क्योंकि उनकी जीत 2014 से पहले की थी- इसलिए सब कुछ मोदी के बाद हुआ है, मोदी है तो मुमकिन है के आख्यान में वो फिट नहीं बैठते थे। सत्ता की आरती उतारने वाले सचिन तेंदुलकर की उपस्थिति थी- गोदी मीडिया और स्तुति गायक गायिकाओं का मेला था।

राजनीतिक फ़ायदा उठाने की तैयारी भरपूर थी; फाइनल के पहले से ही “मोदी दिलाएंगे भारत को विश्वकप”; “मोदी ने जिताया सेमी फाइनल, अब फाइनल जिताने पहुंचेंगे अहमदाबाद”; “अहमदाबाद में होगा धर्मयुद्ध” जैसे बोल वचनों से मीडिया ने उन्माद को उच्च से उच्चतर किया। हवन, पूजा, यज्ञ, टोटके करके पाखंडियों ने आग में घी डाला। दूसरों की उपलब्धियों के कंधे पर सवार होकर खुद को ऊंचा दिखाने की विधा में पारंगत हो चुके सारे मंत्रियों सहित भाजपा के छोटे बड़े नेताओं ने मोदी निनाद कर इसे उच्चतम तक पहुंचाया। 

कहते हैं कि भारतीय टीम की मेहनत को भुनाने के लिए जीत के बाद मोदी जी के भाषण की भी ठीक उसी तरह व्यवस्था की गई थी जैसी चंद्रयान के वक़्त हुई थी। उनकी एंट्री भी ठीक टाइमिंग पर उस समय हुई थी जब जसप्रीत बुमराह और मोहम्मद शमी ने फटाफट 3 विकेट गिरा दिए थे। लग रहा था कि पिछले सारे मुकाबलों की तरह की धार फाइनल में भी रहने वाली है। जीत के बाद मोदी-मोदी की चीखपुकार मचाने वाली भीड़ तत्पर बैठी थी। मगर ये हो न सका। 

क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल माना जाता है, वही बात लागू हुई और टीम इंडिया को हराकर आस्ट्रेलियाई टीम छठवीं बार विश्व चैंपियन बन गई। चौबे जी नया परिधान पहनकर छब्बे बनने गये थे और दुबे भी नहीं रह पाए। पूरे देश में जो मखौल बना सो बना, दुनिया भर में भी आलोचना का शिकार बने। 

ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान रिकी पोंटिंग ने इसे अपनी कमाई पर इतराने वाले क्रिकेट माफिया की हार बताया, कई कोच ने इसे आईसीसी के बजाय बीसीसीआई का आयोजन बताया तो अनेक देशों की क्रिकेट संस्थाओं सहित दुनिया के मीडिया ने यह सब देखकर भारत को मेजबान- होस्ट- बनने लायक ही नहीं माना।

ठीक यही वजह है कि यह बड़ा खेल उत्सव जिस तरह से संपन्न हुआ वह चिंताजनक ही नहीं डरावना भी है।

हर चीज को हड़पने, संस्कृति, साहित्य, इतिहास, भाषा, जीवन शैली से लेकर मनुष्योचित बर्ताब के संस्कारों को भी अपनी तरह ढालने, असहिष्णुता और असभ्यता को आम बनाने की धुन में अब वे खेल का भी खेला करने पर आमादा हैं। नफरती उन्माद भड़काकर खेलों को भी चुनावी तिकडमों के लिए उपयोग में लाने, उनके जरिये भी साम्प्रदायिकता भडकाने और प्रतिद्वंदी को दुश्मन मानने की यह सोच सिर्फ पाकिस्तान या ऑस्ट्रेलिया की टीमों के खिलाफ ही नहीं निकलेगी।

विराट कोहली के आउट होने पर अनुष्का शर्मा को लज्जित करने, एकाध ओवर बिगड़ जाने पर मोहम्मद शमी और सिराज जैसे इस विश्वकप के रिकॉर्ड बनाने वाले खिलाड़ियों को संघी टोन में गरियाने तक जाएगा। कपिल देव के खिलाफ मुहिम शुरू भी हो चुकी है।

नफरती पागलपन की कोई सीमा नहीं होती- अहमदाबाद के नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में हुए फ़ाइनल की हार के बाद खुद नरेंद्र मोदी को लेकर हो रही टिप्पणियों का रुझान इसी बात का उदाहरण है। जिस ज़िन्न को खुद उन्होंने और उनके कुनबे ने गा बजाकर जगाया और बुलाया है वह अब उन्हीं के चिराग घिसने में लगा है; जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे हैं।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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