लोकप्रियता 70% ! – एक सोच

आज ही हमने अपने फेसबुक पेज पर एक छोटी से पोस्ट लगाई – “नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव में जैसे ट्रंप का हारना तय है, वैसे ही बिहार में मोदी-शाह का हारना। मोदी के होश फ़ाख्ता करने के लिए यह धक्का काफ़ी होगा।”

हम जानते हैं कि हमारी इस भविष्यवाणीनुमा बात का यदि कोई ठोस वैज्ञानिक आधार ढूंढेगा तो उसके हाथ में संभव है सिवाय निराशा के कुछ नहीं लगेगा। ऐसी निजी बातों के पीछे किसी प्रकार का कोई कथित ठोस सर्वे भी नहीं होता है। और तथाकथित सांस्थानिक सर्वे भी तो अक्सर कुछ लोगों की बातें ही होते हैं। कभी प्रचार के उद्देश्य से तो कभी व्यवसाय के उद्देश्य से। जैसे अभी चल रहा है-लोकप्रियता 70 प्रतिशत। अनुभव ने बार-बार ऐसे सभी सर्वे की तथाकथित वैज्ञानिकता को प्रश्नांकित किया है।

ऐसे में, बहुत बुद्धिमान आदमी कहेगा कि क्यों नहीं हम कल के बारे में किसी भी निश्चित धारणा को परसों तक के लिये स्थगित रख दें, ताकि उस पाखंड से बच जाएं कि कल जो घटित होगा, उससे अपनी ‘ज्योतिष गणना’ का मेल बैठाने लगे!

दरअसल, इस प्रकार की हार या जीत की बातें अपनी कुछ धारणाओं की तरह होती हैं। किसी ऐसे रूपक की तरह जिसमें सामने नजर आते लक्षणों का एक प्रतीकमूलक विस्थापन होता है। प्रतीकमूलक, अर्थात् हमारे अपने चित्त के गठन से सम्बद्ध। यह हमारे अपने उस सोच को दर्शाता है जिसके खांचे में लक्षणों का काल्पनिक विस्थापन हुआ करता है। अन्यथा हर अनुमान अंततः एक अनुमान ही होता है।

यहां मामला किसी ऐसे कथन की प्रामाणिकता अथवा अप्रामाणिकता का नहीं है। यह इतिहास के नियम और इतिहास के किसी प्रामाणिक शोध, इन दोनों को बीच फर्क का मामला है। शोध से किसी बीते हुए काल का विश्लेषण किया जाता है, उसकी प्रवृत्तियों को बताया जाता है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे छूट गई चीजें, जिनसे इतिहास की सामान्य धारा को जो भिन्न अर्थ देने के प्रयत्न किये जाते हैं, उनका कोई महत्व नहीं होता है।

यह तो हर कोई जानता है कि अपने वर्तमान, जिसे निकट का अतीत भी कहा जाता है, के बारे में किसी खोज को दिशा देने में इतिहास के नियम सिर्फ उतने ही महत्व के होते हैं जितने कि उनसे आगामी कल की घटनाओं का एक ठीक-ठाक अनुमान लगाया जा सके। किसी निश्चित, अकाट्य वैज्ञानिक निष्कर्ष तक पहुंचने में इन बातों की भूमिका कितनी ही नगण्य क्यों न हो, पर उन बातों का मकसद कुछ और ही होता है : जो चल रहा है या मान लिया गया है उससे एक भिन्न आदर्श को पेश करने का। इसे किसी भी समय के इतिहासीकरण की प्रक्रिया का जैविक अंग भी कहा जाता है। इतिहास के बनने की आदिमता इसी प्रकार की होती है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि इतिहास को मंच पर पहले से किसी स्क्रिप्ट की तरह तैयार किया जाता है जिसमें, मनुष्यों के अंतर और उसके बाहर, दोनों जगह की बात को लिख दिये जाने पर फिर उसका वास्तव में मंचन होता है।

अन्यथा जो वस्तु सत्य है, वह तो हमेशा अपने मूल रूप में आदमी के बाहर काम कर रहा होता है। यह वह है जिसे आदमी के अंतर के प्रतीकों के रूप में बदला नहीं गया है, अर्थात् जिसे चित्त् में पूरी तरह से समाहित नहीं किया गया होता है।

आम तौर पर हम जिस ‘यथार्थ‘ की बात करते हैं वह यह सत्य नहीं होता है। हमारा यथार्थ मूलतः हमारे प्रतीकात्मक जगत और कल्पनालोक के एक योग के रूप में ही परिभाषित किया जा सकता है। जाक लकान कहते हैं कि वह इस हद तक काल्पनिक होता है कि जैसे हम किसी परावर्तित क्षेत्र (Refracted register) में स्थित हैं जिसमें हमारा अहम् हमें अपने कामों के लिये तर्क प्रदान करता है ; प्रतीकात्मक इस हद तक कि इसमें हमारे चारों ओर की हर चीज का, हमारे परिवेश का भी एक मायने होता है। रोजमर्रा की चीजें इसी अर्थ में प्रतीकात्मक होती हैं क्योंकि उनका कुछ अर्थ होता है, उनका हमारे लिये एक महत्व होता है।

इस लिहाज से यदि हम किसी भी प्रचारमूलक कथन को देखें तो उसके असली मायने को हम ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। भविष्य को पूरी तरह से किसने देखा है कि कोई उसके बारे में शत्-प्रतिशत् सही होने का दावा कर सके ! भविष्य की सारी बातों में अनुमानों की भूमिका हर परिस्थिति में रहेगी ही।

मोदी 2019 के लोक सभा चुनाव में जरूर जीते, लेकिन उसके पहले के लगातार लगभग पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में, और बाद के एक राज्य, दिल्ली के चुनाव में बुरी तरह पराजित हुए। इसके अलावा पिछले छः साल का उनका तमाम प्रकार की भूलों और स्वेच्छाचारिता के कार्यकाल की सचाई पर तो हम हर रोज टिप्पणियां करते ही रहते हैं।

ऐसे में, अपने ही आकलनों के आधार पर हमारे लिये इस बात का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं बनता है कि हम बिहार के आगामी चुनाव में मोदी की जीत की कल्पना भी कर सकें। अगर करते हैं तो यह सिर्फ चंद तात्कालिक परिस्थितियों से पैदा हुआ हमारे मन के अंदर का डर है जिसे मोदी कंपनी ने बाकायदा तैयार किया है, अन्यथा इस प्रकार के अनुमानों का कोई वास्तविक आधार नहीं हो सकता है। न वह इतिहास के नियमों से पुष्ट होता है, और न मोदी के कर्मों के राष्ट्र और जनता के जीवन पर पड़ रहे दुष्प्रभावों के सच से। इसमें 2019 का अपवाद शुद्ध रूप में एक चकमेबाजी का परिणाम था। पर चकमेबाजों की भी हमेशा एक उम्र होती है।

इन सारी बातों के बावजूद, जब कोई ‘70% लोकप्रियता’ के प्रभाव तले, या किसी प्रकार की निष्पक्षता का भान करते हुए मोदी कंपनी की अपराजेयता का बखान करता है तो वह या तो जान-बूझ कर या अनजाने में ही सिर्फ मोदी के पक्ष में हवा तैयार करने के अभियान में शामिल हो जाता है, वह किसी यथार्थ का बयान नहीं कर रहा होता है। आने वाले सभी चुनावों में मोदी की बुरी पराजय हमें तो जैसे उनके प्रारब्ध की तरह जान पड़ती है। मोदी का विकल्प ! सच कहें तो, राजनीति के जगत का एक चूहा भी उनसे बेहतर साबित होगा।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक, चिंतक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

अरुण माहेश्वरी
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