मार्टिन लूथर की जयंती: पादरी से आन्दोलनकारी तक का सफर

25 मई, 2020 को अमेरिका में एक घटना घटी, जिसमें एक श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड नाम के अश्वेत नागरिक का गला घोटने से दबाकर मार दिया गया, घटना बीच सड़क पर हुई, जिसको वहां मौजूद लोगों द्वारा कैमरे में रिकॉर्ड कर लिया गया। वीडियो वायरल हुआ तो अमेरिका में भूचाल मच गया। लोग पुलिस द्वारा किये गये इस हत्या के विरोध में सड़क पर आ गए। आक्रोश इस कदर बढ़ा की कई जगह पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसात्मक झड़प भी हुई। लोगों ने महीनों तक अपना विरोध प्रदर्शन किया, इन प्रदर्शनों में ब्लैक लाइव्स मैटर, रेसिज्म, पुलिस की बर्बरता, प्रशासनिक हत्या आदि मुद्दों पर जमकर नारे लगाए गए।

लेकिन क्या ऐसी घटना पहली बार हुई? इसका उत्तर है- नहीं। अगर हम पिछले कुछ सालों की खबरों को देखें तो अश्वेतों के खिलाफ  इस तरह की बर्बरता, उत्पीड़न और भेदभाव की घटनाएं अमेरिका, आस्ट्रेलिया और कई यूरोपीय देशों में आम हैं। इन देशों में सदियों से नस्ल भेद का शिकार हो रहे अश्वेत वर्ग का किसी ना किसी रूप में शोषण-उत्पीड़न होता रहा है। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि इन देशों में नस्लभेद और रंगभेद के खिलाफ समान नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष भी होता रहा है। अगर नस्लभेद के खिलाफ हुए इन संघर्षो पर नजर डालें तो इतिहास में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने इसके खिलाफ लड़ते हुए अपनी जान तक दे दी।


इनमें सबसे प्रमुख नाम है- मार्टिन लूथर किंग जूनियर का। वे महात्मा गाँधी के अहिंसक आन्दोलन से प्रभावित थे। उन्होंने गाँधी की तरह ही अमेरिका में रंगभेद-नस्लभेद के खिलाफ अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए अहिंसक लड़ाई लड़ी। आज उन्हीं मार्टिन लूथर किंग का 92वं जन्मदिन है। उन्होंने महज 27 वर्ष की उम्र में ही अहिंसा के रास्ते पर चलकर मोंटगोमरी में बसों में अश्वेतों के खिलाफ होने वाले भेदभाव को चुनौती दी और सिविल नाफरमानी के जरिये उसे खत्म कराया। उनके इन संघर्षों को सम्मान देने के लिए उन्हें बहुत ही कम उम्र में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।

आरंभिक जीवन


किंग का जन्म 15 जनवरी, 1929 को अटलांटा के आउबर्न एवेन्यू शहर के मध्य वर्गीय परिवार में  हुआ था। आउबर्न शहर जो अश्वेत समुदाय के बेहद प्रभावशाली और सम्मान जनक चर्चों में से एक “एबेनेज़र बैपटिस्ट चर्च” के काफी करीब था। किंग अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। इनके पिता (माइकल किंग सीनियर) ने इनका नाम अपने नाम पर रखा। किंग बचपन से ही काफी शांतप्रिय बालकों में से थे। घर के कई सदस्यों के चर्च से जुड़े होने के कारण इनका भी अधिक समय बाइबिल पढ़ने, चर्च जाने, धर्म उपदेशकों को सुनने में ही गुजरता था।

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने एक बार कहा था कि उनके पिता व भाई धर्मोपदेशक थे और नाना तथा परनाना भी धर्मोपदेशक थे इसलिए उन्हें लगता था कि धर्मोपदेश देना ही उनके जीवन का लक्ष्य होगा। जब किंग बड़े हुए तो वो मोंटगोमरी के एक चर्च में धर्मोपदेशक बने जहां उन्होंने अश्वेतों के अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। किंग अपने बचपन के बारे में बताते थे कि अटलांटा के धर्मोपदेशक लोगों को हमेशा ये तसल्ली दिया करते थे कि ईश्वर एक दिन रंगभेद और अन्याय का अंत जरूर करेगा और अश्वेत लोग भी सम्मान जनक जीवन जी सकेंगे।

रंगभेद का दंश


गृहयुद्ध के बाद कई पीढ़ियां गुजर चुकी थीं।  इसके बावजूद अश्वेतों को समाज में बराबरी का हक नहीं दिया गया। अश्वेतों के पास रोजगार के सीमित अवसर थे और जो योग्य भी थे उनको भागीदारी का अवसर नहीं दिया जा रहा था। देश भर के अश्वेत समुदाय की तरह अटलांटा के अश्वेत समुदाय को भी कई तरह की असमानता के बीच जीना पड़ता था। जहां शहर के विकसित इलाकों में उन्हें रहने की इजाजत नहीं थी। वहीं स्कूल और चर्च भी श्वेतों और अश्वेतों के लिए अलग-अलग बने हुए थे।

किंग अपने बचपन की एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि जब वो 6 साल के थे तब अचानक एक श्वेत सहपाठी ने उनसे मिलना-जुलना बंद कर दिया, क्योंकि उसके माता-पिता ने अश्वेत लड़कों के साथ उसकी दोस्ती पर रोक लगा दी थी। किंग को बचपन में ही महसूस हो गया था कि वो जिस सामाजिक अवस्था में जी रहे हैं, वो भेदभाव  और अन्याय पर आधारित है। किंग ने बचपन से ही अपने पिता को इस अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था से लड़ते देखा। किंग पुराने समय को याद करते हुए कहते हैं कि जब मैं अपने पिता के साथ चल रहा होता था तो वो अक्सर बुदबुदाते रहते थे, वो कहते “मैं नहीं जानता मुझे कब तक इस व्यवस्था में जीना पड़ेगा, मगर मैं इसे कभी स्वीकार नहीं करूंगा”। 

रंगभेद का प्रभाव हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि किंग जब मोरे हाउस कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे। तो उस दौरान वे अपने दोस्तों के साथ गर्मियों की छुट्टियों में पहली बार अलबामा से बाहर गए, जहां से उन्होंने अपने पिता को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अलबामा से बाहर के लोगों के बारे में जिक्र किया। किंग ने लिखा कि यात्रा के दौरान उन्होंने कुछ ऐसा मंजर देखा जिसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। जब वो वाशिंगटन से आगे बढ़े तो उन्हें किसी भी तरह का रंगभेद नजर नहीं आया, वहां अश्वेत लोग कहीं भी घूम सकते हैं कहीं भी बैठ सकते हैं।

मोंटगोमरी के जिस आंदोलन ने दिलाई पहचान


साल 1956 जब किंग की उम्र महज 27 वर्ष की थी और वे अलबामा के मोंटगोमरी में धर्मोपदेशक के पद पर नियुक्त होकर आए। साल 1956 की खास बात ये थी कि इसी साल अश्वेत नागरिकों द्वारा बसों का बहिष्कार किया गया। जिसका नेतृत्व किंग ने किया।
मोंटगोमरी के जिस आंदोलन ने किंग को पहचान दिलाई उसकी शुरुआत 1 दिसंबर, 1955 को हुई। जब बस में सवार रोजा पार्क्स नाम की अश्वेत महिला को ड्राइवर द्वारा एक श्वेत व्यक्ति के लिए अपनी सीट छोड़कर खड़े होने को कहा गया। रोजा पार्क्स ने थकान के कारण उठने से इंकार कर दिया। जिसके चलते उसे ड्राइवर का आदेश ना मानने पर  गिरफ्तार  कर लिया गया। साथ में 10 डॉलर का जुर्माना भी लगा दिया गया।

वैसे तो बसों में होने वाले अपमान की अश्वेतों को आदत पड़ चुकी थी। मगर जब उस महिला को जेल भेज दिया गया तो ये एक ऐसा तूफान खड़ा हुआ, जिसने आगे आने वाले युग के लिए काफी कुछ बदल दिया। रातों-रात अश्वेतों की बस्तियों में ये संदेश फैल गया कि “रोजा पार्क्स का समर्थन करें और बसों में यात्रा करना बंद करें”। इस आह्वान की जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई, लोगों ने बसों का बहिष्कार किया। अगले दिन से अश्वेत लोग पैदल, बग्घी वा निजी गाड़ियों से अपने काम पर जाने लगे। लोगों ने बसों में यात्रा करना बंद कर दिया।
आंदोलन को तीव्र करने के लिए अश्वेत लोगों द्वारा ‘मोंटगोमरी इंप्रूवमेंट एसोसिएशन’ का निर्माण किया गया। जिसका अध्यक्ष मार्टिन लूथर किंग को बनाया गया। अध्यक्ष बनाये जाने का कारण किंग की योग्यता थी। किंग के तेजस्वी व्यक्तित्व ने उन्हें अश्वेत समुदाय के विरोधी गुटों के बीच भी लोकप्रिय बना दिया था।


धीरे-धीरे ‘बस बहिष्कार’ आंदोलन असरदार बनता गया। आंदोलन को मजबूत करने के लिए 200 से अधिक अश्वेत स्वयंसेवकों ने आवाजाही के लिए अपनी कारें मुहैया करवाईं। लोग दूर दराज के इलाके से चंदा भेजने लगे। जब इस आंदोलन से सिटी बस कमीशन को घाटा होने लगा तो उन्होंने तीन अश्वेत धर्म उपदेशकों को बुलाकर समझौता करने का दबाव बनाया। जब इसकी खबर किंग को लगी तो उन्होंने अपने साथियों के साथ पूरी रात अश्वेतों के मुहल्लों में जा-जाकर लोगों को समझाया की समझौते के नाम पर वे हमसे धोखा करना चाहते हैं।

किंग द्वारा यह लड़ाई अहिंसक रूप कई महीनों तक लड़ी गई। फिर एक दिन सुप्रीम कोर्ट का आर्डर आया कि “मोंटगोमरी की बसों में रंगभेद प्रणाली को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है।” जब यह सूचना किंग को मिली तो उनके बगल खड़े अश्वेत आदमी ने चिल्लाकर कहा- आखिरकार ईश्वर ने वाशिंगटन से अपना फरमान सुना ही दिया, हमारी जीत हुई।
अगली रात किंग ने चर्च में उपस्थित अश्वेतों को संबोधित किया और अपने समर्थकों से अनुरोध किया कि वो विनम्रता के साथ अपनी जीत को स्वीकार करें। उन्होंने कहा “अगर आप में से कोई जाकर चीख-चीखकर कहेगा कि हमने श्वेतों से यह लड़ाई जीत ली है तो ये हमारी वास्तविक जीत नहीं होगी।

गांधी, अहिंसा और किंग


जिस अहिंसा के बल पर किंग ने अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी उसका जिक्र करते हुए किंग अक्सर कहते थे कि उनके जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्हें लगा की ये असमानता हथियारों के बल पर ही खत्म होगी। मगर उस वक्त उन्होंने गांधी को पढ़ा और उनकी अहिंसात्मक प्रतिरोध को आत्मसात किया। जिससे जीवन पर्यन्त अहिंसा ही उनका हथियार बना रहा।

किंग लिखते हैं कि जो बौद्धिक और नैतिक सन्तुष्टि बेंथम और मिल के उपयोगितावाद, मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी पद्धतियों, हाब्स के सामाजिक अनुबन्धों, रुसो की प्रकृति की ओर लौटो और नीत्शे के व्यक्तिवादी दर्शन में नहीं मिल सका, वो सामाजिक और सामूहिक परिवर्तन मुझे गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध के दर्शन में मिला।

10 फरवरी, 1959 को जब किंग भारत आये तो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा कि अन्य देशों में मैं एक पर्यटक के रूप में जाता हूँ मगर भारत में मैं एक तीर्थ यात्री के रूप में आया हूँ। भारत में किंग पर खास ध्यान इसलिए भी दिया जा रहा था क्योंकि जब किंग अलबामा में अश्वेतों के लिए लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय भारत में भी छुआ-छूत जैसी बुराई को खत्म करने का अभियान जोरों पर था। इसके साथ एक कारण ये भी था कि रंगभेद के आंदोलन को भारतीय लोग इसलिए भी गंभीरता से ले रहे थे, क्योंकि किंग गांधी के बताए अहिंसा के मार्ग पर चलकर अमेरिका में अश्वेतों के लिए संघर्ष कर रहे थे।

मेफिन्स में शहादत


3 अप्रैल, 1968 की शाम किंग मेफिंस के मेसोनिक चर्च में आयोजित सफाई कर्मचारियों के जुलूस को सम्बोधित कर रहे थे। किंग इस दिन भाषण देते वक्त भावुक भी हुए। आंदोलन कई दिनों तक चलने वाला था। किंग अगले दिन की सुबह तैयार होकर होटल के बालकनी से नीचे खड़े जेसी जैक्सन से बात करने लगे और तभी वहां गोलियां चलने की आवाज सुनाई दी। दो गोलियां किंग के चेहरे और गर्दन पर लगी। किंग बालकनी के फर्श पर ही गिर पड़े। कमरे में मौजूद लोग भागते हुए बालकनी में आये, उन्होंने किंग को सहारा दिया मगर तब तक काफी खून फर्श के चारों ओर फैल चुका था।


उस दिन को याद करते हुए उनके मित्र कायल्स कहते हैं कि “मार्टिन लूथर किंग की मौत किन्हीं निरर्थक कारणों से नहीं हुई और ना ही उनकी मौत नींद की ज्यादा गोलियां खाने से हुई, बल्कि वो सफाई कर्मचारियों के लिए संघर्ष करते हुए मारे गए।

मार्टिन लूथर किंग की भी गाँधी की तरह एक कायर हत्यारे की गोली से मौत हुई लेकिन उनके विचार आज भी अमेरिकी अश्वेत नागरिकों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की राह दिखा रहे हैं।

(लेखक उपेंद्र प्रताप आईआईएमसी के छात्र हैं।)

उपेंद्र प्रताप
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