जज साहब! यह हमारी फ़ितरत नहीं

कौन बसाये गाँव रे भैया
कौन बसाये शहर?
कौन गढ़े समय का घड़ा
बाँधे कौन ये पहर?
कौन घोलता अमृत प्याला
कौन पिये ये ज़हर?
कौन तैरे नद सु़ख़न का
बाँधे कौन ये बहर?

(नाटक ‘हक’ के आरंभिक बोल)

सर्वोच्च न्यायालय के अति-सम्माननीय जज साहब! आपने केंद्र सरकार द्वारा बनाये कृषि-कानूनों के विरुद्ध दिल्ली में धरना देने की इजाज़त मांगने आई किसान-महापंचायत (जो सिंघु-टीकरी-गाज़ीपुर में लगे किसान मोर्चों का हिस्सा नहीं है) की याचिका सुनते हुए तमाम किसानों को संबोधित करते हुए कहा, “तुम लोगों ने (अर्थात आन्दोलनकारी किसानों ने) सारे शहर (दिल्ली) का गला घोंट दिया है, अब तुम लोग शहर के अंदर आना चाहते हो!” मैं बहुत आदर और नम्रता के साथ अपनी और किसान भाई-बहनों की ओर से आपसे गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि हमने ऐसा कोई काम नहीं किया।

जज साहब! हमारी रगों में ऐसा लहू नहीं बहता जो हमारे हाथों को ऐसी लर्जिश दे सके कि वो किसी इन्सान, शहर, नगर या बस्ती के गले तक पहुँच जाएँ। हम दो हाथों से श्रम करके अन्न उगाने वाले लोग हैं, मिट्टी के साथ मिट्टी होने वाले; हम सीता जोतते और बीज बीजते हैं, लहलहाती फसलें काटकर शहरों और गांवों के चरणों में रखते हैं ताकि इस धरती के लोग अन्न खाएं और जीते-बसते रहें। हम ज़मीन से जुड़े हुए हैं, जो आपने कहा है, वह हमारी फ़ितरत नहीं, ऐसा करना न तो हमारी विरासत है और न ही हमारी रीत। हाँ, आपके शहर की रक्षा के लिए किसानों के बेटों ने सरहदों पर लड़ते हुए अपनी प्राणों की आहुति जरूर दी है; आप इस तथ्य को जानते हैं पर शायद उपरोक्त प्रश्न पूछते समय आप इस हक़ीक़त को कुछ समय के लिए भूल गए।

जज साहब!! शहरों का गला कौन घोंटता है? जरा उस शहर को देखिए जहाँ देश का सर्वोच्च न्यायालय है; मुंबई, बैंगलोर, हैदराबाद किसी भी शहर को देखिये, इनमें से किसी भी शहर का गला किसानों ने नहीं घोंटा; यह गगनचुम्बी इमारतों और कंक्रीट के जंगल किसानों की संपत्ति नहीं हैं; यहाँ सारा दिन पूरी रफ्तार से दौड़ती कारें; हवा में धुआं और अन्य ज़हरीली गैसें उगलते वाहन किसानों के नहीं हैं। शहरों का गला किसानों ने नहीं, कंक्रीट के इन जंगलों और जहरीली गैसों ने घोंटा है। इन इमारतों में करोड़ों एयर-कंडीशनर लगे हुए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कोंसिन-मेडिसिन की खोज के अनुसार दुनिया की 116 बिलियन इमारतों में एयर-कंडीशनर लगे हुए हैं। खोज के अनुसार एयर-कंडीशनर हमारे देश की बिजली ऊर्जा का 10 प्रतिशत उपयोग करते हैं और 2050 तक इसका उपयोग सारे देश की बिजली ऊर्जा का 45 प्रतिशत हो जायेगा। बिजली ऊर्जा ज्यादातर कोयले से चलने वाले थर्मल प्लांटों से पैदा होती है जिसके कारण हवा बड़े स्तर पर प्रदूषित होती है। शहरों का गला इस प्रदूषण ने घोंट रखा है, लालची भवन-निर्माता और कॉर्पोरेट घराने घोंट रहे हैं, शहरों का गला वह जीवन शैली घोंट रही है, जिनमें से गांवों को खारिज किया जा रहा है।

जज साहब! आप बेहतर तरीके से जानते हैं कि विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के हाकिम क्या चाहते हैं। वह चाहते हैं कि कृषि क्षेत्र में काम करते लोगों में से ज्यादा को कृषि क्षेत्र से बाहर निकाला जाए। किसान भूमिहीन और बेरोजगार हो जाएं कम वेतन पर काम करने वाले मजदूर बन जाएं। मजदूर हो जाना कोई उपहास-कटाक्ष नहीं है पर किसानों को अपनी जमीनों से बेदखल करना अन्याय है। यह कृषि कानून विश्व बैंक और आईएमएफ की सोच के अनुसार बनाए गए हैं और यह बात सरकार भी जानती है, माहिर भी और आप भी जज साहब! हम दिल्ली की दहलीज पर शहर का गला घोंटने नहीं न्याय करने की फरियाद लेकर आए हैं। आपने कहा (मैं दोहरा रहा हूँ) “तुम लोगों ने शहर का गला घोंट दिया है और अब तुम लोग शहर के अंदर आना चाहते हो?”जज साहब! मैं फिर बड़ी नम्रता से सवाल पूछना चाहता हूँ कि क्या हम शहर में नहीं आ सकते? क्या हम बेगाने या असभ्य हैं? क्या हम इस देश के नागरिक नहीं? क्या हमने इस देश के लिए खून-पसीना एक नहीं किया है? क्या हमारे बुजुर्गों ने इस देश की आजादी के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति नहीं दी है?

जज साहब! अब मैं कुछ शब्द अपने पंजाबी किसान बहन-भाइयों की ओर से कहना चाहता हूँ। हम पंजाबी बाबा नानक, शेख़ फ़रीद, बुल्ले शाह, बाबा सोहन सिंह भकना, करतार सिंह सराभा, मदन लाल ढींगरा, सैफुद्दीन किचलू, डॉक्टर सतपाल, भगत सिंह और सुखदेव के वारिस हैं। हमें गुरु अर्जन देव जी ने यह शिक्षा दी है, “ना को बैरी नहीं बेगाना सगल संग हमको बनि आई।।”

जज साहब! मैं यहाँ एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि आपके मन में यह ‘तुमलोग’शब्द कहाँ से आया। आपके सवाल की सीरत में ‘हम’ (अर्थात शहरवासी) और ‘तुमलोग’(अर्थात देहाती, किसान) का विभाजन प्रत्यक्ष दिखाई देता है। यह बात बहुत पीड़ादायक है कि आपने हमें बेगाना, पराया और अन्य समझा। हम तो समझते थे/हैं कि आप हमारे अपने हैं, हमें न्याय देने वाले; हमें उम्मीद थी कि यह ‘हम-तुम’का भेदभाव कम से कम आपके मन में तो नहीं आएगा।

दिल्ली हमारी राजधानी है हमारे देश का दिल। इसकी दहलीज़ पर तो हम इस उम्मीद से आए हैं/थे कि हमारी राजधानी हमारी बात सुनेगी; और जज साहब! आपने देखा है कि हमें यहाँ बैठे 10 महीने हो गए हैं; पंजाब के साथ 700 से ज्यादा किसान यहां शहीद हुए हैं; पर सरकार बात नहीं सुन रही। जज साहब! आपने सरकार से क्यों नहीं कहा कि हमारी बात सुने। 22 जनवरी के बाद, आठ महीने होने को आए, सरकार ने किसानों के साथ कोई चर्चा नहीं की। सरकारी चुप के आठ महीने हमारे लिए आठ सदियों जैसे हैं; किसान बहन-भाई खुले आसमान के नीचे बैठे हैं। उन्होंने सर्दियों की हड्डियां चीरती रातें, गर्मियों के जिस्म झुलसा देने वाले दिन और बारिश-आंधी, सब झेले हैं; वह बीमार पड़े हैं; मौतें हो रही हैं। सरकारी खामोशी कितनी क्रूर और कठोर हो सकती है, वह हम जानते हैं। आपका एक हुकुम इस सरकारी खामोशी को तोड़ सकता था/है पर आपने सरकार को ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया। सरकार को पूछा भी नहीं कि बातचीत क्यों नहीं कर रही। किसानों के साथ, जिनका आंदोलन शांतिपूर्ण संयम का मुजस्समा है, बातचीत का सिलसिला क्यों तोड़ा गया है? जज साहब! क्यों? यह भेदभाव क्यों? हमें तो शहर का गला घोंटने वाला घोषित किया जा रहा है और हमारा गला घोंटने वाली सरकार से कोई सवाल नहीं पूछा जा रहा?

जज साहब! आपने कहा/पूछा है, “अब तुम लोग शहर के अंदर आना चाहते हो?”जज साहब! राजधानी के इतिहास में हजारों धरना-प्रदर्शन हुए हैं। मार्च 1919 में जब पंजाब में रौलट एक्ट के विरुद्ध आंदोलन प्रचंड हो रहा था तो दिल्ली भी पंजाब का हिस्सा थी। 30 मार्च 1919 को दिल्ली में हड़ताल हुई, फौज ने हड़ताल करने वालों पर गोली चलाई, 6 लोग मारे गए और 16 जख्मी हुए थे; यह 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग में हुए खूनी नरसंहार की प्रस्तावना थी। यहीं भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने औपनिवेशिक सरकार के जनविरोधी कानूनों (पब्लिक सेफ्टी एक्ट और ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट) के विरुद्ध रोष प्रगट करने के लिए 1929 में असेंबली में बम फेंका था, किसी को मारने के लिए नहीं, तत्कालीन बहरी सरकार के कानों तक लोगों की आवाज पहुंचाने के लिए।

और 346 बरस पहले (1675 ईस्वी में) यहाँ हमारे गुरु तेग बहादुर जी और उनके साथी हक़-सच की लड़ाई के लिए शहीद हुए थे और 305 साल पहले (1716 ईस्वी में) यहाँ ही बंदा सिंह बहादुर और उसके सैकड़ों साथियों ने शहादत को गले लगाया था और 238 साल पहले (1783 ईस्वी में) सरदार बघेल सिंह, जस्सा सिंह आहलूवालिया और जस्सा सिंह रामगढ़िया की अगुवाई में सिख सेनाओं ने यहाँ जीत के झंडे लहराए थे; तीस हजारी जहाँ स्थानीय अदालतें हैं, वह 30 हजार सैनिकों, जिन्होंने दिल्ली फतेह की थी, के नाम पर ही है।
और 1947 ने दिल्ली और पंजाब के बीच एक और रिश्ता कायम किया दुःख-दर्द बांटने का। 1947 में पंजाब को नोचा-बाँटा गया, पंजाबियों ने अपने आप को गोदा, कत्लोगारत हुई, दस लाख पंजाबी मारे गए, लाखों उजड़े और बेघर हुए। पश्चिमी पंजाब में उजड़े पंजाबियों के काफिले दिल्ली आ गए पश्चिमी पंजाब से उजड़े पंजाबियों के काफिले दिल्ली आ गए। दिल्ली ने उन्हें पनाह दी। चार लाख से ज्यादा पंजाबियों ने अपनी किस्मत दिल्ली में तलाशनी/ढूंढनी शुरू की। उनमें से ज्यादा व्यापारी, दस्तकार और मेहनत-मशक्कत करने वाले लोग थे। उस अपार दुख से गुजरते हुए पंजाबियों ने जिंदगी के नक्श पुनः गढ़े, खुद पैरों पर खड़े हुए और दिल्ली को बनाया-सँवारा। जज साहब! इस दिल्ली को बनाने-सँवारने में पंजाबियों का भी बड़ा हिस्सा है।

अतीत को छोड़कर वर्तमान की ओर लौटें तो पिछले दशक में इस शहर में बड़े आंदोलन हुए निर्भया के साथ हुए: निर्भया बलात्कार के विरुद्ध आंदोलन, अन्ना हजारे की अगुवाई में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन, और कई अन्य। लाखों लोगों ने इन आंदोलनों में हिस्सा लिया; लोकतंत्र में ऐसे ही होता है और ऐसे ही होना चाहिए और इसीलिए मुख्य मुद्दा यह है कि हमारे दिल्ली आने के बारे में सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं। प्रख्यात न्यायविद अर्ल वारेन (Earl Warren) का कथन है कि रूप/शब्द नहीं बल्कि कानून का अन्तर्भाव न्याय को जीवित रखता है। संविधान और कानून का अन्तर्भाव देश के करोड़ों किसानों और खेत मजदूरों के हक में खड़ा होने वाला है। किसी कानून को तकनीकी रूप से लागू करके हक-सच की लड़ाई को कुचलना संविधान और कानून के साथ बेइंसाफी है। किसान सुप्रीम कोर्ट से न्याय की आस रखते हैं।

(स्वराजबीर पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक, कवि और नाटककार हैं।)

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