सावरकर दया याचिका: गांधी अपने सिद्धांतों के खिलाफ जाकर किसी को नहीं देते थे सलाह

हिन्दू राष्ट्रवाद अपने नये नायकों को गढ़ने और पुरानों की छवि चमकाने का हर संभव प्रयास कर रहा है। इसके लिए कई स्तरों पर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। हाल में 2 अक्टूबर (गांधी जयंती) को महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के जयकारों की बाढ़ आ गई थी। अब गोडसे के गुरु सावरकर चर्चा का विषय हैं। उनकी शान में कसीदे काढ़ते हुए किताबें लिखी जा रही हैं और इन किताबों के विमोचन के लिए भव्य कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। अपने जीवन के शुरुआती दौर में सावरकर ब्रिटिश-विरोधी क्रन्तिकारी थे और अपने अनुयायियों को अंग्रेज़ अधिकारियों के खिलाफ हथियार उठाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। वे सावरकर 1.0 थे।

सावरकर 2.0 का जन्म उन्हें कालापानी की सज़ा सुनाये जाने के बाद हुआ। कालापानी की सज़ा का अर्थ था अंडमान स्थित जेल की अत्यंत कठिन और अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुज़ारना। इसी जेल में रहते हुए सावरकर ने हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र की विचारधाराओं का विकास किया और इसी दौरान उन्होंने जेल से रिहा होने के लिए कई दया याचिकाएं सरकार को भेजी।

अब तक तो उनके अनुयायी यही मानने को तैयार नहीं थे कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफ़ी मांगी थी और उन्हें रिहा करने की प्रार्थना की थी। परन्तु जैसे-जैसे एक क्रान्तिकारी और हिंदुत्व की राजनीति के मुख्य चिन्तक के तौर पर उनकी छवि को चमकाने के लिए पुस्तकें लिखी जाती गईं, वैसे-वैसे यह छुपाना मुश्किल होता गया कि उन्होंने सरकार से माफ़ी मांगीं थी। अब सवाल यह था कि एक क्रन्तिकारी भला एक के बाद एक कई दया याचिकाएं कैसे प्रस्तुत कर सकता था? क्रांतिधर्मिता और हाथ पसारने के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाए? इसके लिए गोयबेल्स की तकनीक अपनाई गई। इसी तारतम्य में भाजपा के वरिष्ठ नेता और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उदय माहुरकर और चिरायु पंडित द्वारा लिखित पुस्तक “वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टीशन” के विमोचन के अवसर पर एक ऐसा वक्तव्य दिया जो सच से मीलों दूर है।

सिंह ने कहा, “सावरकर के बारे में अनेक झूठ कहे गए….कई बार यह कहा गया कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार को अनेक दया याचिकाएं भेजीं। परन्तु सच यह कि उन्होंने (जेल से) अपनी रिहाई के लिए कोई दया याचिका नहीं प्रस्तुत की। किसी भी बंदी को दया याचिका प्रस्तुत करने का हक होता है। महात्मा गाँधी ने उनसे दया याचिका प्रस्तुत करने के लिए कहा था। उन्होंने गाँधीजी की सलाह पर एक दया याचिका प्रस्तुत की थी। महात्मा गाँधी ने यह अपील की थी कि सावरकरजी को रिहा किया जाए। उन्होंने यह चेतावनी भी दी थी कि उनके राष्ट्रीय योगदान का अपमान सहन नहीं किया जायेगा।”

सच क्या है? सावरकर को 13 मार्च, 1910 को गिरफ्तार किया गया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए पिस्तौल भेजी थी। यह सही है कि जेल में हालात अत्यंत ख़राब थे। यह भी सही है कि दया याचिका प्रस्तुत करना हर बंदी का अधिकार होता है। ये याचिकाएं स्वास्थ्य सम्बन्धी, पारिवारिक या अन्य आधारों पर बंदियों द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं। राजनाथ सिंह और उनके साथियों का दावा है कि सावरकर ने एक निश्चित प्रारूप में एक सी याचिकाएं लिखी थीं। परन्तु तथ्य यह है कि उनकी सभी याचिकाओं की भाषा अलग-अलग है और उनमें इस आधार पर दया चाही गई है कि उन्होंने जो किया वह एक गुमराह युवा की हरकत थी। उन्होंने यह भी लिखा कि जो सजा उन्हें दी गई है वह न्यायपूर्ण और उचित है परन्तु उन्हें इसलिए रिहा किया जाए क्योंकि उन्हें उनकी गलती का अहसास हो गया है और वे ब्रिटिश सरकार की जिस तरह से वह चाहे उस तरह से सेवा करने को तैयार हैं।

यह घुटने टेकने से भी आगे की बात है। उन्होंने 1911 से दया याचिकाएं लिखनी शुरू कीं और यह सिलसिला जेल से उनकी रिहाई तक जारी रहा। उनकी पत्रों की भाषा और उनमें व्यक्त विचारों से पता चलता है कि कोई व्यक्ति कैद से मुक्ति पाने के लिए कितना झुक सकता है। कई लेखकों ने उनकी दया याचिकाओं को विस्तार से उदृद्थ किया है। यह दावा कि ये याचिकाएं गाँधी के कहने पर लिखी गईं थीं, सफ़ेद झूठ है। सावरकर ने 1911 से ही दया की गुहार लगाते हुए याचिकाएं लिखनी शुरू कर दीं थीं। उस समय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे और वे 1915 में भारत वापस आये। धीरे-धीरे उन्होंने कांग्रेस का नेतृत्व संभालना शुरू कर दिया। इसी बीच गांधीजी को सावरकर के भाई डॉ. नारायण सावरकर का पत्र मिला, जिसमें गांधीजी से उनके भाई को रिहा करवाने में मदद करने का अनुरोध किया गया था।

इस पत्र के जवाब में गांधीजी ने 25 जनवरी, 1920 को नारायण सावरकर को लिखा कि “आप एक याचिका तैयार करें जिसमें प्रकरण के सभी तथ्यों का उल्लेख हो और इस तथ्य को सामने लायें कि आपके भाई ने जो अपराध किया है वह विशुद्ध राजनैतिक है।” यह उत्तर ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी’ के खंड 19 में संकलित है। अतः यह साफ़ है कि महात्मा गांधी ने सावरकर के भाई से याचिका तैयार करने को कहा था न कि सावरकर से दया याचिका प्रस्तुत करने को। परन्तु सावरकर ने तो दया की याचना कर ली। गांधीजी जानते थे कि सावरकर की रिहाई मुश्किल है और इसलिए उन्होंने डॉ सावरकर को लिखा था कि आपको सलाह देना एक कठिन काम है।

बाद में गांधीजी ने एक लेख भी लिखा जो ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी’, खंड 20, पृष्ठ 369-371 में संकलित है। इसमें कहा गया है कि सावरकर को रिहा किया जाना चाहिए और उन्हें अहिंसक तरीकों से देश के राजनैतिक जीवन में भागीदारी करने का मौका मिलना चाहिए। आगे चलकर गांधीजी ने भगत सिंह के बारे में भी इसी तरह की अपील की थी। वे स्वाधीनता संग्राम को एक विस्तृत और समावेशी राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में देखते थे और इसलिए इस तरह के प्रयास करते रहते थे।

गांधीजी के जीवन और उनके चरित्र को देखते हुए यह संभव नहीं लगता कि वे किसी को अंग्रेज़ सरकार के समक्ष दया याचिका प्रस्तुत करने को कहेंगे। कलेक्टेड वर्क्स में शामिल एक अन्य लेख में, दुर्गादास के प्रकरण की चर्चा करते हुए गांधीजी लिखते हैं, “अतः मुझे आशा है कि दुर्गादास के मित्र उन्हें या उनकी पत्नी को दया याचिका प्रस्तुत करने की सलाह नहीं देंगे और ना ही दया या सहानुभूति का भाव प्रदर्शित कर श्रीमती दुर्गादास को और दुखी करेंगे। इसके विपरीत, हमारा यह कर्तव्य है कि हम उनसे कहें कि अपना दिल मज़बूत करें और यह कहें कि उन्हें इस बात का गर्व होना चाहिए कि उनके पति बिना कोई अपराध किये जेल में हैं। दुर्गादास के प्रति हमारी सच्ची सेवा यही होगी कि हम श्रीमती दुर्गादास को आर्थिक या अन्य कोई भी सहायता जो ज़रूरी हो, वह उन्हें उपलब्ध करवाएं….”

यह झूठ जानबूझकर फैलाया जा रहा है कि सावरकर ने गाँधी की सलाह पर सरकार से माफ़ी मांगी थी। महत्वपूर्ण यह भी है कि जिस सावरकर की रिहाई के लिए गांधीजी ने अपील की थी वही सावरकर आगे चलकर उनकी हत्या का एक आरोपी बना। जैसा कि सरदार पटेल ने नेहरु को लिखा था, “हिन्दू महासभा के एक कट्टरपंथी तबके, जो सावरकर के अधीन था, ने षड्यंत्र रचा था….” बाद में जीवनलाल कपूर आयोग भी इन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचा।

यह सही है कि जेल से अपनी रिहाई के बाद सावरकर ने दलितों के मंदिरों में प्रवेश के लिए काम किया। उन्होंने यह भी कहा कि गाय पवित्र पशु नहीं है। परन्तु अंग्रेजों की हर तरह से मदद करना उनके जीवन का लक्ष्य बन गया। उन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद (जो देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारतीय राष्ट्रवाद का विरोधी था) की नींव को गहरा किया। सन 1942 में जब गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया उस समय सावरकर ने हिन्दू महासभा के सभी पदाधिकारियों को निर्देश दिया कि वे अपने-अपने पदों पर बने रहें और ब्रिटिश सरकार के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें। उन्होंने ब्रिटिश सेना में भारतीयों की भर्ती करवाने में भी सरकार की मदद की।

आज हिन्दू राष्ट्रवादी सावरकर का महिमामंडन करना चाहते हैं। यह दिलचस्प है कि इसके लिए उन्हें गाँधी का सहारा लेना पड़ रहा है – उस गाँधी का जिसकी हत्या में हिंदुत्व नायकों का हाथ था। राजनाथ सिंह के वक्तव्य से पता चलता है कि संघ परिवार के शीर्ष नेता अपने नायकों की छवि चमकाने के लिए बड़े से बड़ा झूठ बोलने में भी नहीं सकुचाते।
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया।)

राम पुनियानी
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