प्रतिभाओं के लिए ग्रहण बन गया है शिक्षा नियुक्ति में प्रतिशत का पैमाना

बातें थर्ड divisioner की। देश में महात्मा गांधी से लेकर कई ऐसे लोग हुए जिनको अपने जीवन में थर्ड डिग्री से संतोष करना पड़ा। क्योंकि स्केलिंग उस समय वही थी, टॉपर को 50, 55 और 60 के आस पास प्रतिशत आया करते थे। 80, 90, 2000 आदि के दशकों तक यह चला। 

पर अब हम 60% लाने वाले को बहुत काम आंक कर देखते हैं क्यों अब प्रतिशत 90 में 95 में और कई बार 99 भी देखने को मिल रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज SRCC (श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स) ने पिछले कई बार एडमिशन का कट ऑफ 100% रखा।

आप समझ सकते हैं कि यह मार्क्स आते रहे हैं बच्चों को इसलिए इस मार्क्स की डिमांड भी की गई है। खैर ज्यादा मार्क्स बच्चे ला रहे यह परेशानी का सबब नहीं है, परेशानी की बात यह है कि लंबे समय से नियुक्तियां निकाली नहीं गई, और जब निकली हैं तो 99% लाने वाला भी एलिजिबल कैंडिडेट है, और 50% लाने वाला भी एलिजिबल कैंडिडेट है। 

और  बात तब और खराब हो जाती है जब इन प्रतिशतों को एपीआई स्कोर में बदल कर 99% वाला जो 2010 में अपनी डिग्रियां हासिल करता है वह, और जो 52, 55% वाला जिसने 1980, 90 के दशक में अपनी पढ़ाई पूरी की है उसको आप एक तराज़ू में तौल कर  पुरानी पीढ़ी के साथ अन्याय कर रहे होते हैं।

असिस्टेंट प्रोफेसर की जितनी नियुक्तियां लंबे समय से advertise कर उसे नॉट फाउंड सूटेबल (NFS) लिखने की भी परम्परा लंबी रही है। ऐसे में इन 55% वालों द्वारा रचित पुस्तकें तो आपको अकादमिक में पढ़ाने के लिए चाहिए होती हैं, आप उनकी रचनाओं को सिलेबस का हिस्सा तो कभी रिफरेन्स का हिस्सा बनाते हैं, लेकिन यही लोग जब नौकरी की लंबी कतार में अपनी दावेदारी के लिए सामने आते  हैं तो एपीआई जैसे गेम से वह बाहर हो जाते हैं।

(मेरी माँ 58 की हो गई हैं, पीएचडी नेट जेआरएफ पब्लिकेशन्स सब होने के बाउजूद 1994 से लेकर आज तक वह एकेडेमिया से बाहर हैं, क्योंकि आदिवासी भाषाओं की नियुक्ति किसी सरकार में कभी नहीं हुई, हाँ SPMU (श्याम प्रसाद मुखर्जी यूनिवर्सिटी) में 3 साल का contract  teaching  में वह पढ़ाने योग्य नहीं पाई जाती है, जबकि उनके द्वारा लिखी किताबें सिलेबस का हिस्सा होती हैं, तो बेसिकली यह एपीआई गेम सत्ता की नाकामी बयान करती है। जिसे हमें खुलकर बोलना चाहिए)

मुझे लगता है कि ब्राह्मणवादी शक्तियों का जो अटूट गठबंधन इन शिक्षालयों में वीभत्सता लिए दिखता है, वह और कहीं नहीं। कई बार विश्वविद्यालय ऐसे सब्जेक्ट पढ़ते और डिग्रियां बांटते हैं कि उनमें कभी नियुक्तियां होती ही नहीं, वह हमेशा झूलता रह जाता है कि उसने लिंग्विस्टिक्स की पढ़ाई की, तो क्या वह किसी भी भाषा को पढ़ा पाने में सक्षम नहीं है,  किसी ने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन किया भाई तो क्या वह पोलिटिकल साइंस और सोशियोलॉजी, आदि पढ़ा पाने में सक्षम नहीं, या फिर बात कर लें  ट्राइबल स्टडीज के नाम पर खुले हुए विभागों की जंहा इस कोर्स को सोशियोलॉजी, एंथ्रोपोलॉजी, कस्टमरी लॉ, आदिवासी लैंक्वेज, या कोई भी अन्य क्यों नहीं पढ़ा सकता। कुछ सब्जेक्ट्स कंसीडर होंगे, कुछ नहीं।

ट्राइबल यूनिवर्सिटी अमरकंटक से लेकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड आदि  जितने भी विश्वविद्यालयों में ट्राइबल स्टडीज, वीमेन स्टडीज, सोशल inclusion स्टडीज, नार्थ ईस्ट स्टडीज के  डिपार्टमेंट खोले गए हैं, वहां हमें कितने आदिवासी के सही जानकार मिलेंगे यह सोचना पड़ेगा। वहां उनको इस बात से भी अप्पोइंट करने से रोका जाएगा कि यह पेपर तो अंग्रेजी में पढ़ाया जा रहा है फिर आप खासी जानो, मुंडारी जानो, उरांव जानो इससे हमें क्या? कुड़ुख पढ़ाने वाले लोगों की हमें कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि कुड़ुख के बारे में SC roy ने तो लिख दिया है ना, वही हम पढ़ा लेंगे इन आदिवासी स्टडीज सेन्टर में। सो भद्र लोगों की यह बपौती बन चली है। हम प्राइमरी सोर्सेज पर आधारित न होकर सेकेंडरी और टर्शियरी रिसोर्सेज पर आधारित वर्क फ़ोर्स से अपना काम चला रहे  हैं। यह एकेडेमिया अड्डा बन गया है बौद्धिक अय्याशी का।

जहां कम काम पर, मोटी तनख्वाह  उठाई जाती है औऱ एक नस्लीय हिंसा, जातीय हिंसा, असमानता को लगातार बढ़ावा दिया जाता रहा है। 

खास सवर्ण भद्रलोक में आदिवासी, दलित, ओबीसी, माइनॉरिटी, nomads के लिए आपके पास जगह नहीं है, और जिनके लिए है, वह आपकी शर्तों के आपके साथ assimilate हो जाने को तैयार है, वह उस कंडीशन में आपके आस पास की कुर्सियाँ शेयर कर रहे हैं। कम से कम सत्ता के पास तो  न्याय का तराज़ू हो,  जो कानून जैसी काली पट्टी आंखों में न बंधी हो।

(नीतिशा खलखो दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापिका हैं।)

नीतिशा खल्खो
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नीतिशा खल्खो