संसद में आज़म खां की ‘मॉब’ लिंचिंग

आज़म खां ने माफ़ी मांगी। स्पीकर ने दोबारा माफ़ी मांगने को कहा। आज़म खां ने दो-दो बार माफ़ी मांगी। डिप्टी स्पीकर रमा देवी के लिए अशोभनीय टिप्पणी पर जारी घमासान का अंत इसी रूप में हुआ। मगर, आज़म खां ने जो माफ़ी मांगी है वास्तव में क्या वह माफ़ी है? प्रायश्चित भाव के बगैर माफ़ी आत्माविहीन शब्द मात्र होता है। यह शब्द चाहे 11 हज़ार बार बोल लिए जाएं उसमें प्राण नहीं आ सकते।

आज़म खां में प्रायश्चित का भाव क्यों नहीं आया? या यूं कहें कि प्रायश्चित का भाव आए बगैर आज़म खां को माफ़ी ही क्यों दे दी गयी? दोनों प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और इसका जवाब खोजने की जरूरत है। आज़म खां को संसद डराने लगी। माफ़ी मांग लो वरना निलम्बन या निष्कासन की कार्रवाई तय है। डर से, प्रलोभन से या फिर किसी और प्रभाव से अगर कोई व्यक्ति माफी मांगता है तो उस माफी में प्रायश्चित कैसे आ सकता है!

प्रतिष्ठा आज़म खां से अधिक संसद की गिरी

रमा देवी-आज़म खां प्रकरण में प्रतिष्ठा एक व्यक्ति और सांसद के रूप में आज़म खां की ज़रूर गिरी है, मगर सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा तो संसद की गिरी है। डिप्टी स्पीकर से बड़ी गलती हुई। जब आज़म खां के बयान को उन्होंने अश्लील और अभद्र माना और इसके लिए वह आज़म खां पर कार्रवाई की ज़रूरत महसूस कर रही थीं, तो उन्होंने उनके बयान को संसद की कार्यवाही से निकाला ही क्यों? क्या ऐसा करके उन्होंने आज़म खां को दंडित होने से बचने का मौका नहीं दे दिया? आज़म खां अगर माफ़ी नहीं मांग रहे थे, तो इसके पीछे वे संसद की इस मजबूरी को जान रहे थे कि सही रास्ते पर चलकर संसद उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। यह सच है कि संसद में बहुमत हो, तो कोई भी फैसला लिया जा सकता है। इस आधार पर आज़म खां को डराया गया। बहुमत की ताकत के आगे आज़म खां ने माफ़ी मांगने में भलाई समझी।

आज़म ख़ान के साथ संसद के व्यवहार ने मॉब लिंचिंग की याद ताजा कर दी है। ऐसा लगा मानो मॉब लिंचिंग करने वालों ने जबरदस्ती आज़म खान से कोई नारा लगवा दिया है। वे नारे लगाने को मजबूर हो गये हैं। ऐसा लगा मानो संसद की ताकत ने कमज़ोर और निरीह पाकर आज़म खान की मॉब लिंचिंग कर दी हो। गुनाह चोरी का और सज़ा मॉब लिंचिंग? – यही अपराध संसद में हुआ है।

पहले कभी संसद इतनी क्रूर नहीं दिखी

संसद में क्या इससे पहले महिलाओं के अपमान में शब्द नहीं बोले गये? याद कीजिए दक्षिण भारतीय महिलाओं के बारे में संसद में शरद यादव का बयान। क्या कभी संसद ने शरद यादव से माफी के लिए ऐसी जिद दिखलायी? खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेणुका चौधरी की तुलना शूर्पणेखा से की थी। क्या कभी संसद के तेवर ऐसे दिखे, जैसे आज़म खां के साथ दिखे?

आज़म खां के शब्दों से, उन शब्दों के भावों से इत्तफाक रखना वाकई मुश्किल है। निन्दा ही हो सकती है। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। मगर, आज़म खां को इस बात का अहसास कराया जाता कि उन्होंने गलती की है और तब उनसे माफी मंगवाई जाती, तो वह माफ़ी भविष्य में दूसरे तमाम सांसदों के लिए नज़ीर बनती। ये माफी किसी के लिए प्रेरणादायी नहीं है। मगर, इसके लिए आज़म खां नहीं संसद ज़िम्मेदार है।

नज़ीर नहीं बन सकी संसद

यह सम्भव था कि आज़म खां माफ़ी के लिए राजी नहीं होते। उसके बाद संसद अपने तेवर दिखला सकती थी। आज़म खां को संसद से बर्खास्त भी कर सकती थी। किसी सांसद को बर्खास्तगी से अगर बचा भी लिया जाता है जैसे आज़म खां को बचाया गया है तो इससे कोई सीख नहीं मिलती, कोई प्रेरणा पैदा नहीं होती।

बगैर समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की भूमिका की चर्चा के, यह पाठ अधूरा लगता है। अखिलेश यादव ने भी ठीक वैसे ही गलत तरीके से अपने सांसद का साथ दिया जैसे उनके विरोधी गलत तरीके से एकजुट नज़र आए। इसलिए अखिलेश यादव भी कोई प्रेरक नेतृत्व बने दिखलायी नहीं दिए। उनमें और सत्ताधारी दल में सहूलियत की राजनीति का साझा तत्व नज़र आता है।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न न्यूज़ चैनलों पर उन्हें बहस करते हुए देखा जा सकता है।)

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