इस बार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट सरकार ने संसद में पेश करने के बजाय प्रेस कांफ्रेंस में जारी कर दी। बाद में सफाई दी गई कि चूंकि इस बार संसद में पूर्ण बजट पेश नहीं हो रहा है, इसलिए यह दस्तावेज संसद से बाहर जारी किया गया है। लोकसभा चुनाव के बाद पूर्ण बजट पेश होगा। तब उसके पहले आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया जाएगा।
परंपरा यह रही है कि बजट पेश होने से एक दिन पहले भारत सरकार संसद में चालू वित्त वर्ष का आर्थिक सर्वेक्षण पेश करती है। आम समझ है कि बजट ऐसा आर्थिक दस्तावेज होता है, जिसे सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताओं के मुताबिक तैयार किया जाता है। इस में आने वाले साल के लिए आर्थिक कार्यक्रमों की रूपरेखा पेश की जाती है। जबकि आर्थिक सर्वेक्षण गुजर रहे साल की कहानी होती है।
आर्थिक सर्वेक्षण ठोस आंकड़ों पर आधारित दस्तावेज होता है, जिससे देश की असल आर्थिक सूरत की जानकारी मिलती है। आर्थिक सर्वेक्षण को सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार तैयार करते हैं और इसलिए भी आर्थिक विशेषज्ञ उसे बजट की तुलना में अधिक विश्वसनीय और ठोस दस्तावेज मानते हैं। इस बार भी ये रिपोर्ट मुख्य आर्थिक सलाहकार ने तैयार की है, लेकिन उसमें असल आर्थिक चुनौतियों की झलक नहीं मिली है।
बल्कि नरेंद्र मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी नागेश्वरन की ताजा रिपोर्ट को खुशहाली की ऐसी कहानी पेश करने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है, जिससे आम चुनाव से पहले देश में सुखबोध का माहौल बने। तो सरकार मतदाताओं को जो बताना चाहती है, उसके अनुरूप एक रिपोर्ट तैयार की गई है, जिससे मीडिया में पॉजिटिव हेडलाइन्स मिल सके।
पहले रिपोर्ट की प्रमुख बातों पर गौर करते हैः
अब इन तथ्यों पर ध्यान दें:
पेश रिपोर्ट पर गौर करते हुए हर बिंदु पर अहसास होता है कि यह आर्थिक से ज्यादा एक राजनीतिक दस्तावेज है, जिसे चुनावी मकसद से मीडिया में बड़ी सुर्खियां बनाने के लिए लिहाज से तैयार किया गया है। क्यों? इसे समझने के लिए इन दावों पर गौर कीजिएः
ये दावे अपने-आप में यह साफ कर देते हैं कि रिपोर्ट का लक्ष्य आर्थिक स्थिति की सही तस्वीर पेश करना नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में वर्तमान सत्ताधारी पार्टी को प्रचार के लिए तर्क उपलब्ध कराना है। वरना, यह बात भी अवश्य बताई जाती कि जीएसटी के कारण छोटे कारोबारियों का क्या हाल हुआ है और आईबीसी को किस तरह अब का नाकाम कानून माना जाने लगा है।
वैसे असल सूरत यह है कि मोदी-1 और मोदी-2 के शासनकाल में औसत वृद्धि दर सिर्फ 5.8 प्रतिशत रही है। जबकि यूपीए-1 और यूपीए-2 के काल यह औसत दर 6.8 प्रतिशत रही थी। ये आंकड़े वृद्धि दर को मापने के नए पैमाने के मुताबिक हैं, जिसे मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद लागू किया था। अगर पुराने पैमाने पर देखें, तो यूपीए के दोनों कार्यकाल की औसत वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत रही थी। यूपीए-1 के दौर में यह औसत दर 8 फीसदी दर्ज हुई थी।
इसके अलावा मुख्य आर्थिक कलाहकार ने रोजगार के उन आंकड़ों का सहारा लेकर आर्थिक वृद्धि को समावेशी बताने की कोशिश भी की है, जिन पर विशेषज्ञ हलकों से वाजिब सवाल उठाए गए हैं। मसलन, यह कहा गया है कि अब रोजगार भागीदारी दर (लेबर पार्टिशिपेशन रेट) बढ़ कर 57 प्रतिशत से ऊंची हो गई है। जबकि हकीकत यह है कि इस दर में उन पारिवारिक कर्मियों को भी शामिल करने की शुरुआत वर्तमान सरकार ने की है, जिन्हें कोई वेतन नहीं मिलता।
कुल कामगार व्यक्तियों में ऐसे कर्मियों की संख्या 18.3 प्रतिशत है। अगर इन्हें निकाल दें, तो श्रम भागीदारी दर गिर कर 40 प्रतिशत के भी नीचे चली जाती है। दरअसल देश में 15 से 60 वर्ष के कुल लोगों (जिन्हें श्रम शक्ति में गिना जाता है) में ऐसे कर्मियों की संख्या सिर्फ 20.9 प्रतिशत है, जिन्हें नियमति वेतन मिलता है।
देश में बेरोजगारी और अर्ध बेरोजगारी की हालत विकट होती जा रही है। सरकार का नजरिया इस समस्या से जूझने के बजाय रोजगार की परिभाषा ही बदल देने का रहा है। इसीलिए घरेलू कामकाज में योगदान करने वाले व्यक्तियों को भी आज रोजगार-शुदा माना जा रहा है। ऐसी ही समझ के आधार पर ताजा रिपोर्ट तैयार की गई है।
अगर अर्थव्यवस्था के दायरे को और बढ़ाकर हम उसमें देश की बुनियाद से संबंधित क्षेत्रों को भी शामिल कर लें, तो नरेंद्र मोदी सरकार का रिकॉर्ड बेहद कमजोर नजर आने लगता है। किसी देश की मजबूती उसके बेशक आर्थिक ढांचे से तय होती है। आम जन की खुशहाली के साथ इस ढांचे का भी अभिन्न संबंध शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों से है। बिना शिक्षित और स्वास्थ श्रम शक्ति के कोई देश आर्थिक तरक्की नहीं कर सकता है।
तो किसी सरकार के प्रदर्शन को मापने का एक प्रमुख पैमाना यह है कि इन क्षेत्रों में सरकार का प्रदर्शन कैसा है। इस बारे में अंग्रेजी अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड ने जो विश्लेषण किया है, उससे मोदी 2.0 सरकार के प्रदर्शन की एक कमजोर तस्वीर उभरती है। इस विश्लेषण का निष्कर्ष है कि-
क्या इसे अर्थव्यवस्था का कुशल प्रबंधन कहा जाएगा?
इसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सरकार राजकोषीय अनुशासन भी बहाल नहीं कर पाई है। यह घाटा 3 प्रतिशत के तय लक्ष्य से काफी ज्यादा बना हुआ है। इस साल के लिए राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 5.9 प्रतिशत रखा गया था, लेकिन आम अनुमान है कि यह घाटा उससे ज्यादा रहेगा। (India’s fiscal deficit may breach 5.9% of GDP target: India Ratings and Research)
वी नागेश्वरन की रिपोर्ट अगर सचमुच आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट होती, तो उसमें उपरोक्त स्थितियों का विवरण दिया जाता। अर्थव्यवस्था के सामने जो समस्याएं और चुनौतियां हैं, उनका उल्लेख होता। उनके संभावित समाधान की चर्चा की जाती। लेकिन जब मकसद राजनीतिक कथानक बनाना और मीडिया हेडलाइन्स का मैनेजमेंट हो, तो जाहिर है, कोशिश यह हुई है कि इन बातों पर परदा पड़ा रहे।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)