राजनीति का मोदी मॉडल: पतन की चरम अवस्था

भारत के राजनीतिक इतिहास में महाराष्ट्र की घटना हमेशा यादगार रहेगी। यह भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार और अवसरवाद के उदाहरण की तरह याद की जायेगी। इसमें किसी भी तरह की विचारधारा, नैतिकता, अनुशासन और पार्टी की संवैधानिक स्थिति की कोई जगह नहीं बची है। हालांकि आने वाले दिनों में जिस तरह से शिव सेना को न्यायालय में जाकर विचारधारा से लेकर पार्टी की संवैधानिक अवस्थिति हासिल करने के लिए गुहार लगानी पड़ी, अब ऐसी ही स्थिति शरद पवार को एनसीपी के लिए करनी  पड़ेगी।

ये मसले, जनता से अधिक अब कोर्ट के हिस्से चले गये हैं। पार्टियां जनता से पूरी तरह कट चुकी हैं, एक खोखल बचा हुआ है। मोदी माॅडल उसे ढोल बनाकर बजा रहा है। और, विपक्ष मुक्त भारत लोकतंत्र का माॅडल बनाने की ओर बढ़ रहा है। जनता से कटी हुई इस राजनीति में तानाशाही और उन्माद के सिवा कुछ और बचता हुआ नहीं दिख रहा है। निश्चय ही कांग्रेस, खुद को जनता के बीच ले जाने की कोशिशों में लगी हुई है। लेकिन, मोदी माॅडल को जब और तरीके से सत्ता हासिल करने के मौके मिल गये हैं, ऐसे में कांग्रेस के लिए जनता के बीच जाकर पार्टी की वैधता हासिल करना पर्याप्त साबित होता हुआ नहीं लग रहा है।

मोदी माॅडल, इस शब्द का प्रयोग काफी पहले से चला आ रहा है और आमतौर पर इसे विभाजन के माध्यम से बहुमत के एकीकरण के अर्थ में लिया जाता रहा है और अल्पमत के हिस्से गहरे भेदभाव, हिंसा, हाशियाकरण और दोयमदर्जे की ओर ठेलना भी एक जरूरी हिस्सा है। लेकिन, यह राजनीति में एक नये तरह का ध्रुवीकरण है, जिसमें सिर्फ सरकार बनाने वाला अवसरवाद ही नहीं है। यह अर्थव्यवस्था और राजनीति में अंतर्निहित भ्रष्टाचार, माफिया और टुच्चे किस्म के अपराध की प्रवृत्तियों और इसमें शामिल लोगों का भी ध्रुवीकरण करता है और जरूरत पड़ने पर धर्म, जाति के आधार पर बांटता भी है।

अभी तक ज्यादातर मामले में इसने ऐसे अपराधों में संलिप्त लोगों को अपराध और दंड की कानूनी व्यवस्था के सहारे अलग-अलग पार्टियों को तोड़ने और अपनी सरकार बनाने के काम में लाया गया है। साथ ही, खुद की पार्टी में एक ठोस एकीकृत व्यवस्था बनाने के लिए भी इसका प्रयोग बेहद सतर्कता के साथ किया गया है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, और वहां एक स्पष्ट बहुमत है। वहां अपराधियों को खत्म कर उनकी जमीनों को कब्जे में लेकर आवासीय योजना लागू करने का दावा हाल के अखबारों के विज्ञापनों में दिखा है। यह विज्ञापन दावा करता है कि माफियाओं को खत्म कर ‘गरीबों’ का भला किया गया है। ‘देश में पहली बार’ का शीर्षक निश्चय ही एक माॅडल का दावा करता है। हालांकि इन माफियाओं को खत्म करने के लिए और जमीनों पर कब्जा करने के लिए जिन कानूनों और तरीकों का इस्तेमाल किया गया, वे भी नायाब हैं, लेकिन उसे माॅडल के तौर पर पेश नहीं किया गया और न ही इसे कोर्ट में पूछताछ के दौरान माॅडल की तरह बताया गया।

यह देश में चल रहे कानून व्यवस्था, न्यायालय, विधायिका के प्रावधानों और सरकार की घोषित योजनाओं से बाहर ‘बनाई गई’ देश में पहली बार वाला माॅडल है। यदि उत्तर प्रदेश में सरकार की जमीनों पर अतिक्रमण के रकबों को जोड़ा जाय, या सिर्फ नोएडा और ग्रेटर नोएडा में ही आम लोगों से पैसा वसूल कर उन्हें मकान का सपना दिखाने वाले रियल स्टेट के खिलाड़ियों की धोखाधड़ी को देखा जाय, तब ‘माफियाओं से मुक्त’ जमीन का रकबा सूई की एक नोंक से अधिक की नहीं दिखेगी। लेकिन, यहां एक माॅडल पेश करना है, जिसमें धर्म, जाति और उन्माद शामिल हो।

हालांकि यह माॅडल खास जातियों और धर्मों के लिए ही दिख रहा है। चुनाव आते ही मायावती की एक रिश्तदार के मकानों में हुए हेरफेर सामने आने लगते हैं। यह एक माॅडल है, और जाहिर सी बात है माॅडल के भीतर जो शामिल हैं वही सरकार हैं, मध्य-युगीन राजाओं से भी बदतर, जिनके जूतों के नीचे कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका होती थीं। हालांकि, उन पर राजा होने का एक नैतिक बोझ होता था और पुरोहित इस बोझ को हल्का करने के कर्मकांड में लगा रहता था। आज इसकी भी जरूरत नहीं रह गई है। अब तो, झूठ बोल जाना भी अनैकिता की श्रेणी में नहीं आ रहा है।

मोदी माॅडल की मुसीबतें उन जगहों पर ज्यादा रही हैं जहां वे सरकार में नहीं थे। इसकी सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस थी। इस माॅडल में कांग्रेस को किनारे से कुतर कर खाने की नीति अपनाई गई। गोवा, मध्य प्रदेश, हिमाचल (पिछली सरकार), कर्नाटक में कांग्रेस की सरकारों का पतन या उनकी सरकार ही न बनने देने के लिए पार्टी को तोड़ देने की रणनीति ने मोदी माॅडल को मजबूत किया और कांग्रेस नेतृत्व को बौना साबित करने के एक उदाहरण की तरह पेश किया। कांग्रेस के नेतृत्व के भीतर ही एक ग्रुप उभरकर आ गया जो नेतृत्व की खामियों का ठीकरा राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सिर पर फोड़ने में लग गया।

राजस्थान में हुए तोड़फोड़ और अब भी चल रहे प्रयास ने उभरकर आ रहे नेतृत्व के बीच एक और दरार पैदा करने की ओर ले गया। खुद प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस मुक्त देश का नारा दे रहे थे। बिहार में मोदी माॅडल ने रामविलास पासवान की पार्टी को ही खत्म कर दिया। और मुख्यमंत्री रहते हुए भी नीतीश कुमार अपनी पार्टी पर नियंत्रण खो रहे थे। इसके ठीक पहले, बंगाल में ममता बनर्जी को पार्टी और सरकार बचाने के लिए सड़क पर उतरना पड़ा।

बर्चस्व की इस लड़ाई में बंगाल ने जो हिंसा देखी, और जो अब भी जारी है, वह 1975-77 की याद दिला रहा है। उत्तर-पूर्व के राज्यों और त्रिपुरा में जहां भाजपा की स्थिति बेहद कमजोर रही थी या उसकी उपस्थिति ना के बराबर रही थी, वहां भी भाजपा ने सरकार बनाने का सिलसिला जारी रखा। और इस क्रम में हिंसा एक अनिवार्य हिस्से की तरह दिखती रही और यह आज भी जारी है।

महाराष्ट्र में एक के बाद दूसरी पार्टी का विघटन और इस विघटन का एक सरकार में सम्मिलन भारत के लोकतंत्र के इतिहास का एक नमूना है। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी भारतीय राजनीति में उभर रही एक खास तरह की गोलबंदी है, जिसमें नेता अपनी लूट,  ताकत और संपत्ति को सिर्फ बचाये नहीं रखना चाह रहा है, वह उसे आगे ले जाना चाहता है। यह भारत का नया राजनीतिक-अर्थशास्त्र है, जिसमें जानबूझकर बैंकों का पैसा हड़प जाने वालों को ‘विलफुल डिफाल्टर’ बताया जा रहा है और रिजर्ब बैंक ऑफ इंडिया उन्हें एक ‘पैसेज’ देती है जिससे वे एक बार फिर बैंकों से पैसे उठा सकने की क्षमता में आ सके। यह वित्त की वह नीति है जिसमें लंपट खिलाड़ियों को छूट देने का ही निहितार्थ है, और जो भारत के कानून के संदर्भ में ठोस अपराधी प्रवृत्ति के हैं।

उद्योगीकरण के नाम पर भारत एक ऐसी एसेंबली लाइन बन रही है, जिसमें भारत का योगदान कुल विश्व उत्पादन मूल्य में सेवा मूल्य जोड़ने से अधिक नहीं है। इसे और सरल भाषा में कहें,  तो भारत एक खाये-अघाये स्वस्थ इंसान को और बेहतर करने के लिए उसका सिर या पैर दबाने का काम कर रहा है। भारत के पूर्व गवर्नर जनरल रघुराम राजन ने हाल में इस बदतर हालात पर बेहद तकलीफ से बोलते हुए कहा कि यह हमारे लिए बेहद नाजुक स्थिति है। यदि हम इसे ठोस संदर्भों में रखकर कहें, तो यह वि-उद्योगीकरण की प्रक्रिया है जो अब तेज गति से चल रही है। चाहे वह रेलवे हो या रक्षा उद्योग, चाहे वह साफ्टवेयर हो या कार उद्योग हर जगह एक ही कहानी है।

1970-80 के बीच की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था में भारतीय लोकतंत्र का जो चेहरा दिखा था और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में जो राजनीति उभरकर आई थी, जिसमें ऐसी ही खरीद-फरोख्त, सत्ता के प्रयोग से लेकर सांसदों और विधायकों की अदला-बदली आदि थी, वह आज के समय को समझने के लिए एक छोटा माॅडल था। आज की तुलना में वह बेहद नवजात था और नेहरूवियन नैतिकता के बोध का कुछ हिस्सा बचा रह गया था। मोदी माॅडल उससे कई गुना आगे है, और यह जिस पार्टी के इतिहास से जुड़कर आता है उसमें नैतिकता बोध का कोई अर्थ नहीं है।

जहां मनु पूज्य हो, चाणक्य गर्व की बात हो और खुद को महान साबित करने के लिए साम्राज्यवादी देशों का मुंह देखने की प्रवृत्ति हो, वहां इससे अधिक की क्या ही उम्मीद की जाये। उम्मीद एक ही है, जनता को इस हालात से वाकिफ कराया जाये। उन्माद का शोर कितना भी क्यों न ऊंचा हो, हकीकत को बयां करने वाली बात ही इस शोर पर भारी रहेगी। लेकिन, जरूरी है हकीकत को उसी तरह कहा जाये, जैसा वह है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंजनी कुमार

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