बिहार में जीते मोदी, लेकिन महानायक तो तेजस्वी साबित हुए

बिहार विधानसभा में एनडीए यानी भाजपा और जनता दल (यू) के गठबंधन को जैसे-तैसे हासिल हुई जीत को मुख्यधारा के मीडिया और कुछ राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा चमत्कारिक जीत बताया जाना जरा भी हैरान नहीं करता है, क्योंकि पूरे चुनाव अभियान के दौरान स्पष्ट तौर पर दिख रही हार को मतगणना के अंतिम क्षणों में तंत्र यानी चुनाव आयोग की मदद से जीत में तब्दील कर देना और फिर उस जीत को लोकतंत्र की जीत बताना शालीन भाषा में चमत्कार ही कहा जा सकता है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव आयोग की मदद से कई मौकों पर जनादेश को बदला गया है, लिहाजा बिहार में भी ऐसा होना कतई हैरान नहीं करता। चुनाव आयोग ने एक बार फिर साबित किया है कि उसकी स्वायत्तता का अपहरण हो चुका है और अब उसकी हैसियत सरकार के रसोईघर जैसी हो गई है, जहां पर वही पकता है जो सरकार चाहती है।

जो भी हो, बहरहाल माना तो यही जाएगा कि एनडीए विजेता है। भाजपा के तमाम नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए मुख्यधारा के मीडिया ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अजेय और महानायक बताना शुरू कर दिया है। एनडीए को जैसे-तैसे मिली जीत को भले ही विपरीत परिस्थितियों में मिली महान जीत और नरेंद्र मोदी को इस चुनाव का महानायक बताया जाए, लेकिन हकीकत यह कतई नहीं है। चुनाव नतीजों में उभरे तथ्य बताते हैं कि तकनीकी या आधिकारिक तौर पर भले ही एनडीए ने जीत हासिल की हो, लेकिन इस चुनाव के महानायक नरेंद्र मोदी नहीं, बल्कि तेजस्वी यादव हैं, जिनका गठबंधन बहुमत से चंद कदम की दूरी पर ही रुक गया या रोक दिया गया।

भाजपा के लिए संतोष की बात सिर्फ यही नहीं है कि एनडीए को बहुमत हासिल हो गया, उसके लिए इससे भी ज्यादा संतोष की बात यह है कि अब वह बिहार में एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। हालांकि विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनने की उसकी हसरत पूरी नहीं हो सकी। यह हैसियत उस राष्ट्रीय जनता दल को प्राप्त हुई है, जिसके नेता तेजस्वी यादव को नौसिखिया, अनपढ़, जंगल राज का युवराज आदि और भी न जाने क्या-क्या कहा जा रहा था। राष्ट्रीय जनता दल ने सिर्फ विधानसभा की सीटें ही ज्यादा हासिल नहीं की बल्कि वोट भी सबसे ज्यादा हासिल किए। यही नहीं, तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को कुल मिले वोट भी एनडीए को मिले वोटों से कम नहीं हैं। एनडीए और महागठबंधन दोनों को 38-38 फीसद वोट हासिल हुए हैं।

चुनाव आयोग के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने वाले करीब चार करोड़ लोगों के 23.1 फीसद हिस्से ने राजद को अपना समर्थन दिया। यानी कुल 97 लाख 36 हजार 242 लोगों ने लालटेन के सामने का बटन दबाया। भाजपा इस मामले में राजद के बाद दूसरे नंबर पर रही। उसे 19.46 फीसद लोगों ने वोट दिए। यानी 82 लाख 01 हजार 408 लोगों ने कमल का बटन दबाया।

पिछले विधानसभा चुनाव आंकड़ों पर नजर डालें तो उस समय तीसरे नंबर पर रही भाजपा वोट हासिल करने के मामले सबसे आगे थी। उस चुनाव में भाजपा को सीटें तो महज 53 मिली थीं, लेकिन उसे 24.42 फीसदी यानी 93 लाख 08 हजार 15 मतदाताओं ने अपनी पसंद बनाया था। वहीं, सबसे ज्यादा 81 सीटें जीतने वाले राजद को 18.35 फीसदी वोट मिले थे। यानी कुल 69 लाख 95 हजार 509 लोगों ने वोट दिया था।

पिछले चुनाव के मुकाबले राजद को 4.75 वोट यानी 27 लाख, 40 हजार, 733 वोट ज्यादा मिले, जबकि भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले वोट शेयर में छह फीसद से ज्यादा गिरावट के साथ इस बार 11 लाख 06 हजार 607 वोट कम मिले।

चुनाव में सबसे तगड़ा झटका सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की तैयारी कर रहे नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को लगा है। हालांकि उनके मुख्यमंत्री बनने पर अभी संशय की स्थिति है। उनके जनता दल (यू) को पिछले विधानसभा चुनाव में मिली 72 सीटों के मुकाबले इस बार महज 43 सीटें मिल सकीं। उसने 122 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 15.4 फीसद यानी 64 लाख 84 हजार 414 लोगों ने वोट दिए है। जबकि पिछले चुनाव में उसने 100 सीटों पर चुनाव लड़कर 16.83 फीसदी वोट हासिल किए थे। जाहिर है कि पिछले चुनाव के मुकाबले इस चुनाव में उसे प्राप्त लोकप्रिय मतों में भारी गिरावट आई है।

नीतीश कुमार की पार्टी को कई सीटों पर चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने भी काफी नुकसान पहुंचाया, जिसके बारे में साफ दिखाई दे रहा था कि उसके अलग चुनाव लड़ने के फैसले को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का आशीर्वाद प्राप्त है। हालांकि शुरू में तो सिर्फ कयास ही लगाए जा रहे थे कि भाजपा नेतृत्व का मकसद चुनाव में नीतीश कुमार को कमजोर करना है और चिराग का अलग से चुनाव में उतरने का फैसला भाजपा की रणनीति का ही हिस्सा है, लेकिन जब भाजपा के कई वरिष्ठ नेता एक के बाद एक लोक जनशक्ति पार्टी के टिकट पर जनता दल (यू) के खिलाफ मैदान में उतरने लगे तो माजरा साफ होता गया। यह बात तो चिराग पहले ही साफ कर चुके थे कि उनकी पार्टी सिर्फ उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ेगी जहां पर जनता दल (यू) के उम्मीदवार मैदान में होंगे। मतलब साफ था कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं!’

हालांकि भाजपा के दूसरी और तीसरी श्रेणी के नेता चिराग के इस फैसले की आलोचना करते हुए नीतीश कुमार को ही अपने गठबंधन का नेता बताते रहे, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक भी भाषण में चिराग के फैसले पर कुछ नहीं कहा। जबकि चिराग पासवान पूरे चुनाव के दौरान नीतीश कुमार को निशाना बनाते हुए नरेंद्र मोदी को अपना नेता बताते रहे। चिराग पर मोदी की चुप्पी से रहा-सहा संशय भी खत्म हो गया।

भाजपा के इस दांव को नीतीश कुमार अच्छी तरह समझ रहे थे, लेकिन वे आखिरी तक इसकी कोई काट नहीं ढूंढ सके। हालांकि उन्होंने मोदी और भाजपा के साथ ही अपने जनाधार को यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं की कि वे भाजपा के इस दांव को खूब समझ रहे हैं। जनता दल (यू) के कई नेताओं ने सार्वजनिक रूप से कहा कि चिराग पासवान तो महज जमूरा है, मदारी तो कोई और है जो जमूरे को नचा रहा है। बताने की जरूरत नहीं कि यह इशारा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर था।

जो भी हो, चिराग पासवान की पार्टी को सीट भले ही सिर्फ एक मिली हो, पर लगभग 20 सीटों पर उसकी मौजूदगी साफ तौर पर जनता दल (यू) की हार का कारण बनी है। कई सीटों पर उसने जनता दल (यू) की जीत के अंतर को भी कम किया है। लोक जनशक्ति पार्टी ने 123 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। उसे 5.66 फीसद यानी कुल 23 लाख 83 हजार 457 वोट मिले।

चुनाव में महागठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई कांग्रेस। उसने चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से पहले तेजस्वी यादव पर दबाव बनाकर अपने लिए 70 सीटें ले ली थीं, जो कि पिछले चुनाव में लड़ी गईं 40 सीटों से 30 ज्यादा थीं। कांग्रेस ने पिछला चुनाव राजद और जनता दल (यू) के साथ महागठबंधन में रहते हुए लड़ा था और 27 सीटें जीती थीं।

इस बार कांग्रेस को 70 में से जीत सिर्फ 19 सीटों पर ही मिल सकी। हालांकि कांग्रेस को मिले कुल वोटों और वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ है, लेकिन ऐसा इस बार उसके उम्मीदवारों की संख्या ज्यादा होने की वजह से हुआ। पिछले चुनाव में कांग्रेस को 6.66 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन इस बार उसे मिले वोटों का प्रतिशत 9.5 रहा। कुल 39 लाख 95 हजार 03 लोगों ने उसे वोट दिए। कांग्रेस का यह चुनावी प्रदर्शन प्रदेश में उसके संगठन की दारुण स्थिति को बयान करने वाला है।

महागठबंधन में शामिल वाम दलों ने जरूर लंबे समय बाद बिहार के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया। चुनाव लड़ने के लिए उनके हिस्से में 29 सीटें आई थीं, जिनमें से 18 पर उन्होंने जीत हासिल की है। कहा जा सकता है कि अगर हिस्से में लड़ने के लिए कुछ और सीटें आई होतीं, साधन उपलब्ध होते और कांग्रेस अपनी क्षमता से ज्यादा सीटें नहीं लड़ती तो चुनाव नतीजों की तस्वीर कुछ और होती।

जो भी हो, फिलहाल तो बिहार की सत्ता एक बार फिर सपनों के सौदागरों के हवाले हो गई है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपने वादे के अनुरूप नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करती है या नहीं। नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इसलिए यह देखना ज्यादा दिलचस्प होगा कि इस बार अपनी पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हैं या नहीं। सवाल यह भी है कि बुरी तरह हार जाने के बाद भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का उनका दावा करना क्या नैतिकता के तकाजे के अनुरूप होगा?

हालांकि यह सवाल ज्यादा मायने नहीं रखता कि बिहार का मुख्यमंत्री कौन होगा या कौन नहीं? फिलहाल तो इस चुनाव का सबसे बड़ा हासिल यह है कि तेजस्वी यादव के रूप में बिहार को अगले कुछ दशक के लिए एक नेता मिल गया। उन्होंने बिहार के बुनियादी सवालों को उठाते हुए चुनाव लड़ा, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री स्तर के नेताओं के स्तरहीन निजी हमलों का शालीनता से जवाब दिया और अपनी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी की हैसियत दिलाकर अपनी क्षमताओं को साबित किया है। इसलिए इस चुनाव के वास्तविक महानायक वे ही हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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