‘मोदी की गारंटी’: राजसी मानसिकता का आख्यान

‘मोदी की गारंटी’ सत्तारूढ़ दल भाजपा का चुनावी शंखनाद बन कर देश में गूंज रही है। पिछले दिनों संपन्न प्रदेशों के चुनाव प्रचार के दौरान इस नारे की गूंज उठी थी। इस नारे ने हिंदी प्रदेशों में अपना अभूतपूर्व कमाल भी दिखाया और भाजपा को राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में शासनाधीश भी बना दिया। आज यह ‘मोदी की गारंटी’ शासन और पार्टी का तकियाकलाम बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं अपने भाषणों में इसके प्रचारक दिखाई देते हैं। 

इंडिया टुडे को दिए गए अपने ताज़ा इंटरव्यू में मोदी जी स्वयं कहते हैं कि “मोदी गारंटी चुनाव जीतने का फार्मूला नहीं था। मैं जब इसकी बात करता हूं तो मैं इसके प्रति संकल्पबद्ध होता हूं। यह मुझे सोने नहीं देता है। यह मुझे और कड़ी मेहनत करने के लिए कहता है।” अब यह नारा इश्तिहारों में भी छाया रहता है। मोदी जी स्वयं इससे इंकार करें, लेकिन सार्वजनिक यथार्थ यही है कि इस नारे ने निश्चित ही मतदाताओं को चमत्कारिक ढंग से मोहित किया था, और अगले वर्ष लोकसभा के चुनावों में भी करेगा।

यदि चुनावों में इसके अनुकूल परिणाम नहीं निकलते तो मोदी और भाजपा सत्ता इससे कभी का अपना पिंड छुड़ा लेती। मसलन, अब ’15 लाख रुपये हरेक के अकाउंट में पहुंचेंगे, प्रति वर्ष दो करोड़ लोगों को नौकरी मिलेगी, पकौड़े तलना’ जैसे नारे सुनाई नहीं देते हैं। विगत की परतों में गुम हो चुके हैं। सियासत का यह दस्तूर है कि जो नैरेटिव या नारा किल्क करता है वही सियासी टकसाल का सिक्का बनता रहता है। 

हर पार्टी को नए नए आख्यान, नारे, जुमले आदि गढ़ने का अधिकार है। माहौल की ज़रूरतों को देख कर प्रचार शस्त्र तैयार किये जाते हैं। इस दृष्टि से मोदी-शाह ब्रांड भाजपा को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। लेकिन, प्रतिस्पर्द्धी चुनाव प्रणाली में पार्टियों से यह अपेक्षित ज़रूर रहता है कि उनकी प्रचार सामग्री लोकतंत्र की भावना, मर्यादा और संविधान के कसौटियों पर खरी उतरें। जब ‘मोदी की गारंटी’ के नैरेटिव का विश्लेषण किया जाए तो इसमें चरम व्यक्तिवाद की अंतर्धारा बहती हुई सुनाई देती है।

देश, राज्य, लोकतंत्र, सरकार और प्रधानमन्त्री का पद किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं हैं। ये पांचों अवयव जनता की ‘सामूहिक चेतना के पुंज’ हैं। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में ‘मैं’, ‘मेरी’ की गूंज अपेक्षाकृत अधिक सुनाई देती है। मोदी जी मुश्किल से ‘हमारी सरकार’ की बात करते हैं। वे बड़े सुनियोजित ढंग से सभी लोकतान्त्रिक संस्थाओं और सरकार को ‘व्यक्ति केंद्रित’ बना डालते हैं। जब वे योजनाओं की राशि की घोषणा करते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है कि गोकी वे ‘खैरात’ बांट रहे हों। जनता पर व्यक्तिगत ‘अनुकम्पा’ कर रहे हों। 

लोकतंत्र में राज्य की यह मूलभूत ज़िम्मेदारी है कि वह अपने नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आधारभूत संसाधन उपलब्ध कराये। अक्सर प्रचारित किया जाता है कि मोदी जी इतने करोड़ की ‘सौगात’ जनता को देंगे। यह सौगात शब्द ही स्वयं लोकतान्त्रिक भावना के अनुकूल नहीं है। सामन्तीकाल या राजशाही काल में राजे-महाराजे-नवाब  ‘सौगात’ या ‘तोहफों’ की घोषणा किया करते थे। ‘प्रजा पर अनुकम्पा’ राजशाही की शासन शैली हुआ करती थी। लेकिन, इस सदी में इसके नए नए संस्करण दिखाई दे रहे हैं। 2014 से राजशाही संस्कृति की धमाकेदार वापसी दिखाई दे रही है। 

इस लेखक को याद है कि सातवें दशक के इंदिरा काल में नारा लगा था ‘इंदिरा इज़ इंडिया’, इंडिया इज़ इंदिरा है’। इस नारे के सूत्रधार थे कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और इंडिया, परस्पर पर्याय बन गए। इसने आपातकाल की तानाशाही को और मज़बूत किया। लेकिन, अंत में इसका नतीज़ा क्या निकला? 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और इंदिरा गांधी की करारी हार हुई। 

1971 में भी व्यक्तिपूजा का आख्यान प्रचारित किया गया था ‘गरीबी हटाओं’। उस समय नारा उछला था ‘मैं गरीबी हटाना चाहती हूं, वे इंदिरा हटाना चाहते हैं’। राज्य का मूलभूत कर्त्तव्य है ‘गरीबी हटाना’ और प्रतिपक्ष का अधिकार है ‘सत्ता परिवर्तन’। इस सिलसिले का वैयक्तिकरण नहीं किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी उसी गलती को दोहरा रहे हैं जिसे इंदिरा जी ने किया था।

तब और आज में एक बुनियादी फ़र्क़ ज़रूर है। इंदिरा काल में धर्म, हिंदुत्व, मिथकीय नायकों, अवतार, जन्मभूमियों आदि के शस्त्र नहीं चलाये गए थे। लेकिन, मोदी व भाजपा काल में इन शस्त्रों का निर्माण व प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। जनता में इन हथियारों के माध्यम से मध्ययुगीन सामंती मानसिकता को रोपा जा रहा है। उसके विवेक का हरण हो रहा है। वह यह तय नहीं कर पा रही है कि उसके गरिमामयी जीवन के लिए कैसा शासन, कैसे आख्यान, कैसे प्रतिनिधि होने चाहिए?

सारांश में। नए नए आख्यानों के ज़रिये ‘कलेक्टिव क्रिटिकल फैकल्टी’ को सुनियोजित तरीके से सुन्न किया जा रहा है। भावना प्रधान आख्यानों के मायाजाल में उसे फंसाया जा रहा है। जनता कभी एक ‘स्वस्थ नागरिक’ नहीं बन सके और प्रजा मानसिकता में ही धंसी रहे। प्रजारूपी जनता सरकार को अपना ‘माई-बाप’ मानती रहे। माई-बाप संस्कृति के निर्माण व विस्तार के लिए नाना उपक्रम-फार्मूले रचे जाते हैं।

अयोध्या रामजन्म भूमि मंदिर के निर्माण के बाद अब संघ परिवार कृष्ण जन्म भूमि मंदिर और काशी प्रकरण को राजनीति के केंद्र में खिसका रहा है। प्रधानमंत्री द्वारा अयोध्या में मंदिर के उद्घाटन की विराट तैयारियां की जा रही हैं। ऐसे ही भावना सृजक आयोजनों में जनता मगन रहती रहे, मोदी-गारंटी ऐसी ही मानसिकता की रचना करती है।   इससे भविष्य में लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए कई प्रकार के संकट पैदा हो जाएंगे। निर्वाचित तानाशाही का रास्ता साफ़ होगा। यह ‘परिघटना’ दक्षिण एशिया के देशों की सामाजिक-राजनीतिक नियति बनी हुई है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, म्यांमार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

एक समय था जब अधिकांश लातिनी देशों की यही नियति बनी हुई थी। चुनाव प्रचार के दौरान नारे हुआ करते थे- तुम्हें सोचने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए सोचेगा; तुम्हें देखने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए देखेगा; तुम्हें बोलने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए बोलेगा; तुम्हें कुछ करने की आवश्यकता नहीं, वह तुम्हारे लिए करेगा। (पाउलो फ्रेरे : एजुकेशन फॉर क्रिटिकल कांशसनेस, पृष्ठ 57)। यह नियति लम्बे समय तक रही।

यही कारण था कि वहां के देशों में ‘उदार लोकतंत्र या लिबरल डेमोक्रेसी’ भी नहीं पनप पाई थी। ऐसे वातावरण में सामंती प्रवृतियां- चरम व्यक्तिवाद, प्रजा मानसिकता, सैन्यवाद, अंधराष्ट्रवाद आदि प्रखरता के साथ उभरती हैं। मोदी जी ने 80-81 करोड़ लोगों को 2028 तक जीवन-निर्वाह की गारंटी दी है। इतने करोड़ लोग ‘गारंटी-तोहफा’ पर पलते रहेंगे। ‘मोदी जी हमारे लिए सोच रहे हैं, काम कर रहे हैं, बोल रहे हैं, अब और हमें करना क्या? राम भजन-हरी भजन-मोदी गान करते रहें?’, ऐसी मानसिकता की गिरफ्त में करोड़ों लोग रहेंगे।

मोदी जी करोड़ों की इस जनता को यह नहीं बता रहे हैं कि उनकी इस दुर्दशा के लिए कौन सी शक्तियां ज़िम्मेदार हैं? वे कड़े परिश्रम के बावजूद गरीबी से उभर क्यों नहीं पाये? उनके श्रम के फल को कौन डकार गया? चंद लोगों के पास अकूत दौलत कैसे ज़मा हो रही है? चंद अमीरज़ादे बैंकों का हज़ारों करोड़ रुपया लेकर देश से कैसे फरार हो गये? उन्हें अभी तक वापस लाने में मोदी सरकार क्यों नाकाम रही है? क्या अस्सी करोड़ लोगों के बीच इन सवालों पर बहस नहीं होनी चाहिए थी?

इन सवालों के माध्यम से जनता की चिंतन व कर्म शक्ति को बल मिलता। वे अपनी ग़ुरबत के लिए ज़िम्मेदार भारतीय राज्य से सवाल करते और कहते ‘हमें मोदी गारंटी की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत यह है कि राज्य अपनी बुनियादी ज़िम्मेदारी व भूलों को स्वीकार करे’। क्या देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके गृहमंत्री अमित शाह ऐसे सवालों को  ‘सार्वजनिक बहस’ का मुद्दा बनाएंगे? जब राज्य से ऐसे सवालों के सही ज़वाब मिलने लगेंगे तब प्रजा नागरिक बनने लगेगी और अंतिम जन को ‘न्याय का एहसास’ होने लगेगा।  

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

रामशरण जोशी
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