मुंगेर की हिंसा: मोदी-तंत्र के खिलाफ जनता का प्रतिरोध

मुंगेर की हिंसा ने भाजपा समर्थक मीडिया को कुछ समय के लिए च्युइंगम थमा दिया और सदा की तरह उसने एक गंभीर तथा व्यापक अर्थों वाली घटना को संकीर्ण विवाद में बदलने की कोशिश की। उसने इस धार्मिक मामले को हल करने में प्रशासन की विफलता का रंग देने और सरकारी सुर में सुर मिलाते हुए राजनीति करने का दोष विपक्ष पर मढ़ने की कोशिश की। देश के सबसे तेज चैनल की एक चर्चित एंकर पूछ रही थीं कि चुनाव आयोग ने कार्रवाई कर दी है तथा डीएम और एसपी हटाए जा चुके हैं, इसके बाद भी इस पर राजनीति क्यों की जा रही है? वह बार-बार बता रही थीं कि अब प्रशासन चुनाव आयोग के नियंत्रण में है और राज्य सरकार के हाथ में कुछ नहीं है।

गोदी मीडिया ने इस घटना का इस्तेमाल हिंदू आस्था के पहरेदार बने उन प्रवक्ताओं को जहरीले बयान का मौका देने के लिए भी किया जो बिहार के चुनावों में अपनी हाजिरी नहीं लगा पाए थे। हिंसा ने इस पक्षपाती मीडिया को भाजपा के लगातार नीरस जा रहे चुनाव अभियान से बाहर आने तथा महागठबंधन के असरदार चुनाव अभियान से लोगों का ध्यान हटानें का मौका भी दिया। लेकिन क्या मुंगेर में प्रतिमा-विसर्जन के लिए जा रही जनता पर लाठीचार्ज तथा गोली चलाने की घटना एक प्रशासनिक भूल भर है? क्या इसे हिंदू आस्था पर हमले के चालू जुमले के जरिए अभिव्यक्त किया जा सकता है? 

दोनोें सवालों के उत्तर ‘नहीं’ में आएंगे। सच्चाई यही है कि यह पिछले पांच सालों में मोदी के नेतृत्व में खड़ा हुए निरंकुश तंत्र का स्थानीय प्रदर्शन है। यह तंत्र जनता को नागरिक होने का हक नहीं देना चाहता है। उसके लिए जनता एक भीड़ है। यह तंत्र जनता को भीड़ मानने तक ही नहीं थमता है, बल्कि उसे भीड़ बनाने में भी अपनी ताकत लगाता है। जनता जब नागरिक बन कर आती है तो मोदी-तंत्र इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है। इस तंत्र का चेहरा उस समय सामने आता है जब लोग नागरिकता संशोधन के विरोध में खड़े होते हैं या भुखमरी से बचने के लिए प्रवासी मजदूर आनंद विहार में जमा होते हैं। मुंगेर में भी यही हुआ। लोग मूर्ति-विसर्जन के अपने नागरिक अधिकार का इस्तेमाल करना चाहते थे और यह मोदी-तंत्र को मंजूर नहीं था।

मुंगेर की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझे बगैर यहां के लोगों के आक्रोश को समझा नहीं जा सकता है। हिंदूवादी और संस्कृति की गहराई से अज्ञान लोग विसर्जन के लिए जा रहे लोगों को एक संकीर्ण नजरिए से देख रहे हैं। उन्हें सैकड़ों साल की इस क्षेत्र की उस सांस्कृतिक विरासत की जानकारी नहीं है जो दुर्गा पूजा के जरिए अभिव्यक्त होती है। हालांकि सार्वजनिक दुर्गा-पूजन का मौजूदा स्वरूप बंगाल के दुर्गा-पूजन समारोह से प्रभावित है और आज़ादी के आंदोलन के समय विकसित हुआ है, यहां शक्ति की आराधना की सैकड़ों साल की परंपरा है।

इतिहासकारों के अनुसार यह आठवीं शताब्दी और उसके पहले से प्रचलित है। यह क्षेत्र तंत्र-साधना का प्रमुख केंद्र था। शहर के बाहर चंडिका का एक मंदिर आज भी इसके सबूत के रूप में मौजूद है। मुंगेर में दुर्गा-पूजन समारोह सिर्फ आस्था का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि परंपरा के संरक्षण का एक जरिया भी। इसमें उन सारे नियमों  तथा अनुशासन का पालन होता है जो दशकों पहले बनाए गए थे। मसलन बड़ी और छोटी दुर्गा समेत कई दुर्गा-स्थानों की मूर्तियां ठीक वैसी ही बनती हैं जैसे पहले बनती थीं। इसी तरह विसर्जन के लिए उनके ले जाने का मार्ग भी पहले से तय है। बड़ी दुर्गा को कंधे पर ले जाना होता है और वह सबसे पहले गंगा में विसर्जित होती हैं।

इस बार प्रशासन पहले से निरंकुशता का परिचय दे रहा था जिसके प्रतिरोध में जनता आखिरकार हिंसा पर उतर आई। उसने थानों तथा एसपी दफ्तर में तोड़-फोड़ की और वाहन आदि जलाकर अपने गुस्से का इजहार किया। चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद से ही मसला पेंचीदा हो गया था। प्रशासन दुर्गा-पूजन समितियों पर लगातार दबाव डाल रहा था कि दो दिन पहले विसर्जन कर दें, लेकिन वे नहीं माने। सवाल उठता है कि मुंगेर में चुनाव की तारीख तय करते समय इसका ध्यान क्यों नहीं रखा गया? सभी को मालूम है कि मुंगेर का विसर्जन समारोह अपने रंग-भरे आयोजन के लिए राज्य भर में प्रसिद्ध है।

साफ है कि स्थानीय प्रशासन ने चुनाव आयोग को भरोसा दिया कि वे जबर्दस्ती करने में सफल हो जाएंगे और उन्होंने ऐसी ही कोशिश की। पुलिस ने कंधे पर मूर्ति ले जा रहे लोगों पर लाठियां बरसाईं तथा गोली चलाई और बाद में अपनी गलती मानने के बदले उन पर यह आरोप भी लगा दिया कि गोलियां लोगोें की ही ओर से चलाई गईं। जनता को ही अपराधी करार दे दिया। पुलिस ने बड़ी दुर्गा की प्रतिमा सबसे पहले विसर्जित करने की सालों पुरानी परंपरा भी तोड़ डाली।

सवाल उठता है कि प्रशासन ने इस तरह का रवैया क्यों अपनाया? क्या यह समस्या को सही ढंग से नहीं समझने की भूल थी? ऐसा सोचना मोदी-तंत्र के सच को नकारना होगा। इस घटना के लिए जिम्मेदार पुलिस अधीक्षक लिपि सिंह जेडीयू नेता और सांसद आरसीपी सिंह की बेटी हैं। आरसीपी सिह सिर्फ नीतीश कुमार के करीबी नहीं  हैं बल्कि अमित शाह के करीब आ गए जेडीयू नेताओं में उनका नाम सबसे ऊपर है। उनकी बेटी पर चुनाव के दौरान पक्षपाती व्यवहार के आरोप पहले भी लग चुके हैं। चुनाव आयोग ने इस सामान्य से नियम का पालन भी नहीं किया कि चुनाव में हिस्सा ले रहे लोगोें के रिश्तेदारों को चुनाव कराने की जिम्मेदारी से मुक्त रखा जाए। यही नहीं उसे हटाए जाने की मांग को आयोग ने तभी माना जब लोग हिंसा पर उतर आए।

आयोग के निकम्मेपन का अंदाजा इसी से होता है कि लिपि सिंह के पति बांका में जिलाधिकारी हैं और चुनाव की निगरानी कर रहे हैं। अखबार में नेताओं के रिश्तेदार अफसरों के नाम छप रहे हैं, लेकिन आयोग को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि मुंगेर महागठबंधन का मजबूत गढ़ है और वहां एनडीए के एक प्रभावशाली नेता की बेटी की तैनाती के क्या मायने हैं। आयोग इन तैनातियों के जरिए अपने पक्षपात कर परिचय दे रहा है।

मुंगेर की घटना से इस आरोप की एक बार फिर पुष्टि हुई है कि मोदी-तंत्र में संस्थाओं का पूर्ण विनाश हो चुका है। लेकिन हर तंत्र की तरह इस तंत्र को भी लोगों के प्रतिरोध की ताकत का अंदाजा नहीं है। बिहार का शायद ही कोई प्रशासक या राजनेता होगा जिसे इस जिले के प्रतिरोध के गौरवशाली इतिहास की जानकारी नहीं हो। असहयोग आंदोलन, सिविल नाफरमानी, 1942 के भारत-छोड़ो, किसान आंदोलनों में इस जिले के यादगार योगदान हैं। आजादी के बाद भी इसने समाजवादी, कम्युनिस्ट आंदोलनों और जेपी आंदोलन में जमकर हिस्सा लिया है। लेकिन मौजूदा चुनावों में मुंगेर की

संघर्षशील जनता ने अनजाने ही एक बड़ा योगदान कर दिया है। इसने भाजपा के लिए यह मुश्किल खड़ी कर दी है कि वह कोई सांप्रदायिक मुद्दा उठाए। आखिरकार दुर्गा के श्रद्धालुओं को उनके अधिकार छीन लेने और उन पर गोली चलाने वाले तुरंत हिंदू-हिंदू का शोर कैसे मचा पाएंगे?

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं। आप का गृह जनपद मुंगेर है।)  

अनिल सिन्हा
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अनिल सिन्हा