आमिर के हत्यारों की निशानदेही के जरिये की जा सकती है प्रदर्शनों को हिंसक बनाने वाले तत्वों की पहचान

मैंने एक नियम बनाया है। किसी स्टोरी को लेकर कोई ट्रोल करता है तो नहीं लिखता हूं। क्योंकि ट्रोल करने का एक पैटर्न है। बदला लेने का पैटर्न। आपने ‘उस वाली’ स्टोरी पर बोला था अब ‘इस वाली घटना’ पर बोल कर दिखाओ। पूछने वाला निसंदेह ‘उस वाली स्टोरी’पर चुप था। मेरा सपोर्ट नहीं कर रहा था। उसे मेरी ‘उस वाली स्टोरी’से तकलीफ हो रही थी। इसलिए वो ‘इस वाली स्टोरी’ के बहाने ‘उस वाली स्टोरी’ का बदला लेना चाहता है। आप ‘इस वाली’और ‘उस वाली’स्टोरी में मारे गए लोगों के मज़हब के आधार पर फर्क कर सकते हैं। ट्रोल इसी आधार पर सक्रिय होते हैं।

18 साल का आमिर हांजला बैग बनाने का काम करता था। पिता दरभंगा में खेती करते थे। 21 दिसंबर को पटना के फुलवारी शरीफ में टमटम स्टैंड के पास नागरिकता कानून के विरोध में रैली पहुंची थी। तभी सामने से एक और भीड़ आ गई। पत्थरों और गोलियों से लैस। ( इसके वीडियो हैं) भीड़ ने क़ानून का विरोध करने वालों पर हमला कर दिया। विरोध करने वालों में से गोली लगने से 11 लोग घायल हो गए। कौन लोग थे जो सामने से गोलियों और पत्थरों से लैस होकर आए थे, हिंसा करने वालों के नैरेटिव में वो शामिल नहीं हैं।

ज़ाहिर है उन्हें अपने या प्रशासन पर भरोसा होगा कि जो चाहेंगे कर लेंगे। वर्ना सामने से आ रही रैली को रोककर पत्थर मारने का काम हर कोई नहीं कर सकता है। यह सीधे तरीके से शहर को दंगे की आग में झोंक देने की कोशिश थी। एक ही तरफ से गोली चली।दूसरी तरफ से नहीं चली । सभी घायल एक ही समुदाय से हैं। गोली लगने वालों में एक की हालत गंभीर है। बाकी सब खतरे से बाहर हैं। क़ानून का विरोध करने वाले लोगों ने संयम नहीं खोया और दंगा कराने वालों का मक़सद फेल हो गया। फुलवारी शरीफ के लोग तारीफ के काबिल हैं।

उस दिन एक लड़का ग़ायब हो गया। 18 साल का आमिर हांजला। मोबाइल बंद हो गया। भीड़ ने खींच लिया। उस दिन लोगों ने उसके पिता सोहैल को यही बताया।

हमारे सहयोगी मनीष कुमार जब यह स्टोरी करने गए तो लौट कर यही कहा कि पिता का शक वाजिब लगता है। सीधे सादे व्यक्ति हैं। मनीष ने बताया कि बार का संयम रुला गया। वो पुलिस से यही कहते रहे कि उन्हें लग रहा है कि वह ज़िंदा नहीं होगा। किसी तरह पार्थिव शरीर मिल जाए तो अंतिम संस्कार कर सकें। बाप ने टीवी पर कोई भावुकता वाली बात नहीं की और न किसी समुदाय को ललकारा। मुझे सोहैल में दिल्ली वाले अंकित के पिता नज़र आए। जिन्होंने उस भीड़ को घर से लौटा दिया जो उनके बेटे की हत्या के बहाने मोहल्ले में तनाव पैदा कराने आए थे।

पिता सोहैल कहते रहे कि भीड़ ने ही मार कर ग़ायब कर दिया है। पिता का शक सही निकला। दस दिनों बाद आमिर हंजाला का शव बरामद हुआ। उसे मोहल्ले से 3 किमी दूर दफनाया गया है।

21 दिसंबर को पटना में बड़ी साज़िश रची गई लेकिन आप इस हिंसा को लेकर न तो नीतीश कुमार को और न सुशील मोदी को बात करते देखेंगे और न ही पटना से आने वाली खबरों में इसे लेकर तत्परता। न ही आपको योगी की तरह पत्थर और अस्लाह लेकर हमला करने वाली भीड़ पर हर्जाना लगाने की खबर आपको मिलेगी।

फुलवारीशरीफ घटना के संबंध में पटना पुलिस ने 60 लोगों को गिरफ्तार किया है। 33 हिन्दू हैं। 27 मुसलमान हैं। एक मंदिर का गेट तोड़े जाने का भी मामला सामने आया है। ऐसे मामलों की जांच भी ज़रूरी है क्योंकि इन्हीं की आड़ में गोली चलाने वाला बच निकलता है। कई बार कमज़ोर जांच के कारण कानून से भी और समाज से भी।

आमिर के पिता। फोटो- सौजन्य नदीम खान की फेसबुक वाल

डर और चिन्ता की बात यह है कि इस घटना को अंजाम देने में जिन लोगों की गिरफ्तारी हुई है उनमें कई पेशेवर अपराधी हैं। नागेश्वर सम्राट, गुड्डू चौहान, सुरेंद्र महतो, संजीत यादव, विकास कुमार, दीपक पासवान, चयतु चौहान, रहीस महतो, देलवां चौहान। चौहान बेलदार हैं यानि अनुसूचित जाति के हैं। इन्हीं लोगों की निशानदेही पर आमिर हांजला का शव बरामद किया जा सका। इनमें से कइयों का पुराना आपराधिक रिकार्ड रहा है। स्थानीय पत्रकार ने बताया कि 2008 में इस इलाके में डीएसपी रहे एक अधिकारी ने पुलिस मुख्यालय को इनके बारे में रिपोर्ट भेजी थी कि ये हर तरह का अवैध धंधा करते हैं और फुलवारी शरीफ की कानून व्यवस्था के लिए समस्या हो सकते हैं। उस अफसर की रिपोर्ट सही साबित हुई। एक बात जो साबित नहीं हुई है या होनी है वो यह कि ये अपराधी किसके कहने पर सामने से आ रही प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने गए थे? इलाके के लोग इसका जवाब जानते हैं। नागेश्वर सम्राट और संजीत यादव की राजनीतिक पृष्ठभूमि की आसानी से पड़ताल की जा सकती है।

आप इस हिंसा को लेकर न तो नीतीश कुमार को और न सुशील मोदी को बात करते देखेंगे और न ही पटना से आने वाली खबरों में इसे लेकर तत्परता दिखेगी। न ही कोई आपको ट्रोल करेगा कि आप आमिर के मामले में चुप क्यों हैं। फुलवारी शरीफ के मामले में क्यों नहीं बोल रहे हैं। वजह साफ है। हमारा समाज बदल गया है। वह हत्या को पचा लेता है। इस मामले में वह इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या को भी पचा लेता है और आमिर हांजला की हत्या को भी।

पटना पुलिस के डीएसपी रमाकांत और उनके इंस्पेक्टर क़ैसर आलम की टीम ने सारा ज़ोर लगा दिया। डीएसपी रमाकांत का इस इलाके में पुराना अनुभव रहा है। एक पुलिस वाले ने यहां तक अपना फर्ज़ निभाया तो हिंसा की एक घटना के अपराधी पकड़े गए और शव बरामद हो सका। लेकिन आगे के मुकदमों में पुलिस की परीक्षा बाकी है। मुमकिन है जो पकड़े गए हैं वो कल छूट जाएंगे। इनसे न तो हर्जाना वसूला जाएगा और न ही आरोप साबित हो सकेगा। अब नीतीश की पुलिस वो नहीं रही जो चंद महीनों में आरोप साबित कर देती थी। समस्तीपुर से लेकर कटिहार तक में नागरिकता संशोधन कानून के लिए हो रही सभाओं में गोली मारने के नारे लगाए जा रहे हैं। पुलिस मूकदर्शक बैठी है।

आमिर हांजला की स्टोरी इसलिए लिख रहा हूं ताकि 12 दिसंबर के बाद के प्रदर्शनों की हिंसा को हम ठीक से समझ सकें। हिंसा का नाम लेकर सभी प्रदर्शनों को नाजायज़ घोषित किया जा रहा है। लेकिन न तो सभी प्रदर्शनों में हिंसा हुई और न ही सभी हिंसा एक तरह की है। अनगिनत प्रदर्शन हुए हैं जो शांतिपूर्ण तरीके से हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। वैसे जहां हिंसा नहीं हुई है वहां भी पुलिस ने हज़ारों अज्ञात के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है और लोगों को जेल में बंद किया है। जैसे बनारस। अलीगढ़ में कैंडल मार्च करने के बाद कई सौ अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज हो गया।

नागरिकता संशोधन कानून के विरोध प्रदर्शन के दौरान दो तरह की और हिंसा हुई। पुलिस की तरफ से हिंसा हुई है। कई वीडियो में पुलिस वहां लोगों को मारते दिखती है जहां लोगों के पास भागने के रास्ते भी नहीं। वे गलियों में एक तरफ फंस कर नीचे दुबके हैं और लाठियां खा रही है और कुछ जगहों पर शांति से चलती हुई भीड़ पर पीछे से पुलिस टूट पड़ती है।

कुछ ऐसी हिंसा हुई जिसमें प्रदर्शनकारी पत्थर चलाते देखे जा सकते हैं जिन पर पुलिस सीधे गोली चलाने लगती है। एक हिंसा हुई जिसमें पुलिस कथित हिंसा के बाद लोगों के घर में घुस कर तोड़-फोड़ करने लगती है। इस हिंसा पर सब चुप हैं। ट्रोल करने वाली सेना तो चुप रहेगी ही। बहुमत की चुप्पी अपराधी की खामोशी की तरह लगने लगी है। कई जगहों पर पुलिस की गोली चलाने पर भी गंभीर सवाल उठे हैं। इस देश में जांच की हालत इतनी बुरी है कि इन सवालों के जवाब मिलने से रहे।

अब इस हिंसा पर ग़ौर कीजिए। कानून के विरोध में निकली सभाओं पर अज्ञात भीड़ ने हमला किया। कहीं पत्थर चलाए तो कहीं गोलियां। फुलवारी शरीफ की घटना इसी तरह की हिंसा की तस्वीर है। इस तरह की शिकायत मुज़फ्फरनगर, लखनऊ और पटना से सुनने को मिली हैं। ज़ाहिर है पुलिस इंकार ही करेगी।

हिंसा हमेशा समझ के रास्ते बंद कर देती है। लोग अपनी सुविधा के हिसाब से एक रास्ता खोलकर एक तरह की हिंसा पर बात करते हैं और बाकी पर नहीं। बेहतर है प्रदर्शनों में शामिल लोग जाने से पहले कुछ अभ्यास कर लें। ऐसे किसी नारे से हट जाएं जिनमें ललकार हो, उतावलापन हो या भड़काऊ हो। इस बात को लेकर आश्वस्त हो लें कि आयोजक कौन हैं। प्रदर्शन की जगह क्या है। आप कई वीडियो को देखेंगे तो पता चलेगा कि वहीं हिंसा हुई जहां कम जगह है। गलियां संकरी हैं। हिंसा की ज़रा भी आशंका हो तो ऐसे प्रदर्शनों में न जाएं। जाएं तो लगातार नज़र रखें कि कहीं कोई प्लान तो नहीं है। कोई भीड़ सामने या अगल-बगल से आ तो नहीं रही है।

शांतिपूर्ण प्रदर्शन बहुत ज़रूरी है। हिंसक प्रदर्शन से अच्छा है न ही हो।आमिर की जान जाए या अमर की। इससे प्रदर्शन के मकसद को कोई फायदा नहीं होता है। ट्रोल तो अपनी राजनीति करते रहेंगे उनका क्या। वो हत्यारों की आनलाइन भीड़ है। हत्या की किसी भी संस्कृति को मान्य होने मत दीजिए। चाहे वो लिख कर समर्थन करने वाले हों या सड़क पर मारने वाले हों। ज़्यादातर मामलों में दोनों एक ही होते हैं।
(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है।)

रवीश कुमार
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रवीश कुमार