नीरो, नीरो होता है, इन्सान नहीं होता

कहानियों और मुहावरों में सुना था कि जब रोम जल रहा था तो कोई नीरो बादशाह बांसुरी बजा रहा था। आज भारत देश का नीरो भी कुछ वैसा ही कर रहा है। आज वह हज़ारों करोड़ रुपये की लागत वाली एक इज़ाफ़ी पार्लियामेंट और अपने रहने के लिए नया महल बनवा रहा है। कल रोम जल रहा था, आज अवाम दवाई, सुई, ऑक्सीजन और टीके के लिए दर-दर भटक रही है। वे हज़ारों की तादाद में हर रोज़ मर भी रहे हैं। 

मगर आज का नीरो कल के नीरो से भी एक क़दम आगे निकला हुआ दिख रहा है। जलते हुए रोम के बारे में बोलने और लिखने के लिए, रोमी नीरो ने शायद किसी शायर, वाक़या-निगार और इतिहासकार को सलाख़ों के पीछे क़ैद नहीं किया होगा। मगर आज दुनिया की “बड़ी जम्हूरियत” का नीरो लोगों को परेशानी के बारे में बोलने और लिखने के पादाश में पुलिस को भेजकर गिरफ्तार करवा रहा है। 

यह सब देखकर मुझे ऐसा लग रहा है कि कल की राजशाही का नीरो और आज की डेमोक्रेसी का नीरो बहुत जुदा-जुदा नहीं हैं। दोनों अपनी ही दुनिया में डूबे हुए हैं। दोनों के सामने आम लोगों की हैसियत जानवर से ज़्यादा अहम् नहीं है। लोग मर जाएँ, तो मर जाएँ। नीरो को मलतब सिर्फ अपनी शोहरत और दौलत से है। दोनों का अक़ीदा यही है कि ताक़त और फ़ौज से किसी को भी दबाया जा सकता है। ज़ोर ज़बरदस्ती का पर्दा सूरज पर डाला जा सकता है और फिर दिन को रात क़रार दिया जा सकता है। 

अवाम के कड़े विरोध के बीच, पार्लियामेंट की नई इमारत बीस हज़ार करोड़ रूपये की लागत से बन रही है। एक बार फिर लोगों की मुख़ालफ़त को ताक़त से कुचला जा रहा है। 

‘नेसेसिटी इज़ दी मदर आफ इन्वेंशन’। कुछ लोग को अक्सर यह कहते सुना था कि ज़रुरत की वजह से ही चीज़ें वजूद में आती हैं। मगर यह बात नीरो के राज में लागू नहीं होती। निर्माण ज़रुरत की वजह से नहीं, बल्कि एक नीरो की ज़िद को पूरा करने लिए हो रहा है। 

मौजूदा पार्लियामेंट से सब का काम बख़ूबी चल रहा था, फिर भी नई ईमारत बन रही है। इस के अलावा पी.एम. के लिए एक नई रिहायश-गाह भी बन रही है। इस की भी ज़रुरत नहीं थी। एक नेता और उसके परिवार के रहने के लिए मौजूदा आवास काफी था। 

अगर नीरो इन्सान होते तो वे नए महल नहीं बनवाते, बल्कि मरते हुए लोगों से कहते कि, “आप मेरे आवास में रहने के लिए आ जाइये”। 

मगर बेड लगाने का काम तो छोटे मोटे इन्सान करते हैं? दाह संस्कार का भी इन्तज़ाम आम लोग ही करते हैं। नीरो तो महल बनवाता है, और बांसुरी बजता है। 

इस बीच सोशल मीडिया पर दिल को दहला देने वाली तस्वीरें गश्त कर रही हैं। शमशान स्थलों और कब्रिस्तानों के पास लाशों की लम्बी क़तार दिख रही है। वायरल होती तस्वीरें गंगा नदी में तैरती लाशों के बारे में बतला रही हैं। ये तैरती हुई लाश, जिन्हें चील और जानवर नोच के खा रहे हैं, दिलों में दहशत पैदा कर रहे हैं। यह भी सुना है कि इलाहाबाद के घाट पर बालू के अन्दर बहुत सारी लाशों को दफ़न किया गया है। अब जब बालू हवा की वजह से उड़ने लगे हैं, तो नीरो की “अज़मत” बाहर आ रही है। नीरो के राज में, जिंदा रहते लोगों को दवा, दारू और इलाज नहीं मिल रहा है, वहीं मर जाने पर, उनको इज्ज़त के साथ दो गज ज़मीन नहीं मिल पा रही है। 

मगर देश के नीरो को अपनी ज़िद के सिवा कुछ नहीं दिखा रहा है। उसकी ज़िद यह है कि उसके राज में एक ऐसा महल बने, जिसे पहले किसी ने नहीं बनवाया था। इस महल को बनाने के लिए हज़ारों पेड़, आस-पास की पुरानी इमारत, सब कुर्बान हैं। नीरो यह साबित करना चाहता है कि उससे पीछे सभी मिट्टी और राख से भी नीचे दर्जे के थे, जबकि वह सब से “अफज़ल” है। 

मगर, आज का नीरो यह भूल जा रहा है कि कल भी कोई नीरो आएगा और वह भी यही सब दुहरायेगा। इसलिए कि नीरो तो नीरो होता है, छोटे दर्जे का इन्सान थोड़े होता है, जो बात बात पर पिघल जाए, जिसका दिल कमज़ोर मोम का बना होता है। नीरो का दिल तो नीरो के जिस्म की तरह फ़ौलाद का बना होता है। नीरो इन्सान की तरह मामूली नहीं होता, जो यूँ ही ज़िंदगी गुज़ार दे। बगैर नामो-निशान के आये और रुखसत हो चले। आम लोग का नाम तो किसी बिल्डिंग और इमारत पर भी नहीं होती। आम लोग किसी कारीगर से महल बनाकर उसका हाथ भी नहीं काटते। आम लोग बच्चों के मुंह से दूध छीन कर आसमान को चूमने वाले महल भी नहीं बनवा पाते। वे दूसरों की रोटी छीन कर संगमरमर, चांदी और सोने के क़िले भी तो नहीं बनवा पाते। आम लोग कुछ नहीं कर पाते। मगर, नीरो तो नीरो होता है। वह मामूली इन्सान की तरह नहीं होता। रोमी नीरो रोम जलने पर भी बांसुरी बजाना नहीं छोड़ा। आज का नीरो लोगों की जान की परवाह किये बगैर भी नया महल बनवाने की ज़िद नहीं छोड़ रहा है। 

(अभय कुमार जेएनयू में रिसर्च स्कालर हैं और आजकल अपना एक यूट्यूब चैनल भी चलाते हैं।)

अभय कुमार
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