नयी शिक्षा नीतिः महामारी संकट में शिक्षा के निजीकरण को अवसर में बदलने की कोशिश

‘दिशा छात्र संगठन’ ने नयी शिक्षा नीति का विरोध किया है। संगठन ने कहा कि छात्रों-युवाओं और बुद्धिजीवियों के तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए मोदी सरकार की कैबिनेट ने ‘नयी शिक्षा नीति 2020’ को मंजूरी दे दी। कायदे से इस शिक्षा नीति को संसद के दोनों सदनों में पेश करके पास किया जाना था, तभी यह कानून बनती लेकिन मोदी सरकार के चाल-चरित्र-चेहरे से लगता है कि उसकी नौबत ही नहीं आने दी जाएगी। यह शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी विनिवेश को घटाएगी और बड़ी पूंजी के लिए शिक्षा के दरवाज़े खोलेगी। व्यापक मेहनतकश जनता के बेटे-बेटियों के लिए शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते और भी संकरे हो जाएंगे।

के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी कमेटी ने नयी शिक्षा नीति का प्रारूप (ड्राफ्ट) सरकार को 31 मई 2019 को सौंप दिया था। यह ड्राफ्ट अंग्रेजी में 484 और हिंदी में 648 पेज का था। इसी के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) ने 55 पेज का प्रारूप (ड्राफ्ट) कैबिनेट में भेज दिया था। कैबिनेट इसे पारित करके संसद के दोनों सदनों में पेश करने वाला था और फिर वहां से पास होने पर ये ड्राफ्ट देश में नयी शिक्षा नीति के रूप में लागू हो जाता।

दिशा ने कहा कि केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के बयानों से लगता है कि ‘घर की बही, काका लिखणिया’ के दौरे-दौरा में संसद के दोनों सदनों की मंजूरी के बिना ही इसे कानून बना दिया जाएगा। नयी शिक्षा नीति अगले 20 साल तक शिक्षा के स्वरूप और ढांचे को निर्धारित करेगी।

भारत में पहली शिक्षा नीति 1968 में आई थी। आज़ादी के बाद से लेकर 1968 तक शिक्षा की दिशा टाटा-बिड़ला प्लान से निर्देशित थी। इसके बाद दूसरी शिक्षा नीति 1986 में आई। इसे 1992 में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के मद्देनजर संशोधित किया गया। तभी से शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी की घुसपैठ की परियोजना को अंजाम दिया गया। इसके साथ ही शिक्षा भी मुनाफ़ा कमाने का एक साधन बन गई। अब सरकार तीसरी शिक्षा नीति को लेकर आन खड़ी हुई है।

‘नयी शिक्षा नीति 2020’ बातें तो बड़ी-बड़ी कर रही है, किन्तु इसकी बातों और इसमें सुझाए गए प्रावधानों में विरोधाभास है। यह नीति शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को उन्नत करने की बात कहती है किंतु दूसरी तरफ दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए सरकार की ज़िम्मेदारी को ख़त्म करने की बात कहती है। शिक्षा नीति का मूल प्रारूप देश में स्कूली स्तर पर 10 लाख अध्यापकों की कमी को तो स्वीकार करता है परंतु इन पदों की भर्ती की कोई ठोस योजना पेश नहीं करता।

यह शिक्षा नीति फॉउंडेशनल स्टेज यानी पहले पांच साल की पढ़ाई (3+2) में अध्यापक की कोई जरूरत महसूस नहीं करती। इस काम को एनजीओ कर्मी, आंगनबाड़ी कर्मी और अन्य स्वयंसेवक अंजाम देंगे। वैसे भी यह नीति तथाकथित ढांचागत समायोजन की बात करती है। इसका मतलब है कम संसाधनों में ज़्यादा करो यानी सरकार का अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने का प्रयास!

‘नयी शिक्षा नीति’ का दस्तावेज खुद स्वीकार करता है कि देश में अब भी 25 फीसदी यानी 30 करोड़ से ऊपर लोग अनपढ़ हैं। फिर भी नयी शिक्षा नीति में शिक्षा की सार्वभौमिकता का पहलू छोड़ दिया गया है। यानी शिक्षा की पहुंच को आखिरी आदमी तक ले जाने की कोई ज़रूरत नहीं! वैसे तो यह ड्राफ्ट 2030 तक 100% साक्षरता के लक्ष्य को पाने की बात करता है, परंतु दूसरी तरफ कहता है कि जहां 50 से कम बच्चे हों वहां स्कूल को बंद कर देना चाहिए। आज स्कूलों को बढ़ाने की जरूरत है, किन्तु यह नीति ठीक इसके उलट उपाय सुझा रही है। पुरानी शिक्षा नीति कहती थी कि स्कूल पहुंच के हिसाब से होना चाहिए न कि बच्चों की संख्या के हिसाब से।

नयी शिक्षा नीति का मूल ड्राफ्ट शिक्षा के ऊपर जीडीपी का 6 प्रतिशत और केंद्रीय बजट का 10 फीसदी ख़र्च करने की बात करता है किन्तु साथ में ये यह भी कहता है कि यदि कर (टैक्स) कम इकठ्ठा हो तो इतना खर्च नहीं किया जा सकता। यह ड्राफ्ट शिक्षा के अधिकार के तहत 3-18 साल तक के बच्चे को निःशुल्क शिक्षा देने की बात करता है। किन्तु आयु सीमा 18 साल तक नहीं होनी चाहिए बल्कि सरकार को नर्सरी से पीएचडी तक की शिक्षा निःशुल्क और एक समान उपलब्ध करानी चाहिए।

नयी शिक्षा नीति के मूल ड्राफ्ट में यह भी सुझाव दिया गया है कि छठी कक्षा से बच्चों को छोटे-मोटे काम-धन्धे भी सिखाए जाएंगे। आज हमारे देश के उद्योगों में उत्पादन क्षमता का सिर्फ़ 73 प्रतिशत ही पैदा किया जा रहा है (यह आँकड़ा कोरोना पूर्व का है)। पूंजीपति आपसी प्रतिस्पर्धा में सस्ते श्रमिकों की आपूर्ति के लिए वोकेशनल सेंटरों, आईटीआई, पॉलिटेक्निक इत्यादि का रुख कर रहे हैं ताकि इन्हें सस्ते मज़दूर मिल सकें और शिक्षा पर खर्च भी कम करना पड़े। यह कदम इसी उदेश्य को ध्यान में रखकर नयी शिक्षा नीति में शामिल किया गया है। कुल मिलाकर नयी शिक्षा नीति का प्रारूप जनता के समान और निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को तिलांजलि देने के समान है।

छात्र संगठन दिशा ने कहा कि नयी शिक्षा नीति 2020 लागू होने के बाद उच्च शिक्षा के हालात तो और भी बुरे होने वाले हैं। पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफवाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई इत्यादि स्कीमें भारत की शिक्षा व्यवस्था को अमरीकी पद्धति के अनुसार ढालने के प्रयास थे। अब विदेशी शिक्षा माफिया देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा ढांचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे। शिक्षा के मूलभूत ढांचे की तो बात ही क्या करें यहां तो शिक्षकों का ही टोटा है। केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में क़रीबन 70 हजार प्रोफेसरों के पद ख़ाली हैं।

उच्च शिक्षा को सुधारने के लिए हायर एजुकेशन फाइनेंसियल एजेंसी ( HEFA) बनी हुई है। उसका बजट विगत साल 650 करोड़ से घटाकर 2,100 करोड़ कर दिया गया है। उससे पिछले वर्ष इसका बजट 2,750 करोड़ था। हैरानी की बात तो यह है कि ख़र्च सिर्फ 250 करोड़ ही किया गया था। दरअसल यूजीसी हेफा को अब अनुदान की बजाय कर्ज देगी जो हेफा विश्वविद्यालयों को देगी और विश्वविद्यालयों को यह कर्ज 10 वर्ष के अंदर चुकाना होगा। सरकार लगातार उच्च शिक्षा बजट को कम कर रही है।

लगातार कोर्सों को स्व-वित्तपोषित बनाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों को स्वायत्ता दी जा रही है। इसका मतलब है कि सरकार विश्वविद्यालय को कोई फंड जारी नहीं करेगी। सरकार की मानें तो विश्वविद्यालय को अपना फंड, फीस बढ़ाकर या किसी भी अन्य तरीके से जिसका बोझ अन्ततः विद्यार्थियों पर ही पड़ेगा, करना होगा। इसके पीछे सरकार खजाना खाली होने की बात करती है किन्तु कैग की रिपोर्ट के अनुसार 2007 से अब तक प्राप्त कुल शिक्षा सेस में से दो लाख 18 हज़ार करोड़ रुपये की राशि सरकार ने खर्च ही नहीं की है।

क्या ये पैसा पूंजीपतियों को बेल आउट पैकेज देने पर खर्च किया जाएगा? एक तरफ सरकार ढोंग करती है कि बजट का 10 प्रतिशत और सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च होना चाहिए दूसरी और 10 और 6 प्रतिशत तो छोड़ ही दीजिए जो थोड़ी बहुत राशि शिक्षा बजट के तौर पर आवंटित होती है सरकार उसमें से भी डंडी मारने की फ़िराक में रहती है।

उच्च शिक्षा से जुड़े एमए, एमफ़िल, तकनीकी कोर्सों और पीएचडी के कोर्सों को भी मनमाने ढंग से पुनर्निर्धारित किया गया है। एमफिल के कोर्स को समाप्त ही कर दिया गया है। इससे सीधे-सीधे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ होगा। नयी शिक्षा नीति में मल्टीएन्ट्री और एग्जिट का प्रावधान किया गया है यदि कोई छात्र बीटेक किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाया तो उसे एक साल के बाद सर्टिफिकेट, दो साल करके छोड़ने पर डिप्लोमा तो तीन साल के बाद डिग्री दी जा सकेगी। मतलब नयी शिक्षा नीति यह मानकर चल रही है कि छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पाएंगे। सरकार को ऐसे तमाम कारणों के समाधान ढूंढने चाहिए थे ताकि किसी छात्र को अपनी पढ़ाई बीच में न छोड़नी पड़े। इससे तकनीकी कोर्सों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा।

दिशा ने बताया कि पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा में भी बदलाव किये गए हैं। यदि किसी छात्र को शोध कार्य करना है तो उसे एक साल एमए करने के बाद चार साल की डिग्री करनी होगी। उसके बाद उसे बिना एमफ़िल किए पीएचडी में दाखिला दे दिया जाएगा। अगर किसी को नौकरी करनी है तो उसे एक साल एमए करने के बाद तीन साल की डिग्री करनी होगी। यानी स्नातकोत्तर डिग्री व्यापक जनता के लिए और भी दुरूह हो जाएगी। देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रैक्टिकल काम न के बराबर होते हैं। इसकी वजह से हमारे देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए नयी शिक्षा नीति में कोई कदम नहीं उठाया गया है।

मानविकी विषय तो पहले ही मृत्यु शैया पर पड़े हैं। इनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करना अब और भी मुश्किल हो जाएगा। उच्च शिक्षा पर पहले से जारी हमलों को उच्च शिक्षा नीति और भी द्रुत गति प्रदान करेगी।

कुल मिलाकर ‘नयी शिक्षा नीति 2020’ जनता के हक़ के प्रति नहीं बल्कि बड़ी पूंजी के प्रति समर्पित है। शिक्षा की नयी नीति हरेक स्तर की शिक्षा पर नकारात्मक असर डालेगी। यह समय देश के छात्रों-युवाओं और बौद्धिक तबके के लिए शिक्षा के अधिकार को हासिल करने के लिए नये सिरे से जनान्दोलन खड़े करने के लिए कमर कस लेने का समय है।

उधर, केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति पर आइसा ने कहा है कि यह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शिक्षा से वंचित कर देगा। अब सिर्फ अच्छी वित्तीय स्थिति वाले छात्र ही डिग्री पूरी कर पाएंगे। गरीब छात्रों को डिप्लोमा के लिए समझौता करना होगा।

उच्च शिक्षा को क्रेडिट बैंकों के साथ मैकडॉनल्ड्स की दुकान में बदल दिया गया है। जहां जिसके पास जितना पैसा है वह उसी तरह से आर्डर कर सकता है। संगठन ने कहा कि नई शिक्षा नीति में प्रत्यायन रेटिंग किसी संस्थान की स्वायत्तता की डिग्री तय करेगी। बहुत अधिक मान्यता वाला संस्थान अपनी फीस बढ़ा सकता है। इससे गरीब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से बाहर हो जाएगा।

शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में ऑनलाइन शिक्षा शुरू करने पर जोर दिया गया है। यह शिक्षा प्रणाली को हाशिए पर छोड़ने की नीति है। यूजीसी और अन्य नियमित निकायों को उच्च शिक्षा नियामक प्राधिकरण बनाने के लिए भंग कर दिया गया है। शासन का मॉडल बोर्ड स्वायत्तता और अकादमिक उत्कृष्टता को नष्ट कर देगा।

आइसा ने कहा कि नई नीति कहती है कि कि निजी और सार्वजनिक संस्थानों के बीच कोई अंतर नहीं होगा। यानी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के शैक्षिक संस्थानों को आर्थिक सहायता देने से खुद को बाहर कर लेगी।

आइसा ने कहा कि वह जल्द एक विस्तृत विश्लेषण जारी करेगा। प्रारंभिक रिपोर्ट पढ़ने से पता चलता है कि नई शिक्षा नीति का मसौदा का एक मात्र उद्देश्य शिक्षा के निजीकरण का एक मॉडल है। आइसा ने शिक्षा विरोधी मसौदे को खारिज कर दिया है। संगठन ने मांग की है कि इसे तुरंत वापस लिया जाए और संसद में पहले इस पर चर्चा की जाए।

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